मंगलवार, 24 नवंबर 2020

👉 राई को पर्वत न मानें

कई लोग दैनिक जीवन में घटती रहने वाली छोटी−छोटी बातों को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं और राई को पर्वत मानकर क्षुब्ध बनें रहते हैं। यह मन की दुर्बलता ही है। जीवन एक खेल की तरह खेले जाने पर ही आनन्दमय बन सकता है खिलाड़ी लोग क्षण-क्षण में हारते-जीतते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे अपना मानसिक संतुलन ठीक बनाये रहते हैं। कोई खिलाड़ी यदि हर हार पर सिर धुनने लगे और हर जीत पर हर्षोन्मत हो जाय तो यह उसकी एक मूर्खता ही मानी जायगी। संसार एक नाट्यशाला है। जीवन एक नाटक है। जिसमें हमें अनेक तरह के रूप बनाकर अभिनय करना होता है। 

कभी राजा, कभी बन्दी, कभी योद्धा कभी भिश्ती बनकर पार्ट अदा करते हैं। नट केवल इतना ही ध्यान रखता है कि हर अभिनय को वह पूरी तन्मयता के साथ पूरा करें। दर्शक, राजा या भिश्ती बनने के कारण नहीं अभिनेता की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि जो भी काम सौंपा गया था उसने उसे पूरी खूबी और दिलचस्पी से किया। हमें सफलता का ही नहीं असफलता का भी अभिनय करने को विवश होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में हम अपना मानसिक सन्तुलन क्यों खोते। हर पार्ट को पूरी दिलचस्पी और हँसी−खुशी से पूरा क्यों न करें? जो असफलता और परेशानी के अभिनय को ठीक तरह खेल सकता है वस्तुतः वही प्रशंसनीय खिलाड़ी है। हमें जीवन नाटक को खेलना ही चाहिए, पर अन्तस्तल तक उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया न पहुँचने देनी चाहिए जो दुखद हो। हमें भविष्य की बड़ी से बड़ी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७२)

बहुत बड़ी है आततायी विघ्नों की फौज

महर्षि पतंजलि के सूत्रों को यदि हृदयंगम किया जाए, तो जीवन अनायास ही नए सिरे से गढ़ता चला जाता है। यथार्थ में ये सूत्र जीवन के परिमार्जन, परिष्कार की तकनीकें हैं। कइयों ने इन्हें अपने जीवन के यौगिक रूपान्तरण की विधियों के रूप में अनुभव किया है। महर्षि पतंजलि के सूत्र सत्य को परम पूज्य गुरुदेव ने इस युग में व्यावहारिक कुशलता दी है। गुरुदेव की साधना, इनके प्रायोगिक निष्कर्ष महर्षि के सूत्रों की बड़ी प्रभावपूर्ण व्याख्या करते हैं। यह व्याख्या साधकों को किसी नए विचार अथवा नए तर्क की ओर न ले जाकर सर्वथा नवीन अनुभूति तक ले जाती है।
    
दूसरी तरफ ईश्वरीय अनुभूति करने में प्रमाद कर रहे लोगों को महर्षि चेतावनी देते हैं कि विघ्नों के क्रम की इति यहीं तक नहीं है। ये और भी हैं। योग साधना के अन्य विक्षेपों का खुलासा करते हुए महर्षि अपना अगला सूत्र प्रकट करते हैं-

दुःखदौर्मनस्याङ्ग्रमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥ १/३१॥
शब्दार्थ-
(१) दुःख= आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक- इस तरह के दुःख के मुख्य तौर पर तीन भेद हैं। काम-क्रोध आदि विकारों के कारण होने वाले शरीर व मन की पीड़ा आध्यात्मिक दुःख है। मनुष्य या अन्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा आधिभौतिक दुःख है। ग्रहों के कुपित होने पर या दैवी आपदाएँ आने पर जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं।  
(२) दौर्मनस्य= इच्छा की पूर्ति न होने पर मन में जो क्षोभ होता है, उसे दौर्मनस्य कहते हैं। 
(३) अङ्गमेजयत्व= शरीर के अंगों में कंपकपी होना अंगमेजयत्व है। (४)श्वास= बिना इच्छा के ही बाहर की वायु का भीतर प्रवेश कर जाना अर्थात् बाहरी कुम्भक में विघ्न हो जाना ‘श्वास’ है। 
(५) प्रश्वास= बिना इच्छा के ही भीतर की वायु का बाहर निकल जाना अर्थात् भीतरी कुम्भक में विघ्न हो जाना ‘प्रश्वास’ है। ये पाँचों विघ्न, विक्षेपसहभुवः= विक्षेपों के साथ-साथ होने वाले हैं।
    
अर्थात् दुःख, निराशा, कंपकपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।

महर्षि अपने इस सूत्र में अन्तर्यात्रा पथ के पथिक को चिन्तन और अनुभव की गहराई में ले जाना चाहते हैं। इस सूत्र में वे इन पाँचों विघ्नों का स्वरूप बताते हुए वे कहते हैं कि ये विघ्न लक्षण हैं विक्षेपयुक्त मन के। ध्यान रहे, लक्षण बीमारी नहीं होती, बस बीमारी का परिचय भर होता है। जैसे कि बुखार का लक्षण है—शरीर का ताप बढ़ जाना। यानि कि यदि देह का ताप बढ़ा हुआ है, तो बुखार हो सकता है। अब दूसरे क्रम में बुखार भी लक्षण हो सकता है-किसी अन्य बीमारी का। यह अन्य बीमारी मलेरिया, टायफायड या फिर अन्य कोई संक्रमण कुछ भी हो सकती है। बीमारी के सही निदान के लिए हमें लक्षण को भली-भाँति परखकर बीमारी के सही स्वरूप तक पहुँचना होता है। लक्षण हमें केवल बीमारी का परिचय देते हैं। इस परिचय के आधार पर बीमारी का समग्र विश्लेषण और समर्थ उपचार ढूँढना पड़ता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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