गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

👉 सज्जनता का सौन्दर्य

👉 QUERIES ABOUT ANUSTHANS (Part 6)

Q.13. What  is the ideal ‘Bramhabhoj’ after completion of the ‘Anusthan’?

Ans. In an Anusthan the last ritual is ‘Brahmbhoj’ after Poornahuti in the Havan. Traditionally it requires feeding Brahmans or young maidens. Qualified, deserving Brahmans are not easily available, these days. Alternatively, maidens (who being symbolic of mother power of God the Matri Shakti, are fed to augment faith) are offered food, but at times they are not permitted by self-respecting parents to take food in a stranger’s house. Brahmbhoj has, thus, ceased to have relevance in the contemporary society.

Under these circumstances, Brahmdan i.e. ‘Dissemination of spiritual wisdom’ (Sadgyan) can truly serve the purpose of Brahmbhoj. For each Ahuti, one is recommended to donate one paisa (one hundredth of local currency) for Brahmdan and with this amount procure literature pertaining to ‘Yug Nirman’ (resurrection of moral values in the society) and distribute it to deserving persons. In this manner, one can sow seeds of spiritual wisdom in many hearts, the fruits of which are reaped by the readers and motivators alike.

Q.14. What should one do if some unfavourable unforeseen events occur during an Anusthan?


Ans. Under such circumstances one may discontinue the Sadhana, Jap etc. for the period and resume it later from the count of disruption. However, a mental recitation, without a rosary, is permissible in all circumstances.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 77

👉 विश्वविद्यालय

आँखें खुली हों तो पूरा जीवन ही विश्वविद्यालय है। जीवन का हर क्षण स्वयं में विश्व की कोई न कोई विद्या समेटे है। और फिर जिसे सीखने की ललक है, वह प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक घटना से सीख लेता है। प्रकृति के आँगन में हो रही हर हलचल उसे कोई न कोई नयी सीख देती है। याद रहे कि जो इस तरह नहीं सीखता है, वह जीवन में कभी कुछ नहीं सीख पाता। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहा करते थे, हर व्यक्ति जिससे मैं मिलता हूँ, किसी न किसी बात में मुझसे श्रेष्ठ है। वही मैं उससे सीखने की कोशिश करता हूँ।
  
उन्हीं के जीवन का एक प्रसंग है। वह किसी दूसरे देश में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में गए हुए थे। इस विश्वविद्यालय ने उनके लिए एक व्याख्यान माला का आयोजन किया था। उन्हें सुनने के लिए विभिन्न विषयों के विद्वान, राजनेता, उच्च पदाधिकारी सभी पधारे थे। एक दिन सायं वह अपने व्याख्यान को समाप्त कर घूमने के लिए निकले। राह में उन्होंने देखा, एक कुम्हार मिट्टी के बर्तन बना रहा था। उस कुम्हार की कारीगरी उन्हें विलक्षण लगी। जीवन और जगत् के स्रष्टा की भाँति, वह भी एक नवीन सृष्टि गढ़ रहा था। आइन्स्टीन काफी देर तक खड़े रहकर उसका यह कौशल देखते रहे।
  
फिर उन्होंने उससे कहा- ईश्वर की खातिर मुझे भी अपना बनाया हुआ बर्तन देंगे क्या? उनके मुख से ईश्वर का नाम सुनकर वह कुम्हार चौंका। फिर उसके होंठो पर एक हल्की सी मुस्कान उभरी। उसने अपने हाथ में लिया हुआ काम छोड़ दिया और अपने बनाए हुए बर्तनों में से एक सबसे सुन्दर बर्तन उठाया। उसे साफ करके बड़े ही सुन्दर ढंग से उसने आइन्स्टीन के हाथों में थमाया। कुम्हार का दिया बर्तन अपने हाथों में लेने के बाद उन महान् वैज्ञानिक ने उसे देने के लिए पैसे निकाले। परन्तु उस कुम्हार ने उन पैसों को लेने से इन्कार करते हुए कहा- महोदय! आपने तो ईश्वर की खातिर बर्तन देने को कहा था, पैसों की खातिर नहीं। आइन्स्टीन, अपनी मित्र मण्डली में हमेशा इस घटना का जिक्र करते हुए कहते थे, जो मैं कभी किसी विश्वविद्यालय में नहीं सीख सका, वह मुझे उस कुम्हार ने सिखा दिया। मैंने उससे निष्काम ईश्वर भक्ति सीखी। भला जीवन से बड़ा विश्वविद्यालय और कहाँ?

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १८९

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