एक बार श्रीरंग अवधूतजी से एक भक्त ने प्रश्न किया: ‘‘महाराज! हमें श्रेय के दर्शन क्यों नहीं होते और अश्रेय के तो बार-बार होते हैं?’’
श्रीरंगजी बोले: ‘‘वेदशास्त्र और सद्गुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय के दर्शन?’’
‘‘हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।’’
श्रीरंगजी: ‘‘भाई ! भगवद्भाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ करके देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझनेवाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा-गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य-लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।’’
एक बार श्रीरंगजी ने अपने शिष्य को आज्ञा की:‘‘सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे दिया पर अंतिम पलों के तो हमें खुद ही मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।’’
श्रीरंगजी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। तब महाराजजी उन्हें शांत करते हुए बोले: "मैं कहीं आता-जाता नहीं हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी। यदि मानव-देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे-वैसे नष्ट क्यों कर दें?’’
भक्त ने पूछा: ‘‘स्वामीजी! ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है?’’
‘‘ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म - ये सारे मानव-जीवन के व्रत हैं किंतु ‘भगवत्प्रेम’ ही मानव-जीवन का श्रृंगार है।’’
श्रीरंगजी बोले: ‘‘वेदशास्त्र और सद्गुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय के दर्शन?’’
‘‘हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।’’
श्रीरंगजी: ‘‘भाई ! भगवद्भाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ करके देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझनेवाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा-गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य-लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।’’
एक बार श्रीरंगजी ने अपने शिष्य को आज्ञा की:‘‘सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे दिया पर अंतिम पलों के तो हमें खुद ही मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।’’
श्रीरंगजी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। तब महाराजजी उन्हें शांत करते हुए बोले: "मैं कहीं आता-जाता नहीं हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी। यदि मानव-देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे-वैसे नष्ट क्यों कर दें?’’
भक्त ने पूछा: ‘‘स्वामीजी! ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है?’’
‘‘ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म - ये सारे मानव-जीवन के व्रत हैं किंतु ‘भगवत्प्रेम’ ही मानव-जीवन का श्रृंगार है।’’