शनिवार, 17 दिसंबर 2022

👉 ईश्वर प्रदत्त उपहार और प्यार अनुदान

‘मनुष्य−जन्म’ भगवान् का सर्वोपरि उपहार है। उससे बढ़कर और कोई सम्पदा उसके पास ऐसी नहीं है, जो किसी प्राणी को दी जा सके। इस उपहार के बाद एक और अनुदान उसके पास बच रहता है, जिसे केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं—जिन्होंने अंधकार से मुख मोड़कर प्रकाश की ओर चलने का निश्चय कर लिया है। “इस प्रयाण के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का धैर्य और साहस के साथ स्वागत करने की—जिनमें क्षमता है, वह अनुदान उन्हीं के लिए सुरक्षित है।”

‘मनुष्य−जन्म’ ईश्वर का विशिष्ट उपहार है और मनुष्योचित संकल्प भगवान् का महानतम अनुदान। मानव−जीवन की सार्थकता इस आदर्श−परायण संकल्प−निष्ठा के साथ जुड़ने से ही होती है। यह सही है कि मनुष्य−कलेवर संसार के समस्त प्राणियों से सुख−सुविधा की दृष्टि से सर्वोत्तम है, पर उसकी गौरव−गरिमा इस बात पर टिकी हुई है “कि मनुष्य−जन्म के साथ मनुष्य−संकल्प और मनुष्य−कर्म भी जुड़े हुए हों।”

“हमें ‘मनुष्य−जन्म’ मिला—यह ईश्वर के अनुग्रह का प्रतीक है। उसका ‘प्यार’ मिला, या नहीं—इसकी परख इस कसौटी पर की जानी चाहिए कि मानवी−दृष्टिकोण और संकल्प अपना कर उस मार्ग पर चलने का साहस मिला, या नहीं—जो जीवन−लक्ष्य की पूर्ति करता है। वस्तुतः ‘मनुष्य−जन्म’ धारण करना उसी का धन्य है, जिसने आदर्शों के लिए अपनी आयु तथा विभूतियों को समर्पित करने के लिए साहस संचय कर लिया। ऐसे मनुष्यों को ईश्वर का उपहार ही नहीं, वरन् प्यार एवं अनुदान मिला समझा जाना चाहिए।”

जेम्स गिब्स
अखण्ड ज्योति- जनवरी 1974 पृष्ठ 3

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👉 सभी जीव ईश्वर के प्यारे

फारस के सन्त नूरी अनल-हक (मैं ही ईश्वर हूँ) मंत्र का जप करते और दूसरों को भी ऐसा ही करने को कहते। यह बात कट्टरपन्थियों को बहुत बुरी लगी। वे लोग इस शिकायत को लेकर बादशाह के पास पहुँच गये। परन्तु सन्त और उनके अनुयायियों पर इसका जरा भी असर नहीं हुआ। बादशाह ने नाराज होकर सन्त तथा उसके सभी अनुयायियों को गिरफ्तार करके उन्हें मृत्युदण्ड की सजा सुना दी।

दण्ड के लिये नियत दिन सबको एक पंक्ति में खडा़ कर दिया गया। बादशाह ने जल्लाद से एक-एक करके सबका सिर तलवार से उडाने की आज्ञा की। जल्लाद जब पहले अनुयायि के पास गया और उसका सिर उडाने के लिए उसने ज्योंही तलवार उठाई, सन्त नूरी वहाँ जा पहुँच और उन्होंने जल्लाद बोला, "उतावले क्यों हो, मलंग! तुम्हारी बारी आने पर तुम्हारा भी सिर कलम कर दिया जाएगा।"

सन्त ने कहा, "मेरे गुरु ने मुझे नसीहत दी है कि दुनिया का हर इंसान एक समान है - न कोई बडा़ है, न कोई छोटा, इसलिए हर एक के साथ भाई जैसा बरतना चाहिए, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं बरतना चाहिए। अपने प्यार को परिवार के सदस्यों पर ही नहीं उडे़लना चाहिए, बल्कि खुदा ने जिसको भी इस संसार में भेजा है, वे सभी मेरे प्यार के कबिल हैं। जिस आदमी का सिर तुम काट रहे थे, वह भी खुदा द्वारा भेजा हुआ है; वह मेरा सिर काटो और उसके बाद दूसरों पर तलवार उठाना।"

जल्लाद ने सुना, तो सोचने लगा - उलाह ने मुझे भी तो इस संसार में भेजा है, इसलिए ये सब मेरे भी तो भाई ही हुए और मैं जो इन भाइयों को मौत के घाट उतारने जा रहा हूँ - यह ठीक नहीं। उसने तलवार नीचे रख दी और बादशाह से कहा, "मैं अपने भाइयों का कत्ल करके दोजख में नहीं जाना चाहता। आप मेरा सिर उडा़ सकते हैं, मगर मैं इनका सिर नहीं उडा़ सकता।" इन शब्दों का बादशाह पर बडा़ गहरा असर पडा़ । उसे पछतावा होने लगा कि बेवजह ही उसके द्वारा इतने लोगों के कत्ल का गुनाह उसके द्वारा होने जा रहा था, लेकिन बेरहम माने जाने वाले जल्लाद ने उसकी आँखे खोल दी हैं। बादशाह ने सन्त से माफी माँगी और सबको सम्मान के साथ विदा किया।

राम कृष्ण वचनामृत से

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👉 जीवन में सेवा का महत्त्व

प्राणी मात्र की सेवा करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। इसे ही विराट ब्रह्म की आराधना कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्व भूत हिते रता:। जो सब जीवों का हित-चिंतन करते हैं, मुझे प्राप्त होते हैं। अत: साधक के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वह लोक-आराधक बनें, सेवा भावी बनें।
  
विभिन्न दुर्गुणों का त्याग करने पर ही सेवा व्रत का पालन किया जा सकता है। स्वार्थ को छोड़े बिना सेवा का कार्य नहीं हो सकता। जिन्हें अपने इन्द्रिय सुखों की चिंता रहती है, वे व्यक्ति सेवा कार्य में कभी भी सफल नहीं हो सकते। सेवा व्रती का हृदय करुणा और दया से ओत-प्रोत होता है। वह विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता। वह सब भोगों से निवृत्त रहता है। त्याग के कारण उसमें गुण-ग्राहकता बढ़ती जाती है।
  
दु:खियों की सेवा, निर्बल की रक्षा और रोगियों की सहायता सेवा का मुख्य लक्ष्य है। सेवा व्रती साधक किसी की हानि नहीं करता, किसी का निरादर नहीं करता। वह निरभिमानी, विनयी और त्यागी होता है। उसका अंत:करण पवित्र होने से मन की चंचलता भी नष्टï हो जाती है।
  
सेवा व्रती का शरीर स्वच्छ रहना आवश्यक है। उसे अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान करना चाहिए। अपवित्र और  रोगी मनुष्य की प्रवृत्ति कभी स्वच्छ नहीं रहती। उनमें क्रोध, ईर्ष्या आदि की उत्पत्ति हो जाती है। इससे विभिन्न वासनाएँ भडक़ उठती हैं। फिर मनुष्य अपनी इन्द्रियाँ पर नियंत्रण नहीं रख पाता। जब असंयम का अधिकार बढ़ता है, तब दुष्कर्मों की वृद्धि होती है। सुख की कामना से की गई सेवा भोग में परिवर्तित हो जाती है तब साधक में अहंकार जाग्रत होता है। सत्य का लोप हो जाता है, पाप-वृत्तियाँ अपना पंजा कठोर करती हुई उसे बुरी तरह जकड़ लेती है।
  
स्थूल शरीर की इच्छाएँ मनुष्य के धर्म का अपहरण कर लेती हैं, उस समय अन्याय और दुराचार का बोलबाला होता है। यदि अपने मन पर नियंत्रण नहीं हो तो सेवा कुसेवा बन जायेगी और जीवन की सुख-शांति का लोप हो जायेगा। मन शुद्ध हो तो अपने-पराये में भेद नहीं रहता। जब वस्तुओं का लोभ नष्ट हो जाता है, तब सत् को अपनाना और शुद्ध संकल्पों में लीन रहना साधक के अभ्यास में आ जाता है। उसमें कर्त्तव्य परायणता का उदय होता है और विषमता मिट जाती है। भेदभाव दूर होकर परम तत्व के अस्तित्व का बोध होता है।
  
अहं का शोधन होने पर मान-अपमान की चिंता नहीं रहती, असत्य से मोह मिट जाता है। अनित्य वस्तुओं के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो जाती है और राग-द्वेष, तेरा-मेरा का झंझट समाप्त हो जाता है। जीवन में निर्विकल्पता का आविर्भाव हो जाता है। सेवा द्वारा सुखों के उपभोग की आसक्ति समाप्त हो जाती है, अत: सब प्राणियों में  परमात्मा को स्थित मानते हुए जो तुम्हारी सेवा चाहे, उसी की  सेवा करो। सच्ची सेवा वह है जो संसार के आसक्ति पूर्ण संबंधों को समाप्त कर देती है। इसलिए किसी को अपना मान कर सेवा न करो, बल्कि सेवा को कर्त्तव्य मानकर सभी की सेवा करो। परमात्मा के अंश भूत होने के नाते सब प्राणियों को अपना समझना ही सद्बुद्धि है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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