बुधवार, 29 मार्च 2017
👉 संपत्ति में परिवार ही नही समाज भी हिस्सेदार
🔴 प्रसिद्ध साहित्यकार एवं दैनिक 'मराठा' के संपादक आचार्य प्रहलाद केशव अत्रे अपने पीछे एक वसीयत लिख गए। अपनी लाखों रुपये की संपत्ति का सही उपयोग की इच्छा रखने वाले अत्रे काफी दिनों से यह विचार कर रहे थे। परिवार के उत्तराधिकारी सदस्यों को तो अपनी संपति का वही भाग देना चाहिए, जो उनके लिए आवश्यक हो। जो संपत्ति बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाती है जिसमें पसीना नहीं बहाना पडता, उसके खर्च के समय भी कोई विवेकशीलता से काम नहीं लेता और थोडे समय में ही लाखों की सपत्ति चौपट कर दी जाती है।
🔵 आचार्य अत्रे का हृदय विशाल था और दृष्टिकोण विस्तृत। उनका परिवार केवल भाई, भतीजे और पत्नी तक ही सीमित न था। वह तो संपूर्ण धरा को एक कुटुंब मानते थे। अत: उस कुटुंब के सदस्यो की सहायता करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। इसी भावना ने उन्हें विवश किया कि जीवन भर की जुडी हुई कमाई केवल अपने ही कहे जाने वाले पारिवारिक सदस्यों पर न खर्च की जाए वरन् उसका बहुत बड़ा भाग उन लोगो पर खर्च करना चाहिए, जिन्हें सचमुच आवश्यकता है।
🔴 आचार्य ने अपनी वसीयत में स्पष्ट लिखा है कि मुझे कोई भी पैतृक संपत्ति प्राप्त नहीं हुई थी। मैंने अपने परिश्रम से ही सारी संपत्ति अर्जित की है, जिस पर मेरा अधिकार है। मैंने जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई हैं, उनमें किसी का नाम नहीं है। अतः मै अपनी संपत्ति महाराष्ट्र की जनता को सौंपता हूँ।
🔵 इस प्रकार आचार्य अत्रे ने महाराष्ट्र की जनता हेतु लगभग ५० लाख रुपये का दान दे दिया है और श्री एस० ए० डांगे. श्री डी० एस० देसाई. बैंकिंग विशेषज्ञ श्री वी० पी० वरदे तथा अपने निजी मित्र राव साहब कलके को ट्र्स्टी बनाया गया है। वसीयत में उन्होंने यह भी इच्छा प्रकट की कि 'मराठा' और 'सांज मराठा' का एक कर्मचारी भी ट्रस्टी रखा जाए, जिसका सेवा-काल दस साल से कम न हो।
🔴 श्री अत्रे ने वसीयत में पत्नी को केवल पाँच सौ रुपये मासिक और तीन नौकर रखने की सुविधा दी है। भाई को कुछ रुपये प्रतिमास तथा बहन को भी मासिक वृत्ति देने की व्यवस्था की गई है। उन्होंने अपनी समृद्ध पुत्रियाँ मे कुछ भी नहीं दिया है।
🔵 उनके निवास स्थान 'शिव शक्ति' के केवल एक भाग में रहने के लिये पत्नी को अधिकार दिया है। कुछ भाग को अतिथि-गृह बनाया जायेगा और सुभाष हाल को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सुरक्षित रखा जायेगा। ट्रस्टीज ने यह अनुरोध किया है कि यदि संभव हो तो एक अंग्रेजी दैनिक पत्र का प्रकाशन शुरू कर दे। लाखों रुपयो की संपत्ति की देखमाल के लिए प्रत्येक ट्रस्टी से कफी समय देना होगा, अतः उन्हों दो ट्र्स्टीज को पाँच-पाँच सौ रुपया प्रतिमाह वेतन लेने के लिये भी लिखा है। अन्य ट्र्स्टी मार्ग व्यय तथा दैनिक भत्ता मात्र प्राप्त कर सकते हैं।
🔴 शिक्षा प्रेमी अत्रे ने अपने गाँव के स्कूल के लिए पाँच हजार रुपये का दान तथा पूना विश्वाविद्यालय को मराठी लेकर बी० ए० में उच्च अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को पाँच हजार रुपये के पुरस्कार की व्यवस्था की है। इस प्रकार उदारमना अत्रे ने अपनी संपति महाराष्ट्र के लोगो के कल्याण हेतु सौंपकर पूँजीपतियो के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है।
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 48)
🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से
🔴 मस्तिष्क में हर समय सद्विचार ही छाये रहें इसका उपाय यही है कि नियमित रूप से नित्य सद्साहित्य का अध्ययन करते रहा जाय। वेद, पुराण, गीता, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त अच्छे और ऊंचे विचारों वाले साहित्यकारों की पुस्तकें सद्साहित्य की आवश्यकता पूरी कर सकती हैं। यह पुस्तकें स्वयं अपने आप खरीदी भी जा सकती हैं और सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत पुस्तकालयों से भी प्राप्त की जा सकती हैं आजकल न तो अच्छे और सस्ते साहित्य की कमी रह गई है और न पुस्तकालयों और वाचनालयों की कमी। आत्म-कल्याण के लिए इन आधुनिक सुविधाओं का लाभ उठाना ही चाहिए।
🔵 समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान-अन्धकार होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अंधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता— पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत् दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के दोष से स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ का कुछ सूझते और होने लगता। विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य को विपत्ति संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना स्वाभाविक ही है।
🔴 अन्धकार के समान अज्ञान में भी एक अनजान भय समाया रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को दूर के पेड़-पौधे, ठूंठ, स्तूप तथा मील के पत्थर तक चोर-डाकू, भूत-प्रेत आदि से दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में जब भी जो चीज दिखाई देगी वह शंकाजनक ही होगी, विश्वास अथवा उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय पेशाब, शौच आदि के लिए आने-जाने वाले अपने माता-पिता, बेटे-बेटियां तक अन्धकाराच्छन्न होने के कारण चोर, डाकू या भूत-चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं और कई बार तो लोग उनकी पहचान न कर सकने के कारण टोक उठते हैं या भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन पता चलने पर भूत-चुड़ैल अथवा चोर-डाकू नहीं निकले जो कि न पहचानने से पूर्व थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बने। भय का निवास वास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका निवास होता है उस अज्ञान में जो अंधेरे के कारण वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 28) 29 March
🔵 स्वयं का भार वहन करना भी आमतौर से कठिन काम माना जाता है। फिर अनेकों का भार वहन करते हुए उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने को लक्ष्य पूरा करना तो और भी अधिक कठिन पड़ना चाहिये, पर यह कठिनाई या असमर्थता तभी तक टिकती है, जब तक अपने मेें सामर्थ्य की कमी रहती है। उसका बाहुल्य हो तो मजबूत क्रेनें रेलगाड़ी के पटरी से उतरे डिब्बों को अंकुश में लपेटकर उलटकर सीधा करतीं और यथास्थान चलने योग्य बनाकर अच्छी स्थिति में पहुँचा देती हैं।
🔴 इक्कीसवीं सदी में उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ किये जाने हैं, जितना कि पिछले दो महायुद्धों की विनाश-विभीषिका में ध्वंस हुआ है; जैसे कि वायु-प्रदूषण ने जीवन-मरण का संकट उत्पन्न किया है; विषमताओं और अनाचारजन्य विभीषिकाओं ने भी संकट उत्पन्न किये हैं। शक्ति तो इन सभी में खर्च हुई, पर ध्वंस की अपेक्षा सृजन के लिये कहीं अधिक सामर्थ्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसका यदि संचय समय रहते किया जा सके तो समझना चाहिये कि दुष्ट चिंतन और भ्रष्ट आचरण के कारण उन असंख्य समस्याओं का समाधान संभव होगा जो इन दिनों हर किसी को उत्तेजित, विक्षुब्ध और आतंकित किये हुए हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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