मंगलवार, 10 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 44) :- सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी

🔴  अपने भीतर उस महासेनापति का आह्वान करो और उन्हें युद्ध की बागडोर सौंप दो। उन्हें बुलाने में सतर्क रहो, नहीं तो लड़ाई के उतावलेपन में तुम उन्हें भूल जाओगे। और याद रहे जब तक उन्हें तुम अपनी बागडोर नहीं सौंपोगे वे तुम्हारा दायित्व स्वीकार नहीं करेंगे। यदि उन तक तुम्हारी प्रार्थना के स्वर पहुँचेंगे तभी वह तुम्हारे भीतर लड़ेंगे और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देंगे। साधना के महासंग्राम में उन्हीं का आदेश पाना है और उसका पालन करना है। उन्हीं के प्रति समर्पण के स्वरों को अपनी साधना के संगीत में पिरोकर ही यह महायुद्ध जीता जा सकता है।

🔵  इस सूत्र को जीवन साधना में ढालने के लिए गहरा चिन्तन जरूरी है। इसके एक- एक वाक्य में सारगर्भित अर्थ पिरोए हैं। इसमें पहली और अनिवार्य बात है कि साधना समर में वे विजयी होते हैं- जो साक्षी होने का साहस करते हैं। जिन्होंने आध्यात्म विद्या के परम शास्त्र श्रीमद्भगवद् गीता को पढ़ा है, वे जानते हैं कि गीता का गायन दोनों सेनाओं के मध्य में हुआ था। गीता श्रवण से पहले अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण से यह प्रार्थना करनी पड़ी थी- ॥ सेनयोसूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ खड़ा कीजिए। सबसे पहले साक्षी भाव, फिर साधक। यहाँ तक कि साधना के परम शास्त्र को साक्षी भाव के बिना समझा भी नहीं जा सकता।

🔴  यह साक्षी भाव जिन्दगी की गहनता में पहुँचे बिना नहीं मिलता। वह साक्षी अपना ही अन्तरतम है। यहीं सद्गुरु के वचनों का मर्म समझ में आता है। परिधि पर भूल की जा सकती है, पर केन्द्र पर भूल नहीं होती। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी विकृत हुई है। जीवन अनुभवों ने, रास्तों ने, मार्गों ने, संसार ने, अनेक- अनेक जन्मों ने, संस्कारों ने इस जीवन को विकृत किया है। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी में धूल- ध्वांस भर गयी है। इसी के कारण हमसे बार- बार भूलें होती हैं। बार- बार हम चूकते हैं और चूकते ही रहते हैं। वर्तमान के जीवन में यदि कुछ खोया है तो साक्षी भाव खो गया है। हम कर्त्ता हो गए हैं और यह कर्त्ता कर्म के निकट खड़ा हो गया है, जबकि उसे अन्तरात्मा में स्थित होना चाहिए। बस इसी वजह से जिन्दगी दुष्चक्र बनकर रह गयी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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