स्फटिक मणि सा बनाइये मन
जिसे महर्षि कहते हैं शुद्ध स्फटिक की भाँति। परम पूज्य गुरुदेव कहते थे, मन-मन में भेद है। मन कोयला भी है और हीरा भी। विचारों के शोरगुल, विचारों के धूल भरे तूफान में इसका शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं होता है। ध्यान की गहनता इसे सम्भव बनाती है। जो ध्यान करते हैं, इसे अनुभव करते हैं। यह अनुभूति उन्हें शान्ति भी देती है और ऊर्जा भी। इसी से ज्ञान की नवीन किरणें भी फूटती और फैलती हैं। यह अवस्था कुछ ऐसी है जैसे कि गंगाजल को जब घर एक बाल्टी में लाते हैं, तो उसमें काफी कुछ कीचड़-गन्दगी होती है, परन्तु उसमें फिटकिरी का ढेला दो-चार बार घुमादें, तो बाद में सारी गन्दगी शान्त और गंगाजल होता है-एकदम निर्मल-स्वच्छ। बस कुछ ऐसे ही मन में ध्यान की फिटकिरी घुमाने की बात है। फिर यह होता है-शुद्ध स्फटिक की भाँति।
यह मन की विशेष अवस्था है, जिसका अहसास केवल उन्हीं को हो सकता है, जिन्होंने इसे जिया हो-अनुभव किया हो। क्योंकि यह मन की वर्तमान अवस्था एवं व्यवस्थता से एकदम उलट है। जहाँ वर्तमान में अज्ञान, अशान्ति एवं असक्ति छायी रहती है, वही इसमें ज्ञान, शान्ति एवं ऊर्जा के नये-नये रूप भासते हैं। जीवन का हरपल-हरक्षण ज्ञानदायी, शान्तिदायी एवं ऊर्जादायी होता है। और यह सब होता है-बिना किसी बाहरी साधन-सुविधाओं की बैशाखी का सहारा लिये। अभी तो स्थिति है कि ज्ञान चाहिए तो पढ़ो, सीखो; शान्ति चाहिए तो शान्त वातावरण तलाशो और शक्ति चाहिए तो शरीर व मन को स्वस्थ रखने की कवायद करो। पर इस अद्भुत अवस्था वाला मन तो जब, जहाँ, जिस वस्तु, विषय अथवा विचार पर एकाग्र होता है, वही वह उससे तदाकार हो जाता है। और फिर विषय, वस्तु या विचार में निहित ज्ञान, शान्ति एवं ऊर्जा स्वयमेव उसके अपने हो जाते हैं।
इसमें प्रतिबिम्बित होता है—बोधकर्त्ता, बोध एवं बोध विषय। यानि कि क्षीणवृत्ति वाले मन का साधक जब, जहाँ, जैसे चाहे किसी भी आधार को लेकर समाधिस्थ हो सकता है। इस क्रम में सबसे पहला आधार तो वह स्वयं ही है। वह यदि स्वयं को ही ध्यान का विषय बना ले, तो स्वयं की सभी सूक्ष्मताओं एवं बारीकियों को भली प्रकार अनुभव कर सकता है। वर्तमान आगत एवं विगत सभी उसे स्वयं में भासते हैं। वह अनुभव कर सकता है, वर्तमान के कारणों को और इसके परिणामों को। विचार हों या संस्कार, अपना जन्म-जन्मान्तर का अतीत हो या फिर सुदूर ठिठका हुआ भविष्य सभी उसे स्पष्ट नजर आते हैं।
यही नहीं वह जिसे भी अपने ध्यान का विषय बना ले, उसी के सभी रहस्यों को अनुभव कर सकता है। तदाकार होने की यह अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि है। इसके अवलम्बन से किसी भी वस्तु, व्यक्ति, विषय, विचार के यथार्थ को जाना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के ध्यान की एकाग्रता में सब कुछ बड़े स्पष्ट रीति से साफ-साफ प्रतिबिम्बित होता है। ऐसा सम्प्रज्ञात समाधि पाने वाला योगी जब जो चाहे देख-जान सकता है। कहते हैं कि ज्योतिष के मर्मज्ञ अतीत को पहचान लेते हैं और भविष्य की आहट को सुन लेते हैं। परन्तु इसके लिए उन्हें अपने अद्वितीय अनुमानों का सहारा लेना पड़ता है। इस सम्बन्ध में उनकी दृष्टि व अनुभव बहुत ही सीमाओं में बँधे होते हैं।
परन्तु वह योग साधक जिसका चित्त स्फटिक की भाँति स्वच्छ है, उसके संकल्प मात्र से, तनिक सा एकाग्र होने पर से उसे सब कुछ अनुभव होने लगता है। परन्तु इसमें अभी तर्क की सीमाएँ बनी रहती हैं। विकल्प की अवस्था बनी रहती है। वह इस अवस्था को पाने के बाद भी भेदों के पार नहीं जा पाता। सीमाबद्ध होता है, उसका ज्ञान। सीमाओं से मुक्त होने के लिए तो समाधि की निर्वितर्क अवस्था चाहिए।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या