मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

👉 दया और सौम्यता

पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका, सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।

मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन पति ने इसे अपनी तौहिनी समझी, रिश्तेदारों ने मामला और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है न पतिव्रता।

इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती है, सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।
मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने पत्नी की चरित्रहीनता का तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बीताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद आज दोनों में तलाक हो गया।

पति-पत्नी के हाथ में तलाक के काग़ज़ों की प्रति थी।
दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार।
मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।

दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिनकी हमदर्दियों में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।

लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।

दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। वो फिर सँभल जाते।
अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे यानी तलाक ................

पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।

तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश था।
यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे , कोल्ड ड्रिंक्स लिया।
यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।

लकड़ी की बेंच और वो दोनों .......
''कांग्रेच्यूलेशन .... आप जो चाहते थे वही हुआ ....'' स्त्री ने कहा।
''तुम्हें भी बधाई ..... तुमने भी तो तलाक दे कर जीत हासिल की ....'' पुरुष बोला।

''तलाक क्या जीत का प्रतीक होता है????'' स्त्री ने पूछा।
''तुम बताओ?''
पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था....
अच्छा हुआ.... अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''
''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था'' पुरुष बोला।
''मैंने बहुत मानसिक तनाव झेली है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

''जानता हूँ पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है... तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने कहा।

स्त्री चुप रही, उसने एक बार पुरुष को देखा।
कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''
''गलत कहा था''.... पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।
कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं...''

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।
स्त्री ने चाय उठाई, चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।
स्सी... की आवाज़ निकली।
पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह' की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा रहा था।
''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''
''ऐसा ही है कभी वोवरॉन तो कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।

''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।
''तुम्हारे अस्थमा की क्या कंडीशन है... फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।
''अस्थमा।डॉक्टर सूरी ने स्ट्रेन... मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने जानकारी दी।

स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।
''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।
''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।

''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।
''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।
''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।

पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''
''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।
''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।

''वसुंधरा वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए....'' स्त्री ने स्पष्ट किया।
''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं....'' पुरुष ने कहा।
''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।
''हाँ, ज़रूर दूँगा।''
''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।
उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।

पुरुष उसका चेहरा देखता रहा....
कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे...

एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर रही थी तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया था उसे। खुद तैरना नहीं आता था लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं ही खोट निकालती रही...''

पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''

दोनों चुप थे, बेहद चुप।
दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।
दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे....

''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।
''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।
''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।
''डरो मत। हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।
''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।
''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।
''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''
''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।
दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।
''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।
''कौन-सा मोड़?''
''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''

''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।
''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।

पति पत्नी में प्यार और तकरार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस हो।।

👉 आज का सद्चिंतन 9 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 April 2019


👉 धर्म का आचरण (अन्तिम भाग)

जो मनुष्य कहता है कि मैं कहूँ वह सच है और सब मिथ्या है यह कभी विश्वास योग्य नहीं। एक धर्म सच है तो अन्य धर्म क्योंकर मिथ्या हो सकते हैं? जो परम सहिष्णु और मानव जाति पर प्रेम करे वही सच्चा साधु समझना चाहिए। परमेश्वर हमारा पिता और हम सब भाई हैं, यही भावना मनुष्य को उन्नत बना सकती है। यदि कोई जन्म से अज्ञान है तो क्या उसका कर्त्तव्य ज्ञान सम्पादन करने का नहीं है? वह यों कहे कि हम जन्म से मूर्ख हैं तो अब क्यों ज्ञानी बनें । तो सब उसे महामूर्ख कहेंगे। यदि हमारे संकुचित विचार हों तो उन्हें महान बनाना क्या हमारे लिये कोई अपमान की बात है? धर्मोपासना के विशिष्ट स्थान, निश्चित और खास विधि धर्म-ग्रन्थों में बताये हैं, उनके लिये एक दूसरों का उपहास करना क्या कोई बुद्धिमानी है।

ये तो बालकों के खिलौनों की तरह हैं। ज्ञान होने पर बालक उन खिलौनों की जिस प्रकार परवाह नहीं करते, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुँचे हुए लोगों को उक्त साधनों का महत्व नहीं प्रतीत होता किसी खास मत पन्थों को बिना जाने बूझे ज्ञान होने पर भी मानते रहना, बचपन का कुरता युवावस्था में पहनने की इच्छा करने के बराबर उपहास के योग्य है। मैं किसी धर्म पन्थ का विरोधी नहीं हूं और न मुझे उनकी अनावश्यकता ही प्रतीत होती है। पर यह देखकर हँसी रोके से भी नहीं रुकती कि कुछ लोग स्वयं जिस धर्म के रहस्यों को नहीं जानते उसे वे यदि अपना अमूल्य समय इस अध्याषारेघु व्यौपार के बदले उन्हीं तत्वों के जानने में लगावें तो क्या ही अच्छा हो?

अनेक धर्मपन्थ उन्हें क्यों खटकते हैं सो मेरी समझ में नहीं आता ! लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्म का अनुसरण करें तो किसी का क्या बिगड़ेगा? रह एक व्यक्ति के लिये स्वतन्त्र धर्म हो तो भी मेरी समझ में कोई हानि नहीं किन्तु लाभ ही । क्योंकि विविधता से संसार की सुन्दरता बढ़ती है। उदर तृप्ति के लिये अन्न की आवश्यकता है, परन्तु एक ही रस की अपेक्षा अनेक रसों के विविध पदार्थ होने से भोजन में अधिक रुचि आती है। कोई ग्रामीण, जिसे तरह-तरह के पदार्थ मत्सर नहीं और जो केवल रोटी तथा प्याज के टुकड़े से पेट भर लेता है यदि किसी शौकीन के खाने के नाना पदार्थ की निन्दा करे तो वह खुद जिस प्रकार उपहास के पात्र होगा, उसी प्रकार एक ही धर्मविधि के पीछे लगे हुए दूसरे धर्मों की निन्दा करने वाले लोग स्तुति के पात्र नहीं हो सकते।

स्वामी विवेकानन्द जी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1941 पृष्ठ 10

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 5)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

In human society, there are two departments for punishing the violators of law- namely the police and the court of justice. The police arrest the accused, collect the evidence and present these in the court of law. Thereafter the process of justice takes over. The judge delivers the judgement after considering all aspects of the offence and related circumstances. Depending on the circumstantial evidence, individuals are handed down varied sentences for the same type of offence. Let us consider an example. Three persons are accused of killing a person. Because of different circumstances associated with the crime, one is set free, the second person is sentenced to five years of imprisonment and the third is sent to the electric chair.

The person, who was released, was a mason. While working at an elevated label, he had accidentally dropped a brick, which killed a passer by. The presiding judge found that the brick was dropped accidentally and unintentionally, without an ulterior motive. Hence the accused was released without punishment. The second accused was a farmer. Finding a thief stealing his crop, he had given him a fatal blow, killing the offender. Taking the circumstances, which prompted the offence, the judge considered that though it was natural for the farmer to show his anger on finding someone stealing his property, nevertheless, since he had over-reacted to a small offence, a sentence of five years imprisonment was given. The third person was a notorious robber who had robbed a rich man and intentionally killed him in the process. In this way the worldly court of justice pronounces judgement after minutely examining all circumstantial evidences.

In the inner-mind the secret recordings of Chitragupta discharge the dual responsibility of the police and court of justice. In the material world, if the prosecutor presents inadequate or false evidence, the judgement of the court is likely to be unfair, but in the inner occult world there is absolutely no possibility of such miscarriage of justice. The inmost mind, being the direct and transparent witness to all physical as well as mental activities of a person, is wholestically aware of the intentions, motives and circumstances of each and every action. Being wholestically informed, the secret mind does not require the testimony of the external mind to arrive at a conclusion. In Divine Justice the gravity of a sin (vice) or merit of a virtue is decided on the basis of the motive and degree of emotional involvement with the deed. Whereas in the material world objects are measured materially on the basis of their mundane worth, this measure is irrelevant for dispensing Divine Justice. The material world may ignore a poor donor of ten cents and admire a person donating ten thousand dollars, but in Divine Jurisprudence the worth of such acts of altruism will not be assessed on this gross physical basis.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 12

👉 आत्मचिंतन के क्षण 9 April 2019

★ समर्पण की सच्ची साधना है- अंतःकरण में न कोई छल, न छद्म। अपनी बौद्धिक क्षमताएँ, यश, सक्रियता, प्रगति सब ध्येय के प्रति अर्पित हों।  यह सौभाग्य जिन प्रयोजनों को मिल जाते हैं, चाहे वे सांसारिक हों या आध्यात्मिक, उनकी सफलता की आधी मंजिल तत्काल पूर्ण हो जाती है। साथ ही उस समर्पित आत्मा को ईश्वरीय सान्न्ध्यि का एक ऐसा दिव्य लाभ इसी साधना से मिल जाता है, जिसके लिए योगाभ्यास और जन्म-जन्मांतरों के दोष-परिमार्जन की एक कठिन  और लम्बी साधना पूरी करनी पड़ती।

◆ ज्ञानयोग की साधना यह है कि मस्तिष्कीय गतिविधियों पर-विचारधाराओं पर विवेक का आधिपत्य स्थापित किया जाय। चाहे जो कुछ सोचने की छूट न हो। चाहे जिस स्तर की चिंतन प्रक्रिया अपनाने न दी जाय। औचित्य-केवल औचित्य-मात्र औचित्य ही चिंतन का आधार हो सकता है। यह निर्देश मस्तिष्क को लाख बार समझाया जाय और उसे सहमत अथवा बाध्य किया जाय कि इसके अतिरिक्त उसे और किसी अनुपयुक्त प्रवाह में बह चलने की छूट न मिल सकेगी।

◇ नियति क्रम से हर वस्तु का-हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहाँ होते हैं। यह सब अपने ढंग से चलता रहे, पर मनुष्य भीतर से टूटने न पाये इसी में उसका गौरव है। जैसे समुद्र तट पर जमी हुई चट्टानें चिर अतीत से अपने स्थान पर जमी अड़ी बैठी हैं। हिलोरों ने अपना टकराना बंद नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहाँ गलत है कि चट्टान ने हार नहीं मानी। न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए।

■ वर्तमान ही हमारा है। हमें तो पहले आज की परवाह करनी चाहिए। यह सुंदर सुहावना आज, यह उल्लासपूर्ण आज ही हमारी अमूल्य निधि है। यह आज ही हमारे हाथ में है। यह हमारा साथी है। इस आज की ही प्रतिष्ठा कीजिए। आज के साथ खूब खेलिए, कूदिए, मस्त रहिए और इसे अधिकाधिक उत्साहपूर्ण और उल्लासपूर्ण बनाइए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 9 से 13

सत्ये युगे नरा: सर्वे सुसंस्कृतसमुन्नतम्।
देवजीवनपद्धत्या जीवन्ति स्म, धरामिमाम्॥९॥
स्वर्ग्येणैव तु दिव्येन वातावरणकेन ते।
भरितां विदधानाश्च विचरन्ति, कथं पुन:?॥१०॥
कारणं किं समुत्पन्नं पातगर्ते यथाऽपतन्।
साम्प्रतीकीं स्थितिं दीनां गता: सर्वे यतो मुने॥११॥
दुर्धर्षायां विपत्तौ तु विग्रहे वाप्युस्थिते।
उत्पद्यते विवशता नैतदस्ति तु साम्प्रतम्॥१२॥
सामान्यं दिनचर्याया: क्रमश्चलति मानवा:।
शक्तिसाधनसम्पन्ना: पातगर्ते पतन्ति किम्?॥१३॥

टीका- सतयुग में सभी मनुष्य समुन्नत सुसंस्कृत स्तर का देव जीवन जीते थे और इस धरती को स्वर्ग जैसे दिव्य वातावरण से भरा-पूरा रखते थे। फिर क्या कारण हुआ जिससे लोग पतन के गर्त में गिरे और आज जैसी दयनीय स्थिति में जा पहुँचे। कोई दुर्धर्ष-विपत्ति-विग्रह आने पर विवशता उत्पन्न हो सकती है किन्तु सामान्य-क्रम चलते रहने पर भी शक्ति-साधनों से सम्पन्न मनुष्य अधःपतन के गर्त में क्यों गिरते जा रहे है

व्याख्या- ऐसी बात नहीं कि जब से मनुष्य को यह जन्म मिला हैं-सृष्टि की उत्पत्ति व विकास हुआ है-यह हेय स्तर का ही जीवन जीता आया है। मानव सतयुग में सभ्य-सुसंस्कृत जीवन भी जी चुका है। श्रेष्ठता की उसे ऊँचाई पर पहुँचकर फिर जीचे गिर पड़ना कहाँ तक उचित माना जायेगा? होना तो यह था कि आज स्थिति सतयुग से भी श्रेष्ठ स्तर की स्वर्गोपम होती। परन्तु ऋषि पाते हैं कि प्रस्तुत परिस्थितियाँ तो नारकीय स्थिति से भी गयी बीती हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 39

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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