शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 7)

गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

शिष्य संजीवनी का सेवन (मनन- चिन्तन) जिन्होंने भी किया है- वे इसके औषधीय गुणों को अनुभव करेंगे, यह सुनिश्चित है। अपने व्यक्तित्व में उन्हें नए परिवर्तन का अहसास होगा। कुछ ऐसा लगेगा- जैसे अन्तःकरण में कहीं शिष्यत्व की मुरझाई- कुम्हलायी बेल फिर से हरी होने लगी है। निष्क्रिय पड़े भक्ति एवं समर्पण के तत्त्वों को सक्रियता का नया उछाह मिल गया है। आन्तरिक जीवन में भावान्तर की अनुभूति उन सबको है- जो इस अमृत औषधि को ले रहे हैं। इन सभी की अनुभूतियों में निखरा हुआ शिष्यत्व बड़ा ही स्पष्ट है। हालांकि इन अनुभूतियों में उनकी जिज्ञासाएँ भी घुली- मिली हैं। इन जिज्ञासाओं का सार एक ही है कि शिष्य संजीवनी की सेवन विधि क्या है?

इस सार्थक प्रश्र के समाधान में शिष्यत्व की साधना करने वाले अपने जाग्रत् स्वजनों से यही कहना है- कि प्रथम बार शिष्य संजीवनी के सूत्रों को एक समर्पित शिष्य की भाँति पढ़ें। दूसरी बार इसमें बताए गए सूत्र पर गहरा चिन्तन करें और उसे अपने जीवन में आत्मसात करने के लिए संकल्पित हों। इसके बीच- बीच में शिष्य संजीवनी के प्रकाश में अपने को परखते रहें कि हम अपनी शिष्यत्व साधना में कहाँ तक खरे उतर रहे हैं। दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धासिक्त समर्पण ही इस महासाधना का सम्बल है।

जिन्होंने अपने अन्तर्जीवन में यह पूंजी जुटा ली है- उनके लिए शिष्य संजीवनी का दूसरा सूत्र है- ‘‘जीवन की तृष्णा और सुख प्राप्ति की चाहत को दूर करो। किन्तु जो महत्त्वाकांक्षी हैं उन्हीं की भाँति कठोर श्रम करो। जिन्हें जीवन की तृष्णा है, उन्हीं की भाँति सभी के जीवन का सम्मान करो। जो सुख के लिए जीवन यापन करते हैं, उन्हीं की भाँति सुखी रहो। अपने हृदय के भीतर पनपने वाले पाप के अंकुर को ढूँढकर, उसे बाहर निकाल फेंको। यह अंकुर श्रद्धालु शिष्य के हृदय में भी यदा- कदा उसी तरह पनपने लगता है जैसे की वासना भरे मानव हृदय में। केवल महावीर साधन ही उसे नष्ट कर डालने में सफल होते हैं। जो दुर्बल हैं, वे तो उसके बढ़ने- पनपने के साथ भी नष्ट हो जाते हैं।’’

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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