आज की समस्याओं का यही सबसे सही समाधान है कि ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़े जो निजी स्वार्थों की अपेक्षा सार्वजनिक स्वार्थों को प्रधानता दें और इस संदर्भ में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वैसी जीवन प्रक्रिया जीकर दिखायें जिसे सत्ताधारियों के लिए आदर्श माना जा सके। यह कार्य आज की स्थिति में भी हर कोई कर सकता है। यह गुंजाइश प्रत्येक के लिए खुली पड़ी है कि वह अपनी वर्तमान सुविधाओं एवं उपलब्धियों को व्यक्तिगत कार्यों से बचाकर लोक मंगल के लिए प्रयुक्त करना आरम्भ करे। भावनाओं की प्रबलता के अनुसार परिस्थितियाँ सहज ही बन जाती हैं। यदि लोगों में समाज के हित साधन की उतनी ही ललक हो जितनी अपने शरीर या परिवार के लिए रहती है तो कोई कारण नहीं कि गई-गुजरी स्थिति का व्यक्ति भी कुछ ऐसे प्रयत्न करने में सफल न हो सके जो लोगों में समाज हित के लिए कुछ त्याग एवं श्रम करने की अनुकरणीय चेतना न उत्पन्न कर सकें।
शक्ति से शक्ति को हटा देना उतना कठिन नहीं है जितना कि यह प्रबन्ध कर लेना कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति कौन करेगा? मध्यकाल में शासकों के बीच अगणित छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ हुई हैं और उनमें से प्रत्येक आक्रमणकारी ने कोई न कोई कारण ऐसा जरूर बताया है कि अमुक बुरी बात को-या अमुक व्यक्ति को हटाकर सुव्यवस्था लाने के लिए उसने युद्ध आरम्भ किया। उस समय यह कथन प्रतिपादन उचित भी लगा पर देखा गया कि विजेता बनने के बाद उसने उस पराजित से भी अधिक अनाचार आरम्भ कर दिया, जिसे कि अनाचारी होने पर अपराध में आक्रमण का शिकार बनाया गया था। मूल कठिनाई यही है। इस तथ्य में सन्देह नहीं कि प्रभावशाली पदों पर अवाँछनीय व्यक्तियों का अधिकार बढ़ता चला जाता है। यह भी ठीक है कि यदि वे चाहते हैं तो अपनी कुशलता का उपयोग विघातक न होने देकर मनुष्य जाति को सुखी, समुन्नत बनाने के लिए रचनात्मक दिशा में कर सकते थे और उनके दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम में उपयुक्त परिवर्तन हो जाने से आज की विपन्नता को बहुत कुछ सुधारा जा सकता है; पर सत्ता और लालच का दुरुपयोग रुक नहीं रहा है। इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय? इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यदि उन्हें किसी प्रकार पदच्युत भी कर दिया जाय तो उनके स्थान की पूर्ति कौन करेगा?
आज जो लोग आलोचना करते हैं और अपने को इस लायक बनाते हैं कि उस स्थान की पूर्ति कर सकते हैं तो उन पर भी भरोसा कैसे किया जाय? वचन और प्रतिपादन अब एक फैशन जैसे हो गये हैं, समय से पूर्व बढ़-चढ़कर बातें बनाना और जब परीक्षा की घड़ी आये तो फिसल जाना यह एक आम-रिवाज जैसा हो गया है। पहले जमाने में जब लोग वचन के धनी होते थे तब प्रतिपादन और प्रामाणिकता दोनों एक ही बात मानी जाती थी पर अब वे दो पृथक बातें बन गई हैं और एक से दूसरी का निश्चयात्मक सम्बन्ध नहीं माना जाता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1972 पृष्ठ 25