बुधवार, 30 सितंबर 2020

👉 कर्म और व्यवहार

एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया-

मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना, किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ..?

इसका क्या कारण है ?
राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये ..
अचानक एक वृद्ध खड़े हुये बोले- महाराज आपको यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है..

राजा ने घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार ( गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं.. राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं ,वे दे सकते हैं ।”

राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा..

राजा हक्का बक्का रह गया, दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे..

राजा को महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास समय नहीं है...
आगे आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा..
वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है..

राजा बड़ा बेचैन हुआ, बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न..

उत्सुकता प्रबल थी..
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर उस गाँव में पहुंचा..
गाँव में उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही..

जैसे ही बच्चा पैदा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया..

राजा को देखते ही बालक हँसते हुए बोलने लगा ..
राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुन लो –
तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले चारों भाई राजकुमार थे..
एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली ।हमने उसकी चार बाटी सेंकी..

अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा वहां आ गये..
अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा, मैं दस दिन से भूखा हूँ, अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो, मुझ पर दया करो, जिससे मेरा भी जीवन बच जाय ...

इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले..

तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या खाऊंगा आग...? चलो भागो यहां से….।

वे महात्मा फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही..

किन्तु उन भईया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि..
बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो क्या मैं अपना मांस नोचकर खाऊंगा?
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये..
मुझसे भी बाटी मांगी… 
किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि 
चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?

अंतिम आशा लिये वो महात्मा, हे राजन !..
आपके पास भी आये, दया की याचना की..
दया करते हुये ख़ुशी से आपने अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और बोले..
तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा।
बालक ने कहा “इस प्रकार उस घटना के आधार पर हम अपना अपना भोग, भोग रहे हैं...
और वो बालक मर गया 

धरती पर एक समय में अनेकों फल-फूल खिलते हैं, किन्तु सबके रूप, गुण,आकार-प्रकार, स्वाद भिन्न होते हैं ..।

राजा ने माना कि शास्त्र भी तीन प्रकार के हॆ-- 
ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र
 
जातक सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं..
यही है जीवन...

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ४०)

वैराग्य ही देगा साधना में संवेग

साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे-तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम-काज में, बेटी-बेटों में, नाती-पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग-अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह-रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।
 
वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे-बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक  का अर्थ है सही-गलत की ठीक समझ, उचित-अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान-बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।
भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है-‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार-बार चिंतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब्बं दुक्ख्म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे-संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अपनी गुत्थी आप सुलझावें

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। जिस प्रकार वह अनुपयुक्त विचारों एवं आदतों का गुलाम बनकर अपनी स्थिति दयनीय बनाता है उसी प्रकार यदि वह चाहे तो विवेक को अपनाकर अपनी गतिविधियों को बदल एवं सुधार भी सकता है और उसके फलस्वरूप नरक के दृश्य को देखते−देखते स्वर्ग में परिणत कर सकता है। यह मानसिक परिवर्तन ही युग−निर्माण योजना का प्रधान आधार है। इसे मोटे रूप से ‘विचारक्रान्ति’ भी कह सकते हैं। हमारे सामने अगणित कठिनाइयाँ, गुत्थियाँ, कमियाँ और परेशानियाँ आज उपस्थित हैं। उनका कारण एक ही है—‛अविवेक’। और उनके समाधान का उपाय भी एक ही है—विवेक। 

जिस प्रकार सूर्य का उदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिस दिन हमारे अन्तः करण में विवेक का उदय होगा उस दिन न तो व्यक्तिगत कठिनाइयाँ रहेंगी और न सामूहिक समस्याऐं उलझी दिखाई देंगी। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में फँसी बैठी रहती है। पर जब उसके मन में तरंग आती है तो उस सारे जाले को निगलकर पूर्ण स्वतंत्रता भी अनुभव करने लगती है। हमारी सभी समस्याऐं और सभी कठिनाइयाँ हमारी स्वयं की बनाई हुई हैं, बुनी हुई हैं। इन्हें सुलझा देना बाँये हाथ का काम है। आज गाँठ खुल नहीं रही है पर जब विवेक का दीपक जलेगा और रस्सी के मोड़−तोड़ साफ दीखने लगेंगे तो गाँठ खुलने में कितनी देर लगेगी?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ३९)

वैराग्य ही देगा साधना में संवेग

साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है।  व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।
    
महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है-वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है-

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥
शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।
अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
    
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी  कहा जा सकता है।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ७१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या  

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...