गुरुवार, 17 नवंबर 2016

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 21)

🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम

🔵 19. सन्तान की सीमा मर्यादा—
देश की बढ़ती हुई जनसंख्या, आर्थिक कठिनाई, साधनों की कमी और जन साधारण के गिरे हुए स्वास्थ्य के देखते हुए यही उचित है कि प्रत्येक गृहस्थ कम से कम सन्तान उत्पन्न करे। अधिक सन्तान उत्पन्न होने से माताएं दुर्बलता ग्रस्त होकर अकाल में ही काल कवलित हो जाती हैं। बच्चे कमजोर होते हैं और ठीक प्रकार पोषण न होने पर अस्वस्थता एवं अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं। शिक्षा और विकास की समुचित सुविधा न होने से बालक भी अविकसित रह जाते हैं। इसलिए सन्तान को न्यूनतम रखने का ही प्रसार किया जाय। लोग ब्रह्मचर्य से रहें अथवा परिवार नियोजन विशेषज्ञों की सलाह लें। सन्तान के उत्तरदायित्वों एवं चिन्ताओं से जो व्यक्ति जितने हलके होंगे—वे उतने निरोग रहेंगे, यह तथ्य हर सद्गृहस्थ भली प्रकार समझ सके इसी में उसका कल्याण है।

🔴 20. प्राकृतिक चिकित्सा की जानकारी—
पंच तत्वों से रोग निवारण की प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को लोक प्रिय बनाया जाना चाहिए। जगह-जगह ऐसे चिकित्सालय रहें। इनमें उपवास एनिमा, जल चिकित्सा, सूर्य, चिकित्सा, मिट्टी, भाप आदि साधनों की सहायता से शरीर का कल्प जैसा शोधन होता है और एक रोग की ही नहीं, समस्त रोगों की जड़ ही कट जाती है। सर्वसाधारण को इस पद्धति का इतना ज्ञान करा दिया जाय कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी तथा अपने घर के लोगों की चिकित्सा स्वयं ही कर लिया करें।

🔵 यह सभी प्रयत्न ऐसे हैं जो सामूहिक रूप से ही प्रसारित किये जा सकते हैं। इन्हें आन्दोलन का रूप मिलना चाहिए और इनका संचालन ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवारों के सम्मिलित प्रयत्नों से होता रहना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 7) 18 Nov

🌹 दृष्टिकोण का परिवर्तन

🔵 आत्मीयता की उन्नति के लिए अभ्यास करने का सबसे अच्छा स्थान अपना घर है। नट अपने घर के आंगन में कला खेलना सीखता है। बालक अपने घर में खड़ा होना और चलना फिरना सीखता है योग की साधना भी घर से ही आरम्भ होनी चाहिए। प्रेम, त्याग और सेवा का, अभ्यास करने के लिये अपने घर का क्षेत्र सबसे अच्छा है। इन तत्वों का प्रकाश जिस स्थान पर पड़ता है वही चमकने लगता है।

🔴  जब तक आत्मीयता के भावों की कमी रहती है तब तक औरों के प्रति दुर्भाव, घृणा, क्रोध, उपेक्षा के भाव रहते हैं किन्तु जब अपने पन के विचार बढ़ते हैं तो हल्के दर्जे की चीजें भी बहुत सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है। माता अपने बच्चे के प्रति आत्म भाव रखती है इसलिये यदि वह लाभदायक न हो तो भी उसे भरपूर स्नेह करती है, पतिव्रत पत्नियों को अपने काले कलूटे और दुर्गुणी पति भी इन्द्र जैसे सुन्दर और बृहस्पति जैसे गुणवान लगते हैं।

🔵 दुनियां में सारे झगड़ों की जड़ यह है कि हम देते कम हैं और मांगते ज्यादा हैं। हमें चाहिए कि दें बहुत और बदला बिलकुल न मांगें या बहुत कम पाने की आशा रखें। इस नीति को ग्रहण करते ही हमारे आस पास के सारे झगड़े मिट जाते हैं। आत्मीयता की महान साधना में प्रवृत्त होने वाले को अपना दृष्टिकोण—देने का—त्याग और सेवा का, बनाना पड़ता है। आप प्रेम की उदार भावनाओं से अपने अन्तःकरण को परिपूर्ण कर लीजिए और सगे सम्बन्धियों के साथ त्याग एवं सेवा का व्यवहार करना आरम्भ कर दीजिए।

🔵 कुछ ही क्षणों के उपरान्त एक चमत्कार हुआ दिखाई देने लगेगा। अपना छोटा सा परिवार जो शायद बहुत दिनों से कलह और क्लेशों का घर बना हुआ है—सुख शान्ति का स्वर्ग दीखने लगेगा। अपनी आत्मीयता की प्रेम भावनाएं परिवार के—आस पास के लोगों से टकराकर अपने पास वापिस लौट आती हैं और वे आनन्द की भीनी सुगन्धित फुहार से छिड़क कर मुरझाये हुए अन्तःकरण को हरा कर देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 7) 18 Nov 2016

🌹 काम को टालिये नहीं

🔵 सुबह जब हम अपनी दिनचर्या आरम्भ करते हैं तो कठिन और श्रम साध्य कार्यों को सबसे पहले कर लेना एक अच्छी और प्रगतिदायी आदत है। इसकी अपेक्षा अनावश्यक कामों को पहले करने का स्वभाव थकाने वाला बन जाता है। और कठिन कार्य पड़े रह जाते हैं। यदि हम इस आलस्य की वृत्ति पर विजय नहीं प्राप्त कर सके तो निश्चित है कि हम औसत स्तर से रत्ती भर भी ऊंचा नहीं उठ सकेंगे और सफलता हमसे कोसों दूर रहेगी। हम जिन परिस्थितियों में हैं, प्रगतिशील व्यक्ति उनसे गई-गुजरी स्थिति में भी हमसे आगे बढ़ जाता है और फिर हम कुछ कर सकते हैं तो केवल ईर्ष्या।

🔴 कुछ बनने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ अपने कार्यों में लगना चाहिए। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि कठिन कार्यों में ही हमारी सामर्थ्य तथा योग्यता का विकास सम्भव है।

🔵 कार्य सभी समान होते हैं। करने से सब पूरे हो जाते हैं। यह हमारे मन का आलस्य ही कठिन और सरल का वर्गीकरण करता है। अपने भीतर छिपे बैठे इस घर के भेदी की बात मान ली तो फिर हमें सभी काम कठिन लगने लगेंगे। अतः पुरुषार्थी व्यक्तियों की दृष्टि में काम केवल काम होता है। कठिन सरल के वर्गीकरण के चक्कर में न पड़ते हुए वे उसे पूरा करने में जुट पड़ते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 31)

🌞 तीसरा अध्याय

🔴 प्रवृत्त मन से ऊपर दूसरा मन है, जिसे 'प्रबुद्ध मानस' कहना चाहिए। इस पुस्तक को पढ़ते समय तुम उसी मन का उपयोग कर रहे हो। इसका काम सोचना, विचारना, विवेचना करना, तुलना करना, कल्पना, तर्क तथा निर्णय आदि करना है। हाजिर जबावी, बुद्घिमत्ता, चतुरता, अनुभव, स्थिति का परीक्षण यह सब प्रबुद्घ मन द्वारा होते हैं। याद रखो जैसे प्रवृत्त मानस 'अहम्' नहीं है उसी प्रकार प्रबुद्घ मानस भी वह नहीं है। कुछ देर विचार करके तुम इसे आसानी के साथ 'अहम्' से अलग कर सकते हो। इस छोटी-सी पुस्तक में बुद्घि के गुण धर्मों का विवेचन नहीं हो सकता, जिन्हें इस विषय का अधिक ज्ञान प्राप्त करना हो, वे मनोविज्ञान के उत्तमोत्तम ग्रन्थों का मनन करें। इस समय इतना काफी है कि तुम अनुभव कर लो कि प्रबुद्घ मन भी एक आच्छादन है न कि 'अहम्'।

🔵 तीसरे सर्वोच्च मन का नाम 'अध्यात्म मानस' है। इसका विकास अधिकांश लोगों में नहीं हुआ होता। मेरा विचार है कि तुम में यह कुछ-कुछ विकसने लगा है, क्योंकि इस पुस्तक को मन लगाकर पढ़ रहे हो और इसमें वर्णित विषय की ओर आकर्षित हो रहे हो। मन के इस विभाग को हम लोग उच्चतम विभाग मानते हैं और आध्यात्मिकता, आत्म-प्रेरणा, ईश्वरीय सन्देश, प्रतिभा आदि के रूप में जानते हैं। उच्च भावनाएँ मन के इसी भाग में उत्पन्न होकर चेतना में गति करती हैं।

🔴 प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा, न्याय, निष्ठा, उदारता, धर्म प्रवृत्ति, सत्य, पवित्रता, आत्मीयता आदि सब भावनाएँ इसी मन से आती हैं। ईश्वरीय भक्ति इसी मन में उदय होती है।
गूढ़ तत्त्वों का रहस्य इसी के द्वारा जाना जाता है। इस पाठ में जिस विशुद्घ 'अहम्' की अनुभूति के शिक्षण का हम प्रयत्न कर रहे हैं, वह इसी 'अध्यात्म मानस' के चेतना क्षेत्र से प्राप्त हो सकेगी। परन्तु भूलिए मत, मन का यह सर्वोच्च भाग भी केवल उपकरण ही है। 'अहम्' यह भी नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3

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