मंगलवार, 8 सितंबर 2020

👉 परमात्मा ने जो दिया है

एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोट्रट बनवाया। चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा, कि क्या उसका पुरस्कार दूं?

चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे? हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं, वहक्षुद्र है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए।तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं। फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था, उसने कहा, तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बडा कीमती पर्स है।

पर्स तो कीमती था, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते। तो उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप कोई सौ डालर दे दें। उस महिला ने कहा, तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोला, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी। सुना है कि चित्रकार अब तक छातीपीट रहा है और रो रहा है–मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये!

आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं–दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है। जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े, वह जो मिला है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २१)

आखिर कैसे मिले—सम्यक् ज्ञान?

पंच वृत्तियों का उल्लेख करने के उपरांत महर्षि पतञ्जलि इनमें पहली वृत्ति प्रमाण के बारे में सुस्पष्टता से समझाते हैं। वह कहते हैं-
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणामि॥ १/७॥

अर्थात् सम्यक् ज्ञान अथवा प्रमाणवृत्ति के तीन स्रोत हैंः प्रत्यक्ष बोध,अनुमान और योग सिद्ध आप्त पुरुषों के वचन। यही वे तीन विधियाँ हैं, जिनके द्वारा योग साधक को ठीक-ठीक ज्ञान हो सकता है। इनमें पहली विधि प्रत्यक्ष बोध की है। यह सम्यक् ज्ञान का प्रथम स्रोत है। इसका मतलब है, आमने-सामने का साक्षात्कार। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं रहती। सत्य को समझाने-बतलाने के लिए किसी दुभाषिये की आवश्यकता नहीं रह जाती।
  
बात बिल्कुल साफ है,सरल और सीधी है। फिर भी अनेकों अड़चनें हैं—इसे समझने में। प्रायः योग सूत्र के भाष्यकारों, वार्तीककारों ने इस सीधी, सरल और साफ बात की बड़ी गलत व्याख्या की है। उन्होंने प्रत्यक्ष बोध को इन्द्रिय बोध की सँकरी सीमा में समेट दिया है। उदाहरण के लिए कई आचार्यों का कहना है कि प्रत्यक्ष वही है-जो आँखों के सामने है। लेकिन यह ठीक-ठीक आमने-सामने कहाँ हुआ? आँखें तो बीच में हैं ही। इसी तरह यदि कुछ सुना जाता है, तो कान माध्यम बनते हैं और ये आँखें या कान गलत खबर भी तो देख सकते हैं। इन्द्रिय बोध-सत्य बोध ही हो,यह कोई जरूरी तो नहीं । इन्द्रियों में थोड़ा सा भी दोष आ गया, तो सारी खबर गलत मिलती हैं। कुछ का कुछ दिखाई-सुनायी देने लगता है।
  
फिर प्रत्यक्ष बोध क्या  है? इस सवाल के उत्तर में परम पूज्य गुरुदेव का चिंतन सूत्र कहता है ‘चेतना प्रत्यक्ष।’ यानि कि हमारी चेतना बिना किसी इन्द्रिय माध्यम के सब कुछ साफ-साफ आमने-सामने देखे। गहरे ध्यान अथवा समाधि की भाव दशा में ही साधक को यह स्थिति प्राप्त होती है। तब देखने के लिए, जानने के लिए किसी माध्यम की जरूरत नहीं रह जाती। किसी इन्द्रिय की तो बिल्कुल भी नहीं। महात्मा बुद्ध, महर्षि रमण, श्री अरविन्द एवं परम पूज्य गुरुदेव जैसे महायोगी इसी रीति से सत्ता और सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हैं। इससे इन्द्रियों की किसी तरह की कोई भागीदारी नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय एकदम आमने-सामने  होते हैं, उनके बीच कुछ और नहीं होता। केवल प्रत्यक्षता ही सत्य अनुभव बनकर प्रकट होता है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Quintessence of Religion

The element of religion can’t be found in the mirage of rituals, cults or communal doctrines and rites. If you are true seeker, want to adopt religion in the truest sense, you must first introspect and sincerely analyze your aspirations, interests, habits and behavior to whether and to what extent these might trouble or hurt others or hinder their justified rights… You must restrain and curtail the tendencies of selfish possession, passions for sensual pleasures and ruthlessness and insensitivity to others.

Simultaneously, the altruistic tendencies and sentiments of kindness, generosity, love, amity, feeling of service, sharing and
cooperation should be cultivated and enhanced consistently. The only measure of one’s religiousness is – the less one’s selfishness and the more his/her altruism, the greater is his/her religiousness and spirituality. It is only through this path or religiousness that the individual self realizes higher realms of divine grace and salvation.

The major cause of all misery, adversities and sufferings in the world is that – knowingly or unknowingly, people do not behave with others in a manner, which they expect and like others to behave. This disparity of – “different weight used in the same balance for buying and for selling” is the root of all mistrusts, conflicts and animosity. Ego, avarice and selfishness make one blind and debauch from the path of religion. If you do what your conscience would not allow, or what you would not like someone else doing to you, then you are committing a sin. So be vigilant towards your ambitions, attitude and actions.

📖 Akhand Jyoti, Mar. 1944

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...