शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

👉 समर्थ होते हुए भी असमर्थ क्यों?

मनुष्य उतना तुच्छ नहीं है जितना कि वह अपने को समझता है। वह सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। न केवल वह प्राणियों का मुकुटमणि हेै, वरन् उसकी गतिविधियाँ भी  असाधारण हैं। प्रकृति की पदार्थ सम्पदा उसके चरणों पर लोटती है। प्राणि समुदाय उसका वशवर्ती और अनुचर है। उसकी न केवल संरचना अद्भुत है, वरन् इन्द्रिय समुच्चय की प्रत्येक इकाई अजस्र आनन्द- उल्लास हर जगह उड़ेलते रहने की विशेषताओं से सम्पन्न है। ऐसा अद्भुत शरीर सृष्टि में कहीं भी किसी भी जीवधारी के किस्से नहीं आया।       

मनः संस्थान उससे भी विलक्षण है। जहाँ अन्य प्राणिमात्र अपने निर्वाह तक की सोच पाते हेैं, वहाँ मानवी मस्तिष्क भूत- भविष्य का तारतम्य मिलाते हुए वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ है। ज्ञान और विज्ञान के दो पंख उसे ऐसे मिले हैं जिनके सहारे वह लोक लोकान्तरों का परिभ्रमण करने, दिव्य लोक तक पहुँचने का अधिकार जमाने में समर्थ है।

इतना सब होते हुए भी स्वयं को तुच्छ मान बैठना एक विडम्बना ही है। यह दुर्भार्र्ग्य जिस कारण उस पर लदता है , वह आत्म- विश्वास की कमी। अपने ऊपर विश्वास न कर पाने के कारण वह समस्याओं को सुलझाने, कठिनाइयों से उबरने और सुखद सम्भावनाओं को हस्तगत करने में दूसरों का सहारा तकता है। दूसरे कहाँ इतने फालतू होंगे कि हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़ें? बात तभी बनती है, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होता है, अपनीक्षमाताओं पर भरोसा करके, अपने साधनों व सूझ- बूझ के सहारे आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। यह भली भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्म- विश्वास संसार का सबसे बड़ा बल है, एक शक्तिशाली चुम्बक है, जिसके आक र्षण से अनुकूलतायें स्वयं खिंचती चली आती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 पूरा और खरा काम

किसी भी स्त्री या पुरुष के वास्ते इससे अधिक लज्जा और गिरावट की बात क्या होगी कि उसे एक काम को दुबारा करने के वास्ते कहा जाए कि उसने अपना काम ठीक तौर से नहीं किया है, अधूरा किया है। जो आदमी सम्मान प्राप्त करने की इच्छा करता है उसे कभी किसी काम को अधूरा और रद्दी न करना चाहिये। जो आदमी अपने मालिक की उपस्थिति में तो ठीक काम करता है किन्तु उसके पीठ फिरते ही सुस्ती से भद्दा काम आरम्भ करता है वह कभी बड़ा नहीं बन सकेगा, सद्गुण उसे दूर से ही प्रणाम करेंगे।

उच्च आदर्शों वाला आदमी हमेशा एक खरे आदमी के समान काम करता है, किराये पर रखे हुये आदमी के समान नहीं। ‘मुझे इतने पैसे मिलते हैं वैसा ही मुझे काम करना चाहिये’ इस विचार से प्रेरित होकर वह कभी अपनी कारीगरी को बट्टा न लगावेगा। वह अपनी कला की अच्छाई को मजदूरी के पैसों से नाप कर खराब न करेगा। उसे अपनी तरक्की के लिये न तो षडयंत्र बनाने की जरूरत होगी और न वेतन बढ़ाने के लिये किसी से कुछ कहना पड़ेगा। क्योंकि दुनिया इस कायदे को मानने के लिये बाध्य है कि जो आदमी योग्यता रखता है उसे पुरस्कार अवश्य मिलना चाहिये।

पूरे और खरे काम के सामने सबको झुकना पड़ता है। जो छोटे से छोटा काम निकम्मा, रद्दी, अधूरा किया जा सकता है वही परमात्मा की सेवा या अपना कर्तव्य समझ कर सारे चातुर्य तथा कला से अच्छी तरह भी किया जा सकता है।

✍🏻 श्रीमती लिली एल. एलन

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👉 ध्यानयोग का आधार और स्वरूप (भाग 1)

ध्यानयोग की चर्चाएँ इन दिनों बहुत होती हैं। कितने ही सम्प्रदाय तो अपनी मूलभूत पूँजी और कार्य पद्धति ध्यान को ही मानते हैं। उनका कहना है कि इसी पद्धति को अपनाने से ईश्वर दर्शन या आत्म साक्षात्कार हो सकता है। कितने ही अतीन्द्रिय शक्तियों के उद्भव और कुंडलिनी जागरण प्रयोजनों के लिए इसे आवश्यक मानते हैं। तो भी ध्यान प्रक्रिया का रूप इतना बहुमुखी है कि एक जिज्ञासु के लिए यह जानना कठिन हो जाता है कि एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए जब अनेक मार्ग बताये जा रहे हैं, तो इनमें से किसे अपनाया जाय? एक को अपना लेने के बाद भी यह संदेह बना रहता है कि अपनाई गई प्रक्रिया की तुलना में यदि अन्य प्रचलित पद्धतियां श्रेष्ठ रहीं तो अपना चुनाव तो घाटे का सौदा रहेगा।

यह ऊहापोह बना रहने से प्रायः साधक असमंजस की स्थिति में पड़े रहते हैं। पूरी तरह मन नहीं लगता या उसका कोई परिणाम सामने नहीं आता तो दूसरी विधा अपनानी पड़ती है। उससे भी कुछ दिनों में ऊब आने लगती है और कुछ दिन में बिना रसानुभूति के लकीर पिटना भी बन्द हो जाता है। जिनका दृढ़ संकल्प के साथ ध्यानयोग लम्बे समय तक चलता रहे, ऐसे कुछ ही लोग दीख पड़ते हैं। श्रद्धा के अभाव में आध्यात्मिक क्षेत्र में बढ़ाये हुए कदम लक्ष्य तक पहुँच ही नहीं पाते।

कदम को बढ़ाने से पूर्व अच्छा यह है कि इस विज्ञान का स्वरूप एवं आधार समझ लेने का प्रयत्न किया जाय।

जानने योग्य तथ्य है कि चेतना के साथ जुड़ी हुई प्राण ऊर्जा जहाँ शरीर की ज्ञात-अज्ञात, प्रयत्न साध्य एवं स्वसंचालित गति विधियों का सूत्र संचालन करती है और जीवित रहने के निमित्त कारणों को गतिशील रखती है, वहाँ उसकी एक और भी विशेषता है कि वह मस्तिष्कीय घटकों के सचेतन एवं अचेतन पक्षों को भी गतिशीलता प्रदान करती है। कल्पना, आकाँक्षा, विचारणा एवं निर्धारण की बौद्धिक क्षमता का सूत्र संचालन भी चेतना की जीवनी शक्ति द्वारा ही होता है।

~ क्रमशः जारी
~ अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 3

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👉 ध्यानयोग का आधार और स्वरूप (भाग 2)

बच्चों के शरीर दिन भर उछल कूद करते रहते हैं। उसका प्रयोजन अभी यह होता है अभी वह। जैसा मूड आया वैसी गतिविधियाँ अपनाने लगे। चिड़ियों तथा बन्दरों जैसे पशुओं की अनगढ़ गतिविधियाँ किसी उद्देश्य विशेष के लिए नहीं अपितु अस्त-व्यस्त, अनगढ़ और अर्ध विक्षिप्त सी, ऐसी ही कुछ ऊट-पटाँग सी होती है। जिधर मुँह उठ जाता है, उधर ही वे चल पड़ते हैं, भले ही उस श्रम से किसी प्रयोजन की सिद्धि न होती हो।

मन को यदि अपने प्राकृतिक रूप में रहने दिया जाय तो उसकी कल्पनाएँ अनगढ़ एवं अनियंत्रित होती हैं। मनुष्य कभी भी कुछ भी सोच सकता है, कभी यह, कभी वह, कल्पना की उड़ानों में ऐसी बातें भी सम्मिलित रहती हैं जिनकी कोई सार्थकता नहीं होती। वैसा बन पड़ना तो सम्भव ही नहीं होता। इन बिना पंखों की रंगीली या डरावनी उड़ानों पर बुद्धिमत्ता ही यत्किंचित् नियंत्रण लगा पाती है और बताती है कि इस प्रकार सोचने से कुछ काम की बात निकलेगी। जिनकी बुद्धिमत्ता कम और कल्पनाशक्ति बचकानी होती है वे कुछ भी सोच सकते हैं। ऐसी बातें भी, जिनका अपनी वर्तमान स्थिति के साथ किसी प्रकार का तारतम्य तक नहीं बैठता।

शक्तियों को क्रमबद्ध रूप से किसी एक प्रयोजन के लिए लगाया जाय तो ही उसका कोई प्रतिफल निकलता है। बिखराव से तो बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। शरीर को नियत निर्धारित काम पर लगाये रहने पर ही कृषि, व्यापार, मजूरी जैसे काम बन पड़ते हैं और उपयुक्त लाभ मिलता है। आवारागर्दी में घूमते रहने वाले आलसी, प्रमादी अपनी श्रम शक्ति का अपव्यय करते हैं, फलतः उन्हें उपलब्धियों की दृष्टि से छूँछ ही रहना पड़ता है। यही बात मन के संबंध में है। मस्तिष्कीय ऊर्जा, मानसिक तन्तुओं को उत्तेजित करती है। फलस्वरूप रात्रि स्वप्नों की तरह दिवा स्वप्न भी आते रहते हैं और मनुष्य कल्पना लोक में विचरता रहता है।

यदि नियोजित बुद्धिबल कम हो तो व्यक्ति सनकी जैसा बन जाता है और उपहासास्पद कल्पनाएँ करता रहता है। भीतर की इच्छाएँ और आकाँक्षाएँ ही सुहावने और डरावने दिवा स्वप्न विनिर्मित करती रहती हैं और मस्तिष्क उन्हीं सनकों के जाल जंजाल में फंसा हुआ चित्र-विचित्र, संभव असंभव बातें सोचता रहता है। फलतः मस्तिष्क जैसे बहुमूल्य तंत्र का उत्पादन ऐसे ही बर्बाद होता है और उसका प्रतिफल नहीं के बराबर ही हस्तगत होता है। आवारागर्दी में बालकों, बन्दरों जैसी उछल कूद से मनोविनोद के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। मस्तिष्कीय बर्बादी, शरीरगत श्रम, समय की बर्बादी से भी अधिक हानिकारक होती है।

~ क्रमशः जारी
~ अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 3

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👉 ध्यानयोग का आधार और स्वरूप (भाग 3)

जिस प्रकार शरीर को सुनिश्चित दिनचर्या के अनुशासन में बाँधने वाला कुछ कहने लायक प्रगति कर सकता है, वैसी ही बात मानसिक नियंत्रण के बारे में भी है। बुद्धिमान लोग अपनी अनगढ़ कल्पनाओं को रोकते रहते हैं और चिन्तन को उसी क्षेत्र में कल्पनाएं करने की छूट देते हैं जिनसे कोई कारगर प्रयोजन सधता हो।

ऐसे ही लोग अपनी प्रखर बुद्धिमत्ता के सहारे किसी निष्कर्ष पर पहुँचते और दिशाधारा निर्धारित करते हैं। लक्ष्य निर्धारित हो जाने पर उसका मार्ग ढूँढ़ने और साधन जुटाने के निमित्त चेतना शक्ति लगती है और निश्चित मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चलते हुए सफलता ही उस स्थिति तक पहुँचा जाता है जिस पर गर्व, हर्ष और संतोष की अनुभूति हो सके।

शरीरगत अनुशासन, मनोगत निर्धारण से आगे की भूमिका है- मन को इच्छित, उपयोगी दिशा में ले चलने की संकल्प शक्ति। यह स्वभावतः किन्हीं बिरलों में ही होती है। इसे अर्जित एवं समुन्नत करने के लिए मनुष्य को विशेष रूप से प्रयत्न करना पड़ता है। सरकस वाले जिस प्रकार अपने जानवरों को आश्चर्यजनक करतब दिखाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं, ठीक उसी प्रकार साधनापरक हंटर के सहारे मन को मात्र सुविचारों में संलग्न होने के लिए- उपयुक्त एकाग्रता अर्जित करने के लिए- प्रयत्न करना पड़ता है। यही ध्यानयोग का स्वरूप एवं उद्देश्य है।

~ क्रमशः जारी
~ अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 4


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👉 ध्यानयोग का आधार और स्वरूप (भाग 4)

विचारक, मनीषी, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार वैज्ञानिक आदि अपनी कल्पना शक्ति को एक सीमित क्षेत्र में ही जुटाये रहने के कारण तद्विषयक असाधारण सूझबूझ का परिचय देते हैं और ऐसी कृतियाँ-उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर पाते हैं, जिन पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह एकाग्रता का चमत्कार है। बुद्धि की तीव्रता जन्मजात नहीं होती। वह चिन्तन को विषय विशेष में तन्मय करने के फलस्वरूप हस्तगत होती है। चाकू, उस्तरा जैसे औजारों को पत्थर पर घिस देने से वे चमकने लगते हैं और पैनी धार के बन जाते हैं। बुद्धि के संबंध में भी यही बात है। उसे तन्मयता की खराद पर खराद कर हीरे जैसा चमकीला बनाना पड़ता है। जिनका मन एक काम पर न लगेगा, जो शारीरिक, मानसिक दृष्टि से उचकते मचकते रहेंगे, वे अपना समय, श्रम बर्बाद करने के अतिरिक्त उपहासास्पद भी बनकर रहेंगे।

प्रवीणता और प्रतिभा निखारने के लिए- प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए- एकाग्रता का सम्पादन आवश्यक है। शरीरगत संयम बरतने से मनुष्य स्वस्थ रहता और दीर्घ जीवी बनता है, उसी प्रकार मनोगत संयम-एकाग्रभाव सम्पादित करने से वह बुद्धिमान, विचारकों की गणना में गिना जाने लगता है।

कछुए और खरगोश की कहानी बहुतों ने सुनी होगी, जिसमें अनवरत चलते रहने वाला उस खरगोश से आगे निकल गया था, जो अहंकार में इतराता हुआ अस्त-व्यस्त चलता था। वरदराज और कालिदास जैसे मूढ़मति समझे जाने वाले जब दत्तचित्त होकर पढ़ने में प्रवृत्त हुए तो मूर्धन्य विद्वान बन गये। यह तत्परता और तन्मयता के संयुक्त होने का चमत्कार है। बिजली के दोनों तार जब संयुक्त होते हैं तो करेण्ट बहने लगता है। गंगा और यमुना के मिलने पर पाताल से सरस्वती की तीसरी धारा उमड़ती है। ज्ञान और कर्म का प्रतिफल भी ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करता है। मन और चित्त के समन्वय से उत्पन्न होने वाली एकाग्रता के भी ऐसे ही असाधारण प्रतिफल उत्पन्न होते देखे गये हैं।

~ क्रमशः जारी
~ अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 4

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1986/November/v1.4

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👉 ध्यानयोग का आधार और स्वरूप अंतिम भाग 5

सूर्य की बिखरी किरणें मात्र गर्मी और रोशनी उत्पन्न करती हैं। किन्तु जब उन्हें छोटे से आतिशी शीशे द्वारा एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। तो देखते-देखते चिनगारियाँ उठती हैं और भयंकर अग्नि काण्ड कर सकने में समर्थ होती है। बिखरी हुई बारूद आग लगने पर भक् से जलकर समाप्त हो जाती है, किन्तु उसे बन्दूक की नली में सीमाबद्ध किया जाय तो भयंकर धमाका करती है और गोली से निशाना बेधती है। भाप ऐसे ही जहाँ-तहाँ से गर्मी पाकर उठती रहती है, पर केन्द्रित किया जा सके तो प्रेशर कुकर पकाने और रेलगाड़ी चलाने जैसे काम आती है। अर्जुन मत्स्य बेध करके द्रौपदी स्वयंवर इसीलिए जीत सका था कि उसने एकाग्रता की सिद्धि कर ली थी। इसी के बलबूते विद्यार्थी अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते, निशानेबाज लक्ष्य बेधते और सरकस वाले एक से एक बढ़कर कौतूहल दिखाते हैं। संसार के सफल व्यक्तियों की, एक विशेषता अनिवार्य रूप से रही है, कि वे अपने मस्तिष्क पर काबू प्राप्त किये रहे हैं। जो निश्चय कर लिया उसी पर अविचल भाव से चलते रहे हैं, बीच में चित्त को डगमगाने नहीं दिया है। यदि उनका मन अस्त-व्यस्त डाँवाडोल रहा होता तो कदाचित ही किसी कार्य में सफल हो सके होते।

योगाभ्यास में मनोनिग्रह को आत्मिक प्रगति की प्रधान भूमिका बताया गया है। इन्द्रिय संयम वस्तुतः मनोनिग्रह ही है। इन्द्रियां तो उपकरण मात्र हैं। वे स्वामिभक्त सेवक की तरह सदा आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहती हैं। आदेश तो मन ही देता है। उसी के कहने पर ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां ही नहीं, समूची काया भले बुरे आदेश पालन करने के लिए तैयार रहती है। अस्तु संयम साधना के लिए मन को साधना पड़ता है। संयम से शक्तियों का बिखराव रुकता है और समग्र क्षमता एक केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित होती है। फलतः उस मनःस्थिति में जो भी काम हाथ में लिया जाय, सफल होकर रहता है।

ध्यानयोग सांसारिक सफलताओं में भी आश्चर्यजनक योगदान प्रस्तुत करता है। उसके आधार पर अपना भी भला हो सकता है और दूसरों का भी किया जा सकता है।

~ समाप्त
~ अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 5.

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1986/November/v1.5


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👉 ‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (भाग 1)

संचित दुष्कर्मों को यथा स्थान छोड़कर–आत्मिक प्रगति की साधना कर सकना–किसी के लिये भी सम्भव नहीं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। कक्षाएँ उत्तीर्ण करके ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते–उच्च पदाधिकारी बनते हैं। छलांगें भौतिक जगत में कई क्षेत्रों में लगाई जाती हैं और सफल भी होती हैं, पर आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों–असफलताओं का त्रास देता है, वरन् उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेकों विघ्न उपस्थित करता है। रास्ते में अड़ी इन चट्टानों को हटाने−सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम करना होता है। यही है वह प्रायश्चित प्रक्रिया जिसे तप साधना में वरिष्ठता–प्रमुखता दी गयी है।

कर्म फल की सम्भावना सुनिश्चित है। उसे विश्व व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देव−दर्शन, नदी स्नान, पूजा, उपचार, कथा−वार्ता एवं छुटपुट कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन, परिमार्जन की ओर ध्यान मुड़े, महत्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किये जाने वाले व्रत उपवासों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैं, किन्तु वास्तविक एवं चिरस्थाई लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले साथ ही जो किया गया हो उसकी क्षतिपूर्ति करने ही सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह उत्पन्न करें।

यह सारा संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान ने दुनिया बनाई और उसके सुसंचालन के लिए कर्म विधान रच दिया। ‘जो जैसा करता है वह वैसा भोगता है, सिद्धान्त अकाट्य है। लोग भ्रम में इस लिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। यदि शुभ−अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो फिर दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग छूते ही हाथ जल जाता है। इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता। किन्तु सुकृत्यों और दुष्कृत्यों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बालबुद्धि के लोग अधीर हो जाते हैं। पुण्य के सम्बन्ध में निराश और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैं और जो न करना चाहिए उसे करने लगते हैं। यही वह माया है जिसके बन्धनों में जकड़े हुए लोग दिग्भ्रान्त होते, भूल−भुलैयों में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 47

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👉 ‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (भाग 2)

आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता है–आज का अध्ययन व्यायाम, व्यवसाय आज ही कहाँ फल देता है? परिणाम में देर लगने पर बालक निराश हो सकते हैं, पर विचारशील लोग अपनी निष्ठा विचलित नहीं होने देते और आशा, विश्वास के साथ काम करते रहते हैं। असंयम बरतने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता–जिस दिन चोरी की जाय, उसी दिन जेल भुगतनी पड़े ऐसा कहाँ होता है? तो भी समझदारी सुझाती है कि कल नहीं, परसों परिणाम मिलकर ही रहेगा। यही दूरदर्शिता सत्कर्मों, दुष्कर्मों के सुनिश्चित परिणाम को ध्यान में रखते हुए अपनाई जानी चाहिए। पर लोग भ्रम ग्रस्त होकर–कर्मफल के सम्बन्ध में विश्वास छोड़ बैठते हैं। इसी इनकारी को वास्तविक नास्तिकता कहना चाहिए।

दुष्कर्मों का प्रतिफल कई रूपों में भुगतना पड़ता है। लोक निन्दा होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों की आँखों में अप्रामाणिक−अविश्वस्त ठहरते हैं। उन्हें किसी का सघन विश्वास एवं सच्चा सहयोग नहीं मिलता। श्रद्धा और सम्मान तो उसी को मिलता है, जिसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध होती है। जन−विश्वास एवं सहयोग के आधार पर कोई व्यक्ति प्रगति करता और सफल होता है। संदिग्ध चरित्र व्यक्तियों को इस लाभ से वंचित रहना पड़ता है और वे मित्र विहीन एकाकी नीरस जीवन जीते हैं। घनिष्ठता का लाभ तो उन्हें स्वजनों से भी नहीं मिलता। वे भी सदा आशंका की ही दृष्टि से देखते हैं और दिखावे का सहयोग दे पाते हैं, आत्म प्रताड़ना का दुरूह दुःख ऐसे ही लोगों को सहना पड़ता है। दूसरों को झुठलाया जा सकता है, पर अपनी ही आत्मा को कैसे बहकाया जाय? वह दुष्कर्मों से स्वयं खिन्न रहती है। आत्मधिक्कार से आत्मबल निरन्तर गिरता जाता है।

समाज तिरस्कार, असहयोग, विरोध, उपेक्षा से प्रत्यक्ष हानि है। जिसके ऊपर घृणा और तिरस्कार बरसता है, उसकी अन्तरात्मा को पत्थर बरसने से भी अधिक अन्तःपीड़ा सहनी पड़ती है। धन छिन जाना उतनी बड़ी हानि नहीं है जितना कि विश्वास, सम्मान और सहयोग चला जाना। दुष्कर्मों का यह सामाजिक दण्ड हर कुमार्गगामी को भुगतना पड़ता है। पाप और पारा छिपता नहीं। वह फूट−फूट कर देर−सबेर में बाहर निकलता ही है। सत्कर्म छिप सकते हैं, दुष्कर्म नहीं। हींग की गन्ध कई थैलियों में बन्द करके रखने पर भी फैलती है और दुष्कर्मों की दुर्गन्ध हवा में इस तरह उड़ती है कि किसी के छिपाए नहीं छिपती। समाज दण्ड−असहयोग बहिष्कार के रूप में तो बरसता है।

कई बार वह प्रतिशोध और प्रत्याक्रमण के रूप में भी सामने आता है। लोग अनीति के विरुद्ध उबल पड़ते हैं तो दुरात्मा का कचूमर ही निकाल कर रख देते हैं। न केवल अध्यात्म क्षेत्र में वरन् भौतिक जीवन में भी यही सिद्धान्त काम करता है। रक्त विकार जैसे रोगों को दूर करने के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के उपरान्त अन्य रक्त शोधक उपचार करते है। काया−कल्प चिकित्सा में बलवर्धक औषधियों को नहीं, संचित मलों का निष्कासन करने वाले उपायों को ही प्रधान रूप से कार्यान्वित किया जाता है। नमन, विरेचन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल निष्कासन का ही प्रयास किया जाता है। इसमें जितनी सफलता मिलती जाती है। उसी अनुपात से जरा−जीर्ण रोग ग्रस्त व्यक्ति भी आरोग्य लाभ करता और बलिष्ठ बनता चला जाता है। काया कल्प चिकित्सा का विज्ञान इसी सिद्धान्त पर आधारित है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 47

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👉 ‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (भाग 3)

दोष−दुर्गुणों के रहते चिरस्थायी प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता। पशु पालने और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। कषाय−कल्मषों से–दोष दुर्गुणों से लड़ने के लिए जो संघर्ष पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी के विधि−विधानों को तप साधना कहते हैं।

आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रन्थ माधव निदान के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधना काल में वृन्दावन रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महापुरश्चरणों में संलग्न थे। उन्होंने पूर्ण विधि−विधान के साथ लगातार ग्यारह वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गये।

काशी के गंगा तट पर वे बड़ी दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेशभूषा और छाई हुई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे भैरव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्ष तक उसे नियमित रूप से करते रहने से सिद्धि निश्चित है। माधवाचार्य सहमत हो गये और कापालिक के बताये हुए विधान के साथ मणिकर्णिक घाट श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे। बीच−बीच में कई डरावनी, लुभावनी परीक्षा होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा एक वर्ष पूरा होते−होते ही भैरव प्रकट हुए और वरदान माँगने की बात कहने लगे।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 48

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👉 ‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (भाग 4)

माधवाचार्य ने आँख खोलकर चारों ओर देखा, पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा–”यहाँ आये दिन भूत−पलीत ऐसी ही छेड़−खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र−विचित्र वाणियाँ बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव हैं तो सामने प्रकट हों। आपके दर्शन करके चित्त का समाधान कर लूँ तो वरदान माँगू।” इसका उत्तर इतना ही मिला। “आप गायत्री उपासक रहे हैं। आपके मुख मण्डल पर इतना ब्रह्म तेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो माँगना हो ऐसे ही माँग लो।” माधवाचार्य असमंजस में पड़ गये यदि गायत्री पुरश्चरणों से इतना ही ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई? सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ? यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के सम्वाद से ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा। कहा–”देव! यदि आप प्रकट नहीं हो सके और गायत्री उपासना को इतनी तेजस्वी पाते हैं तो कृपा कर यह बता दें कि मेरी इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई? इतना समाधान करा देना भी आपका वरदान पर्याप्त होगा, जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस न कर सके तो आपसे अन्य वरदान क्या माँगू।

भैरव ने उनकी इच्छापूर्ति की ओर पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये। जिसमें अनेकों पाप−कृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा– ‘आपके एक−एक वर्ष के गायत्री पुरश्चरण से एक−एक जन्मों के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों के तप साधन से नष्ट हुए है। अब आप नये सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको अब के प्रयास में सफलता मिलेगी।

माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौटे और बारहवाँ पुरश्चरण करने लगे। अबकी बार उन्हें आरम्भ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवाँ वर्ष पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ। उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई जिसके सहारे “माधव−निदान” जैसा महान ग्रन्थ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हित साधन कर सकने की उपलब्धि उन्हें मिली और जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 48

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👉 ‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (अन्तिम भाग)


इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है। संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय सम्भव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जायगी। यही बात संचित पुण्य−कर्मों के बहुत देर में फल देने वाली व्यवस्था में जल्दी भी हो सकती है।

द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर पैदल चलने से देर में सम्पन्न होने वाली यात्रा अपेक्षाकृत कहीं जल्दी पूरी की जा सकती है। हमारे वर्तमान प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते उनमें पूर्व संचित सत् संग्रहों का भी योगदान होता है उनका योगदान मिलने से सफलताओं का परिणाम स्वल्प प्रयत्न से भी इतना अधिक हो सकता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।

शरीर को जीवित रखने और अवयवों के संचालन में भी जठराग्नि ही काम करती है। सूर्य से लेकर चूल्हे तक अग्नि का ही सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है। पदार्थ में हलचल प्राणी में चिन्तन की जो सामर्थ्य काम करती दीखती है उसे अग्नि का एक नाम ‘आतप’ है। अध्यात्म क्षेत्र में उसके उत्पन्न करने के पद्धति का नाम ‘तप’ है।

बाल विनोद की प्रारम्भिक साधनाएँ नित्य कर्म कहलाती हैं, और उनमें देव प्रतिमाओं के पूजा उपचार को भी महत्व दिया और माहात्म्य बताया जाता है। उच्चस्तरीय साधनाओं का सत्परिणाम भी असाधारण होता है। उसके लिए उनका मूल्य चुकाने के लिए क्लिष्ट तप साधनों को उपयुक्त मार्गदर्शन में अपनाते हुए ही प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 49


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