गुरुवार, 22 अगस्त 2019
👉 युग-परिवर्तन के लिए चतुर्मुखी योजना
लोभ और मोह के बंधन काटने और अज्ञान प्रलोभन से ऊंचा उठाने पर ही जीवनोद्देश्य पूरा कर सकने वाले-ईश्वरीय प्रयोजन एवं युग पुकार के पूरा कर सकने वाले मार्ग पर चल सकते हैं सो इसके लिये हमें आवश्यक साहस जुटाना ही चाहिए। इतने से कम में कोई व्यक्ति युग-निर्माताओं महा मानवों की पंक्ति में खड़ा नहीं हो सकता। इन चार कसौटियों पर हमें खरा सिद्ध होना ही चाहिए। फौज में भर्ती करते समय नये रंगरुटों की लम्बाई, वजन, सीना तथा निरोगिता जाँची जाती हैं, तब कहीं प्रवेश मिलता है। बड़प्पन की तृष्णा में मरने खपने वाले नर-पशुओं के वर्ग से निकल कर जिन्हें नर-नारायण बनने की उमंग उठे उन्हें उपरोक्त चार प्रयोजनों को अधिकाधिक मात्रा में हृदयंगम करने तथा तद्नुकूल आचरण करने का साहस जुटाना चाहिए। यदि यह परिवर्तन प्रस्तुत जीवनक्रम में न किया जाया तो मनोविनोद के लिए कुछ छुट-पुट भले ही चलता रहे कोई महत्व पूर्ण ऐसा कार्य एवं प्रयोग न बन सकेगा जिससे आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की सन्तोष-जनक भूमिका सम्पन्न हो सकें।
युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा।
इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६०
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.60
युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा।
इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६०
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.60
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५३)
👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना
प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रेम यदि अपने प्यारे प्रभु से है, उनके प्रति भक्ति सघन है, तो प्रार्थना स्वतः स्फुरित होने लगती है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं, सन्ताप शान्त होते हैं। जिस समय हमारे चारों ओर पीड़ा- परेशानी और विपत्ति के बादल मण्डराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, उस समय यदि हमारे अन्तःकरण में थोड़ा सा भी प्रभु विश्वास जग सका, तो हम बरबस उन्हें पुकार उठते हैं, रक्षा करो भगवन्, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है प्रभु।
और तब हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही, ऐसे विचित्र ढंग से हमारी रक्षा होती है कि जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते। भयावह रोग, कठिन शोक, चमत्कारी ढंग से अनायास ही दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भगवान् हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ है। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख- विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अनन्त शक्ति, अपरिसीम प्रेम को व्यक्त होने का अवसर मिलता है कि काले बादल बिखर जाते हैं, निर्मल प्रकाश छा जाता है। प्यार देने वाले साथी आ पहुँचते हैं और पथ निष्कंटक हो जाता है। हम भी अपनी राह पर चल पड़ते हैं।
किन्तु प्यारे प्रभु से अपने हृदय का यह संयोग स्थायी नहीं हो पाता। प्रार्थना का यह चमत्कार अनुभव करने के बावजूद भी हमारा जीवन भगवद् प्रार्थनामय नहीं बनता। अनुकूल परिस्थिति आते ही हम अपने प्यारे प्रभु को, उनकी भक्ति को भूलने लगते हैं। इससे उपजी प्रार्थना की प्रक्रिया बिसरने लगती है। यहाँ तक कि प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कारी है, यह याद भी धीरे- धीरे धुँधली होने लगती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७५
प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रेम यदि अपने प्यारे प्रभु से है, उनके प्रति भक्ति सघन है, तो प्रार्थना स्वतः स्फुरित होने लगती है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं, सन्ताप शान्त होते हैं। जिस समय हमारे चारों ओर पीड़ा- परेशानी और विपत्ति के बादल मण्डराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, उस समय यदि हमारे अन्तःकरण में थोड़ा सा भी प्रभु विश्वास जग सका, तो हम बरबस उन्हें पुकार उठते हैं, रक्षा करो भगवन्, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है प्रभु।
और तब हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही, ऐसे विचित्र ढंग से हमारी रक्षा होती है कि जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते। भयावह रोग, कठिन शोक, चमत्कारी ढंग से अनायास ही दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भगवान् हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ है। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख- विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अनन्त शक्ति, अपरिसीम प्रेम को व्यक्त होने का अवसर मिलता है कि काले बादल बिखर जाते हैं, निर्मल प्रकाश छा जाता है। प्यार देने वाले साथी आ पहुँचते हैं और पथ निष्कंटक हो जाता है। हम भी अपनी राह पर चल पड़ते हैं।
किन्तु प्यारे प्रभु से अपने हृदय का यह संयोग स्थायी नहीं हो पाता। प्रार्थना का यह चमत्कार अनुभव करने के बावजूद भी हमारा जीवन भगवद् प्रार्थनामय नहीं बनता। अनुकूल परिस्थिति आते ही हम अपने प्यारे प्रभु को, उनकी भक्ति को भूलने लगते हैं। इससे उपजी प्रार्थना की प्रक्रिया बिसरने लगती है। यहाँ तक कि प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कारी है, यह याद भी धीरे- धीरे धुँधली होने लगती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७५
👉 आत्मचिंतन के क्षण 22 Aug 2019
■ मनुष्य के व्यक्तित्व का मुल्यांकन करते समय उसकी आदतों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। जिस मनुष्य की जैसी आदतें है, जैसा स्वभाव है, वैसा ही उसका मूल्यांकन किया जाता है। विद्या, बुद्धि, चतुरता, रौव दौव आदि का भी मनुष्य जीवन में अपना स्थान है परन्तु उन सबसे ऊपर मनुष्य का रहन सहन का तरीका, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं कार्य करने की गति विधि ही है।
◇ जो मनुष्य आत्म कल्याण चाहता है उसे नि:स्वार्थ भाव से ही दूसरों के प्रति उदारता दिखाना और उनकी सेवा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के कार्य से उसे कोई लौकिक लाभ हो या नहीं उसे आध्यात्मिक लाभ अवश्य होता है उसके उदार विचारों की संख्या बढ़ जाती है और ये उदार विचार उसे आपत्ति काल मे काम देते हैं । उदार विचार रोग से बचाते हैं और सहज में ही आरोग्य बना देते हैं।
★ मानव-जाति ने जो भूलें की हैं, उनके लिए दण्ड का जब विधान होता है, तब विधान होता है, तब कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इसीलिये हमारे पूर्वज कहा करते थे कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिये। अगर अच्छे काम किये जायेंगे, तो उनका फल भी अच्छा ही होगा। अगर तुम किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे तो कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकता।
◇ अपने आप को ऊपर उठाना और गिराना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। साहस, उत्साह, पराक्रम और विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता है। यह उसका उत्कर्षजन्य प्रयास है। इसके विपरीत यदि कोई हीनता की भावनाओं से ग्रसित हो, भय, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास, आशंका से घिरा रहे तो उसका भौतिक एवं आत्मिक पतन होता चलता है। साधन और अवसर सामने होने पर भी उसे अधोगामी मार्ग ही पकड़ना पड़ता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
◇ जो मनुष्य आत्म कल्याण चाहता है उसे नि:स्वार्थ भाव से ही दूसरों के प्रति उदारता दिखाना और उनकी सेवा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के कार्य से उसे कोई लौकिक लाभ हो या नहीं उसे आध्यात्मिक लाभ अवश्य होता है उसके उदार विचारों की संख्या बढ़ जाती है और ये उदार विचार उसे आपत्ति काल मे काम देते हैं । उदार विचार रोग से बचाते हैं और सहज में ही आरोग्य बना देते हैं।
★ मानव-जाति ने जो भूलें की हैं, उनके लिए दण्ड का जब विधान होता है, तब विधान होता है, तब कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इसीलिये हमारे पूर्वज कहा करते थे कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिये। अगर अच्छे काम किये जायेंगे, तो उनका फल भी अच्छा ही होगा। अगर तुम किसी को हानि नहीं पहुँचाओगे तो कोई भी तुम्हारी हानि नहीं कर सकता।
◇ अपने आप को ऊपर उठाना और गिराना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। साहस, उत्साह, पराक्रम और विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता है। यह उसका उत्कर्षजन्य प्रयास है। इसके विपरीत यदि कोई हीनता की भावनाओं से ग्रसित हो, भय, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास, आशंका से घिरा रहे तो उसका भौतिक एवं आत्मिक पतन होता चलता है। साधन और अवसर सामने होने पर भी उसे अधोगामी मार्ग ही पकड़ना पड़ता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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