शुक्रवार, 21 मई 2021

👉 डर पर जीत हासिल करने की सीख देती कहानी

सुमित और रोहित एक छोटे से गाँव में रहते थे। एक बार दोनों ने फैसला किया कि वे गाँव छोड़कर शहर जायेंगे और वही कुछ काम-धंधा खोजेंगे। अगली सुबह वे अपना-अपना सामान बांधकर निकल पड़े। चलते-चलते उनके रास्ते में एक नदी पड़ी, ठण्ड अधिक होने के कारण नदी का पानी जम चुका था। जमी हुई नदी पे चलना आसान नहीं था, पाँव फिसलने पर गहरी चोट लग सकती थी।

इसलिए दोनों इधर-उधर देखने लगे कि शायद नदी पार करने के लिए कहीं कोई पुल हो! पर बहुत खोजने पर भी उन्हें कोई पुल नज़र नहीं आया। रोहित बोला, “हमारी तो किस्मत ही खराब है, चलो वापस चलते हैं, अब गर्मियों में शहर के लिए निकलेंगे! “नहीं”, सुमित बोला, “नदी पार करने के बाद शहर थोड़ी दूर पर ही है और हम अभी शहर जायेंगे…”और ऐसा कह कर वो धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा।

अरे ये क्या का रहे हो….पागल हो गए हो…तुम गिर जाओगे…”रोहित चिल्लाते हुए बोल ही रहा था कि सुमित पैर फिसलने के कारण गिर पड़ा। “कहा था ना मत जाओ..”, रोहित झल्लाते हुए बोला। सुमित ने कोई जवाब नही दिया और उठ कर फिर आगे बढ़ने लगा एक-दो-तीन-चार….और पांचवे कदम पे वो फिर से गिर पड़ा.. रोहित लगातार उसे मना करता रहा…मत जाओ…आगे मत बढ़ो…गिर जाओगे…चोट लग जायेगी… लेकिन सुमित आगे बढ़ता रहा।

वो शुरू में दो-तीन बार गिरा ज़रूर लेकिन जल्द ही उसने बर्फ पर सावधानी से चलना सीख लिया और देखते-देखते नदी पार कर गया। दूसरी तरफ पहुँच कर सुमित बोला, ” देखा मैंने नदी पर कर ली…और अब तुम्हारी बारी है!” “नहीं, मैं यहाँ पर सुरक्षित हूँ… लेकिन तुमने तो शहर जाने का निश्चय किया था।” “मैं ये नहीं कर सकता! नहीं कर सकते या करना नहीं चाहते!  सुमित ने मन ही मन सोचा और शहर की तरफ आगे बढ़ गया।

शिक्षा:-
दोस्तों, हम सबकी ज़िन्दगी में कभी न कभी ऐसे मोड़ आ ही जाते हैं जब जमी हुई नदी के रूप में कोई बड़ी बाधा या Challenge  हमारे सामने आ जाता है। और ऐसे में हमें कोई निश्चय करना होता है। तब क्या हम खतरा उठाने का निश्चय लेते हैं और तमाम मुश्किलों, डर, और असफलता के भय के बावजूद नदी पार करते हैं? या हम Safe रहने के लिए वही खड़े रह जाते हैं जहाँ हम सालों से खड़े थे?

जहाँ तक दुनिया के सफल लोगों का सवाल है वे रिस्क लेते हैं…अगर आप नहीं लेते तो हो सकता है आज आप बिलकुल सुरक्षित हों आपके शरीर पर एक भी घाव ना हों…लेकिन जब आप अपने भीतर झाकेंगे तो आपको अपने अन्दर ज़रूर कुछ ऐसे ज़ख्म दिख जायेंगे जो आपके द्वारा अपने सपनो को के लिए कोई प्रयास ना करने के कारण आज भी हरे होंगे।

दोस्तों, पंछी सबसे ज्यादा सुरक्षित एक पिंजड़े में होता है…लेकिन क्या वो इसलिए बना है? या फिर वो आकश की ऊँचाइयों को चूमने और आज़ाद घूमने के लिए दुनिया में आया है? फैसला आपका है…आप पिंजड़े का पंछी बनना चाहते हैं या खुले आकाश का?

👉 भक्तिगाथा (भाग २०)

अनन्यता के पथ पर बढ़ चलें हम

प्रतीक्षा के इन पलों में सभी की अंतश्चेतना में भक्ति के नये सूत्र की जिज्ञासा गहरी हुई। देवर्षि इस सच से परिचित थे। उन्होंने वीणा के तारों की झंकृति के साथ मधुर स्वरों में उच्चारित किया-
‘तस्मिन्नन्यता तद्विरोधिबूदासीनता च’॥ ९॥
उस प्रिय परात्पर चेतना में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदसीनता को निरोध कहते हैं।
    
नारद की वाणी इतनी सजल थी कि वह सहज ही सबमें संव्याप्त हो गयी। दो पलों तक समूची व्यापकता में मौन पसरा रहा। एक नीरव निःस्पन्दता सब तरफ छायी रही। अंततः महर्षि मरीचि मुखर हुए। उन्होंने कहा कि ‘‘देवर्षि सभी तपस्वी, साधक एवं सिद्ध इस निरोध अवस्था को पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रकारों ने चित्त के निरोध को योग की संज्ञा दी है। आप बताएँ कि निरोध का स्वरूप क्या है और इसकी साधना की प्रक्रिया क्या है?’’
    
महर्षि मरीचि के ये वचन सभी को अपने से लगे। ब्रह्मर्षि क्रतु तो इस जिज्ञासा पर अति प्रसन्न हो गये और कहने लगे- ‘‘देवर्षि सच तो यही है, चित्त का निरोध ही मानव चेतना का आरोग्य है। इसके विपरीत जो कुछ भी है, उसमें मानव मन रुग्ण एवं संतप्त ही रहता है।’’ अभी तक देवर्षि मौन भाव से महर्षियों के इस कथन को सुन रहे थे। उनकी आँखें हिमालय की सुषमा को निहार रही थीं। श्वेत हिमशिखर और निरभ्र आकाश सभी पर अपनी परम निर्मलता की वृष्टि कर रहे थे। समूची प्रकृति देवात्मा हिमालय के सान्निध्य में निरोध अवस्था में विराज रही थी। समूचे अस्तित्व में आनन्द और चैतन्यता घुल-मिल रहे थे।
    
देवर्षि का दृष्टा अंतःकरण इन अनुभूतियों के साथ एकरस था। उन्होंने मन्दस्मित के साथ देवों और महर्षियों को कहा- ‘‘हे प्रज्ञाजन! भक्ति का यह नया सूत्र पिछले कहे हुए सूत्र का ही विस्तार है। पिछले सूत्र में भक्ति साधना में निरोध और न्यास की बात थी। उन्हीं की समरूपता इस सूत्र के अनन्यता और उदासीनता में है। एक होता है, दूसरा स्वयं ही आ जाता है। प्रथम यदि क्रिया है तो दूसरा परिणाम। निरोध शब्द में निषेध या नकार नहीं है, बल्कि इसमें आत्म विकास की निरन्तरता और उसका चरम है। निरोध चित्त की ऐसी अवस्था है, जिसमें एकाग्रता, शान्ति, विश्रान्ति एवं बोध का परम जागरण है। भक्त जब अपने आराध्य में अनन्य भाव रखता है तो इसकी शुरुआत हो जाती है। ज्यों-ज्यों उसकी अनन्यता प्रगाढ़ एवं परिपक्व होती है, त्यों-त्यों उसका अंतःकरण सभी ्रकार के दोषों से मुक्त होता है। उसे दोषों को छोड़ना नहीं पड़ता, बल्कि ये अपने आप ही छूटते हैं। उसकी भाव चेतना उपराम एवं उदासीन (उत्+आसीन) ऊपर चली जाती है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ४४

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २०)

👉 अपनी अपनी दुनिया

दुनिया वैसी है नहीं—जैसी कि हम उसे देखते हैं। सच तो यह है कि संसार के समस्त पदार्थ कुछ विशेष प्रकार के परमाणुओं की भागती-दौड़ती हलचल मात्र है। हमारी आंखों की संरचना और मस्तिष्क का क्रिया-कलाप जिस स्तर का होता है, उसी प्रकार की वस्तुओं की अनुभूति होती है।

हमारी आंखें जैसा कुछ देखती हैं, आवश्यक नहीं दूसरों को भी वैसा ही दीखें। दृष्टि के मन्द, तीव्र, रुग्ण, निरोग होने की दशा में दृश्य बदल जाते हैं। एक को सामने का दृश्य एक प्रकार का दीखता है तो दूसरे को दूसरी तरह का। यही बात स्वाद के सम्बन्ध में है। रोगी के मुंह का जायका खराब होने के कारण हर वस्तु कड़वी लगती है। पेट भरा होने या अपच रहने पर स्वादिष्ट वस्तु का भी स्वाद बिगड़ जाता है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, हर मनुष्य के स्रावों में कुछ न कुछ रासायनिक अन्तर रहता है जिसके कारण एक ही खाद्य पदार्थ का स्वाद हर व्यक्ति को दूसरे की अपेक्षा कुछ न कुछ भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यों नमक, शकर आदि का स्वाद मोटे रूप से खारी या मीठा कहा जा सकता है पर यदि गम्भीर निरीक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस खारीपन और मिठास के इतने भेद प्रभेद हैं जितने कि मनुष्य। किसी का स्वाद किसी से पूर्णतया नहीं मिलता, कुछ न कुछ भिन्नता रहती है। यही बात आंखों के संबन्ध में है आंखों की संरचना और मस्तिष्क की बनावट में जो अन्तर पाया जाता है उसी के कारण एक मनुष्य दूसरे की तुलना में कुछ न कुछ भिन्नता के साथ ही वस्तुओं तथा घटनाओं को देखता है।

मनुष्यों और पक्षियों की आंखों की सूक्ष्म बनावट को देखता है। मस्तिष्कीय संरचना में काफी अन्दर है इसलिए वे वस्तुओं को उसी तरह नहीं देखते जैसे कि हम देखते हैं। उन्हें हमारी अपेक्षा भिन्न तरह के रंग दिखाई पड़ते हैं।

रूस की पशु प्रयोगशाला ने बताया है कि बैल को लाल रंग नहीं दीखता, उनके लिए सफेद और लाल रंग एक ही स्तर के होते हैं। इसी तरह मधु-मक्खियों को भी लाल और सफेद रंग का अन्तर विदित नहीं होता। जुगनू सरीखे कीट पतंग एक अतिरिक्त रंग ‘अल्ट्रावायलेट’ भी देखते हैं जो मनुष्यों की आंखें देख सकने में असमर्थ हैं। पक्षियों को लाल, नीला, पीला, और हरा यह चार रंग ही दीखते हैं। हमारी तरह वे न तो सात रंग देखते हैं और न उनके भेद उपभेदों से ही परिचित होते हैं।

ठीक इसी प्रकार हरी घास की हरीतिमा सबको एक ही स्तर की दिखाई नहीं पड़ेगी। किन्तु हमारी भाषा का अभी इतना विस्तार नहीं हुआ कि इस माध्यम से हर व्यक्ति को जैसा सूक्ष्म अन्तर उस हरे रंग के बीच दिखाई पड़ता है उसका विवरण बताया जा सके। यदि अन्तर प्रत्यन्तर की गहराई में जाया जाय तो स्वाद और रंग के अन्तर बढ़ते ही चले जायेंगे और अन्ततः यह मानना पड़ेगा कि जिस तरह हर मनुष्य की आवाज, शकल और प्रकृति में अन्तर होता है उसी प्रकार रंगों की अनुभूति में भी अन्तर रहता है। स्वाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। गन्ध में भी यही अन्तर रहेगा। सुनने और छूने में भी हर व्यक्ति को दूसरे से भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यह भिन्नता बहुत ही सूक्ष्म स्तर की होती है, पर होती अवश्य है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ३०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

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