बुधवार, 1 अगस्त 2018

👉 पर-निंदा का परिणाम

🔷 दो संस्कृतज्ञ विद्वान् एक गृहस्थ के यहाँ अतिथि बने। गृहस्थ ने उनका बड़ा सत्कार किया। जब एक विद्वान् स्नान घर में गए, तब गृहस्थ ने दूसरे विद्वान् से स्नान करने को गये हुए विद्वान् के संबंध में पूछा। उसने उत्तर दिया कि ‘वह मूर्ख बैल हैं।’ जब वह स्नान करके आया तो दूसरा स्नान करने गया। गृहस्थ ने स्नान करके आए हुए विद्वान् से दूसरे विद्वान् के संबंध में पूछा तो वह बोला-यह क्या जानता है-पूरा गधा है।’ जब भोजन का समय हुआ तो गृहस्थ ने एक गट्ठर घास और एक डलिया भूसा उनके सामने ला रखा और बोला-लीजिये महाराज! बैल के लिए भूसा और गधे के लिए घास उपस्थित है। यह देख सुनकर दोनों ही बड़े लज्जित हुए। विद्वान् होकर भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या द्वेष के भाव रखना बड़ी घृणित प्रवृत्ति है। ऐसा विद्वान् भी निःसन्देह पशु श्रेणी में रखे जाने योग्य है।

🔶 “जो लोग अन्य लोगों से अपने विचारों की पुष्टि और समर्थन करा चुके हैं, वे प्रायः ऐसे ही लोग हुए हैं जिन्होंने स्वयं स्वतन्त्र विचार करने का साहस किया था।”

🔷 “केवल मूर्ख और मृतक, ये दो ही अपने विचारों को कभी नहीं बदलते।”

👉 आखिरी अरदास

🔷 गुरु गोविन्द सिंह जंगल में एक ऊँचे टीले पर बैठे थे। तभी जत्थेदार महासिंह ने आकर कहा - गुरुजी! पर गुरुजी तो जैसे आत्मलीन थे। उनकी दृष्टि किसी गहन विचारबिन्दु पर स्थिर हो रही थी। महासिंह के आगमन का आभास भी नहीं हो पाया उन्हें।

🔶 लेकिन महासिंह ने ससम्मान फिर से पुकारा गुरु जी! गुरुजी ने एकबारगी चौंककर कहा - आओ महासिंह! बोलो महासिंह! संकोच किसलिए? गुरुजी का स्वर शान्त होने के बावजूद उसमें छलकती वेदना मुखर थी। शायद उन्होंने महासिंह के मन का मर्म पा लिया था और उसके कारण वे दुर्निवार वेदना से आकुल हो उठे थे।

🔷 सामने खड़ा महासिंह गुरुजी के दृष्टितेज को सहन नहीं कर पाया। उसका मस्तक झुक गया। तभी गुरुजी ने धीमे स्वर में कहना शुरू किया - महासिंह ये दुःख हम लोगों ने स्वयं ही तो आमंत्रित किया है। क्या यह हमें विचलित कर देगा? खालसा, मेरा शिष्य दुःख विपदा से डिगेगा नहीं।

🔶 लेकिन गुरुजी! अब हम रह ही कितने गए हैं? एक-एक कर सभी तो चले गए छोड़कर। इसी से विचार आता है कि क्यों न शत्रु से सुलह कर लें? अच्छे दिन आने पर कभी फिर लड़ सकेंगे .....। महासिंह हिम्मत बाँधकर कहता गया।

🔷 महासिंह! यह तुम कर रहे हो। विपदा से विचलित हो रहे हो? कल दुनिया हमें क्या कहेगी। सुलह का विचार घातक है। विपत्ति की झंझा में हमें बढ़ना होगा। महासिंह! हमारा ध्येय हमारे सामने है और यह शुक्रतारे की तरह प्रकाशमान है।

🔶 लेकिन गुरुजी! हम शेष चालीस लोग अब शत्रु का कर ही क्या सकते हैं? इसलिए सुलह का विचार ही पक्का होता जाता है ................. औरों ने भी आखिरी तौर से तय करके मुझे भेजा है ................. और कहा है कि मैं आपसे अर्ज़ करूँ कि अब दुश्मन से सुलह कर ही लें, ताकि आगे हमें संगठित और सशक्त होने का मौका मिल सके।

🔷 महासिंह! इसमें फिर से संगठित होने की बात तो महज बहाना है - सच यह है कि संकटों से भागने की भावना ही इस विचार का आधार बन बैठी है। माना कि आज सिर्फ मैं हूँ और तुम चालीस भी साथ हो। इस स्थिति में तो यह विश्वास करके चलना होगा कि हमारा एक-एक खालसा सवालाख शत्रु सेना से युद्ध करेगा। पलायन का रास्ता नहीं पकड़ेगा।

🔶 गुरुजी! अब मेरे कहने का कोई असर उन सभी पर नहीं होने का। गुरुजी गम्भीर हो गए। एक क्षण मौन रहकर बोले - ठीक है महासिंह! जाओ हमारी तरफ से तुम्हें छूट है, लेकिन तुम और तुम्हारे उनतालीस साथी आज से अब स्वयं को शिष्य (सिख) नहीं कहेंगे।

🔷 महासिंह अपनी सैनिक टुकड़ी का जत्थेदार था। उसने अपने सहित चालीस खालसाओं का बेदावा लिखकर गुरुजी को दे दिया। चलते समय अभिवादन के लिए जब महासिंह ने गुरुजी की तरफ देखा तो उसकी आँखें भर आयी। उनकी गम्भीर मुद्रा बरबस अपनी तरफ महासिंह का हृदय खींचने लगी। महासिंह ने उधर बिना देखे ही अभिवादन किया, साथ ही उसके साथियों ने भी। और वे सब चलने लगे।

🔶 उस दिन मकर संक्रान्ति का पर्व था। माई मागों को जब इसकी सूचना मिली तो वे बेचैन हो उठीं। उन्हें याद आया कि आज की ही तरफ जब एक बार गुरुजी माछीपाड़ा के जंगल में जमीन पर एकाकी बैठे थे। कोई संगी-साथी वहाँ मौजूद न था। चारों बच्चे शहीद हो चुके थे। सेना छिन्न-विच्छिन्न हो गयी थी, तो गुरुजी ने किसी को उलाहना, उपालम्भ नहीं दिया था। उस दिन पूरे मन से उन्होंने अपने मित्र को पुकारा था। उस अदृष्ट मित्र को, जो घट-घट का वासी है।

🔷 उस वक्त घोर विपिन में इक्का दुक्का जंगली हिंस्र पशु भी गुरुजी के इर्द-गिर्द घूम रहे थे। गुरुजी पवन को सम्बोधित कर कह उठे थे - मित्र प्यारे नूँ हाल मुरीदा दाँ कैना........।  अर्थात् हे पवन! तेरी गति सर्वत्र है। अतः मेरे उस महामित्र से, परमसखा से, प्रभु से उसके शिष्यों का सब समाचार कह देना....।

🔶 सोचते-सोचते माई माँगों अचानक किसी प्रबल शक्ति से प्रेरित हो उठ खड़ी हुई। कमर से रोज की तरह अपनी पैनी लघु खड्ग बाँधी और हाथ में दीर्घ यष्टिका लेकर बाहर चल दीं।

🔷 माई मागों तेज चाल से महासिंह के घर पहुँची। वह उस वक्त स्त्री बच्चे के बीच निश्चिन्त बैठा था - मानों अब उसे कुछ करना नहीं है। माई मागों एक क्षण उसे तीव्र आँखों से खड़ी घूरती रहीं। महासिंह उनकी इस दृष्टि से घबरा गया। पास आकर ‘मत्था टेका’ कहा और आदर अभिव्यक्ति में व्यस्त हो उठा। माई मागों फिर भी मौन रहीं।

🔶 माई का क्या हुक्म है? महासिंह पूछ रहा था।

🔷 माई मागों असीम उत्तेजना से चीत्कार कर उठीं - महासिंह! ओए जत्थेदार। तुसी .....तुसी, चूड़ियाँ पालो और कर (घर) बैठ। असी लड़ागियाँ .........। (अरे ओ जत्थेदार! तू चूड़ियाँ पहन ले और घर बैठ।) मैं लड़ने जाती हूँ। माई की मुखमुद्रा पर कुछ ऐसा तेज आ विराजा कि महासिंह हतबुद्धि अवाक् टुकुर-टुकुर खड़ा देखता रहा-फिर वह भी उत्तेजित हो उठा। उसे लगा कि कोई कह रहा है - महासिंह! जल्दी चल। गुरुजी पर मुसीबत आने वाली हैं। घर से निकल महासिंह, शस्त्र लेकर, साथी लेकर दौड़ चल उस दिशा में, जहाँ गुरुजी अकेले, बिना साथी-सहायक के घोर विपदा के बीच अडिग खड़े हैं .......।

🔶 इसी बीच महासिंह के कानों में माई मागों के शब्द पड़ें - महासिंह! तुम ने गुरुजी से दीक्षा ली। गुरुदीक्षा का यही अर्थ है - गुरु के काम के लिए मर मिटना। स्वयं को गुरु पर न्योछावर कर देना। अपने सर्वस्व को गुरु के चरणों पर बलिदान कर देना।

🔷 महासिंह की आँखों के समाने गुरुदीक्षा का दृश्य घूम रहा था। शर्मिन्दा होते हुए उसने कहा - नहीं माई! महासिंह कायर नहीं है - मैं भी चलता हूँ। और सच ही महासिंह अपनी लम्बी खड्ग, सुतीक्ष्ण भाला होकर - शिरस्त्राण तथा सैनिक परिवेश पहन कर फुर्ती से तैयार हो गया - बल्कि उसकी स्त्री ने, बहिन ने, माता ने इस तैयारी में दौड़ - दौड़ कर मदद की।

🔶 मकर संक्रान्ति की संध्या। खरदाना के ऊँचे टीले पर अकेले मोर्चेबन्दी करके गुरु गोविन्दसिंह शत्रुओं पर बाण वर्षा कर रहे थे। एक तरफ वे अकेले - दूसरी तरफ सैकड़ों मुगल सैनिक। मुगलों के तीर आ-आकर टीले की छाती में बेध रहे थे। और यह ऊँचा टीला मानों गुरुजी की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध था। किन्तु यह भी आशंका कम न थी कि थोड़ी ही देर में शत्रु सैनिक टीले को घेर लेंगे। अभी तक शत्रुओं को शायद ठीक से पता नहीं चल पाया था कि कितने सैनिक टीले पर मोर्चा बाँधे हुए हैं।

🔷 सहसा अघटन-घटना घटी इसी के अनुसार एक दूसरा ही दृश्य उपस्थित हो गया। टीले की ओर बढ़ रहे शत्रु-दल पर पीछे से किसी अन्य दल ने सवेग धावा कर दिया और गुरुजी ने आश्चर्यचकित होते हुए देखा कि दल प्राणों का भय त्यागकर विद्युत वेग से लड़ रहा है। तालाब तट पर एक-एक सैनिक अनेक शत्रुओं का संहार कर रहा है।

🔶 कौन हैं ये लोग? गुरुजी अनुमान नहीं लगा सके। कुछ तो टीले की ऊँचाई - कुछ पेड़ों का झुरमुट और दूरी भी थी। आगत दल के चेहरे स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे।

🔷 गुरुजी ने सरोवर की तरफ थोड़ा बढ़कर देखा, युद्ध खत्म हो गया था। शत्रुदल का संहार कर वह आगत अज्ञात टुकड़ी भी शहीद हो गयी, लेकिन उसके शहीद होते - होते शत्रु-दल भी भाग खड़ा हुआ।

🔶 सरोवर की जलराशि से छूता हुआ एक उच्छिन्न मस्तक पड़ा था। गुरुजी ने वह कटा हुआ सिर उठा ला। सिर रक्त और धूल से सन गया था। गुरुजी ने सरोवरजल से उसे स्वच्छ किया। वह चेहरा साफ-साफ दिखाई देने लगा। उन्हें एक साथ आश्चर्य, दुःख एवं आनन्द की अनुभूति हो आयी। यह सिर उन्हीं चालीस शिष्यों में से एक का था, जो बेदावा लिखकर दे गए थे।

🔷 गुरुगोविन्द सिंह ने एक-एक लाश का सिर जाँच कर रखकर उसके रक्तारक्त मुख को यों दुलराने, आलिंगन करने और चूमने लगे, मानों बहुत दिनों के बिछुड़े बेटों को पिता कलेजे से लगा रहा हो। आह! कितने प्यारे लग रहे थे वे सभी चेहरे, जो आज निहाल हो गए, देश की मिट्टी में मिल गए थे - हमेशा के लिए।

🔶 अरे! यह तो माई मागों है। आखिर उस बहादुर माँ की लाश भी गुरुजी जी के पहचान में आ ही गई। कई शत्रु सैनिक उसके इर्द-गिर्द कटे पड़ें थे। तो माई मागों भी लड़ने आयी थी? और अमित गौरव से, उद्दाम प्रेरणा से, प्रबल उत्साह एवं दुर्दम्य भावना से गुरुजी का रोम-रोम आप्यायित हो उठा।

🔷  गु...रु...जी.... सरोवर तट के लाशों के ढेर से एक टूटता स्वर सुनाई दिया। माई मागों का रक्त से सना मस्तक अपने हाथों से धीरे से नीचे रखकर गुरुजी उधर ही बढ़ें। अरे यह तो जत्थेदार महासिंह लगता है। अभी प्राण शेष हैं। गुरुजी ने आश्चर्य और प्यार के अतिरेक में कहा, जत्थेदार महासिंह! आखिर तुम भी आ गए। मेरे प्यारे खालसा। गुरुजी ने उद्दामा से उसको आलिंगन में ले लिया।

🔶 महासिंह उठ नहीं सकता था, वह निढाल पड़ा रहा। तीर-तलवार और भाले के अगणित बार उस पर हो चुके थे। स्वयं उसके हाथों कटी पड़ी हुई अनेकों लाशों उसके पास ढेर थीं।

🔷 गुरुजी सरोवर तट से अपना कमरबन्द भिगोकर लाए। महासिंह के मुँह पर उसका जल बूँद-बूँद टपकाते रहें। क्षण भर के लिए शायद अन्तिम बार उस महावीर का मुख्य दिव्य तेज से उद्भासित हो उठा। सोच रहा था जत्थेदार महासिंह - क्या गुरुजी ने उसको क्षमा कर दिया है? बेदावा लिखकर गुरुजी को अकेला छोड़ जाने का जघन्य अपराध इस मृत्युबेला में भी उसका हृदय कचोट रहा था।

🔶 गु..............रु...................जी! महासिंह कुछ कहना चाहता था।

🔷 महासिंह! मेरे प्यारे सपूत। बोलो। महासिंह की आँखें भरी आयीं। गुरुजी ने उसका सिर थपथपाया, आँसू पोंछे। गुरुजी! हम लोग अपना प्रायश्चित करने आए थे। प्रभु वह बेदावा फाड़ दीजिए। यही मेरी आखिरी अरदास है।

🔶 हर शिष्य के लिए स्पृहणीय बन गयी, महासिंह की अन्तिम इच्छा। गुरुजी ने अपने अंगरखे से बेदावा का कागज निकाला और फाड़कर उसके छोटे-छोटे टुकड़ों को सरोवर-जल में फेंक दिया। महासिंह को लगा कि उसकी आत्मा का घाव भर गया। गुरुजी की गोद में ही उसने अनन्त पथ की यात्रा के लिए आँखें बन्द कर लीं।

🔷 शिष्यों के इस अनूठे प्रायश्चित ने गुरुजी को भाव-विह्वल कर दिया। उन्होंने उस दिन कहा - यह स्थान ४१ बलिदानियों के रक्त से पवित्र हो चुका है। यहाँ जो आएगा, जो इस सरोवर में स्नान करेगा, वह भी मुक्तिपथ का भागी होगा। उन्होंने मुक्त-सर के नाम से उस सरोवर को सम्बोधित किया। तब से आज तक जब-जब मकर संक्रान्ति आती है, मुक्त-सर में उन ४१ शहीदों की याद में मेला लगता है।

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1998/September/v1.34

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 1 Aug 2018


👉 आज का सद्चिंतन 1 Aug 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 17)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत

🔷 जिन व्यक्तियों ने युग परिवर्तन के सरंजाम को संभव कर दिखाया है, उनके क्रियाकलापों पर एक दृष्टि डालकर यह भली-भाँति जाना जा सकता है कि जब भी प्रतिभा का सुनियोजन सही दिशा में होता है, उस व्यक्ति का ही नहीं, वातावरण का भी कायाकल्प हो जाता है। महाप्रतापी राणा प्रताप व शिवाजी से लेकर सुभाषचंद्र बोस, मनस्वी गाँधी इन्हीं कुछ शताब्दियों में जन्मे महामानव हैं, जिन्होंने प्रतिभा के सुव्यवस्थित सुनियोजन से असंभव को संभव कर दिखाया। वस्तुतः महामानवों का जीवन अपने आप में एक प्रयोगशाला है। उनके उदाहरणों से बहुत कुछ सीखा और पाया जा सकता है।
  
🔶 प्रतिभा परिवर्धन का प्रशिक्षण करने वाले कोई स्कूल, कॉलेज कहीं नहीं हैं। उसके लिए निर्धारित सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने के लिए अवसर और वातावरण स्वयं तलाशना पड़ता है। उस प्रकार के अवसर और वातावरण कहीं एक जगह एकत्रित नहीं मिलते। उन्हें दाने बीनने वाले की तरह झोली में भरना पड़ता है। पर इन दिनों एक ऐसा सुयोग सामने है, जिसके साथ संबंध सूत्र जोड़ने पर हर किसी को वह सुयोग हस्तगत हो सकता है।

🔷 जिसके सहारे प्रतिभा संपादन का सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हो सके, ऐसे सुयोग कभी-कभी ही सामने आते हैं और उन्हें कोई बिरले ही पहचानकर लाभ उठा पाते हैं। हनुमान् ने समय को पहचाना और वे थोड़े ही समय में समुद्र लाँघने, पर्वत उखाड़ने और लंका को मटियामेट करने का श्रेय प्राप्त कर सके। इसे समय की पहचान ही कहना चाहिए। यदि उस सुयोग का लाभ उठाना उनसे न बन पड़ता तो सुग्रीव के सेवक रहकर ही उन्हें दिन गुजारने पड़ते।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 21

👉 Where is the Lasting Joy?

🔷 We are all driven by the quest for joy. Behind all our plans, actions, expectations, lies this perennial thirst for joy. But because of our natural perception of the world and life at the gross material level, our domain of search remains confined to the sentient world and related extrovert experiences. We are not even aware that there could be an inner bliss or spiritual joy.

🔶 The feeling of delight is within us. How could the external things, material experiences enhance or suppress it? They might just give a momentary excitation or satisfy our ego for sometime. The true means and sources of joy lie deep within our own selves. The Vedic philosophy logically describes this fact – it is the consciousness-element of mind, which feels the joy. So, without knowing this sublime element or deciphering its nature and conditioning it, one can’t hope for unalloyed bliss or lasting joy. Conquering the mind is indeed bigger than conquering the world. One who succeeds in it is the happiest, strongest person in this world.

🔷 Hidden there is the subtle spring of infinite bliss in the core of our inner self. What we ever experience as joy is only a sprinkle of this immense source. The pleasure, if any, we find in the outer world is also a reflection of this inner impulse. As the Vedic Sciences (of Yoga etc) preach – in order to peep into this inner treasure, we will first have to purity and control our minds (both conscious
and unconscious mind), stabilize and uproot its agility and extrovert tendencies. Such a mind can eventually have the realization of divinity, of the absolute truth, the omnipresent, eternal Brahm. Attaining this state is a grand sadhana. The gamut of universal principles of religion is taught only for this purpose. The righteous path of morality, human religion alone can reach the realms of ever lasting joy.

📖 Akhand Jyoti, Sept. 1942

👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 2)

🔷 स्वच्छता और व्यवस्था ऐसा गुण है जिसमें किसी की कुरुचि का सहज ही परिचय प्राप्त किया जा सकता है। गन्दगी से घृणा और स्वच्छता से प्रेम रखा जाय तो वह उत्साह सहज ही बना रहेगा जिसके आधार पर शरीर, वस्त्र, फर्नीचर, पुस्तकें, स्टेशनरी, बर्तन, फर्श, चित्र, साइकिल आदि सम्बन्धित सामान को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखा जा सके। सफाई की यह आदत हिसाब-किताब पर, लेन-देन पर भी लागू होती है। घर, दफ्तर को, बच्चों को, वस्तुओं को साफ-सुथरा रखकर न केवल आगन्तुकों को अपनी सुरुचि का परिचय देते हैं वरन् अपने स्वभाव में अनोखी विशेषता उत्पन्न करते है।

🔶 जिसे ईमानदारी का जीवन जीना हो उसे पूर्व तैयारी मितव्ययी रहने की, सादा जीवन जीने की करनी चाहिए। जो कम में गुजारा करना जानता है उसी के लिए यह सम्भव है कि कम आमदनी से सन्तोष पूर्वक निर्वाह कर ले। ईमानदारी से आय सीमित रहती है, उतनी नहीं हो सकती जितनी बेईमानी अपनाने से। ऐसी दशा में यदि श्रेष्ठ जीवन जीना हो तो अपने खर्च जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक घटाने चाहिए। जिसने खर्च बढ़ा रखे हैं उन्हें उनकी पूर्ति के लिए बेईमानी का रास्ता ही अपनाना पड़ेगा। फिजूलखर्ची यों निर्दोष भी मालूम पड़ सकती है। अपना कमाना अपना उड़ाना इसमें किसी को क्या ऐतराज होना चाहिए। परन्तु बात इतनी सरल नहीं है। प्रकारान्तर से फिजूलखर्ची बेईमानी अपनाने के लिए बाध्य करती है।

🔷 अनियन्त्रित खर्च करने की आदत बढ़ती ही जाती है और वह देखते-देखते उस सीमा को छूती है जहाँ न्यायोचित आमदनी कम पड़े और घटोत्तरी की पूर्ति के लिए बेईमानी पर उतारू होना पड़े। जिसने आमदनी और खर्च का तालमेल बिठाना सीखा है वही कुछ सत्कर्मों के लिए भी बचा सकता है। अन्यथा सदुद्देश्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य भी आर्थिक तंगी के कारण रुके पड़े रहेंगे। सादगी की जीवनचर्या सस्ती पड़ती है, कम समय लेती है। अस्तु मितव्ययी व्यक्ति के लिए ही यह सम्भव होगा कि वह आदर्शवादी जीवन जी सके और परमार्थ की दिशा में कुछ कहने लायक योगदान दे सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 शरीर और आत्मा

🔷 शरीर और आत्मा का गठबन्धन कुछ ऐसा ही है, जिसमें जरा अधिक ध्यान देखने पर वास्तविकता झलक जाती है । शरीर भौतिक स्थूल पदार्थों से बना हुआ है, किन्तु आत्मा सूक्ष्म है। पानी में तेल डालने पर वह ऊपर को ही आने का प्रयत्न करेगा क्योंकि तेल के परमाणु पानी की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हैं। अग्नि की लपटें ऊपर को ही उठेंगी। पृथ्वी की आकर्षक शक्ति और वायु का दबाव उसे रोक नहीं सकता है। आत्मा शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म है, इसलिए वह इसमें बंधी हुई होते हुए भी इसमें पूरी तरह घुल मिल जाने की अपेक्षा ऊपर उठने की कोशिश करती रहती है। लोग कहते हैं कि इन्द्रियों के भोग हमें अपनी ओर खींचे रहते हैं, पर यह बात सत्य नहीं है।

🔶 सत्य के दर्शन कर सकने के योग्य सुविधा और शिक्षा प्राप्त न होने पर मन मानकर अपनी आन्तरिक प्यास को बुझाने के लिए मनुष्य विषय भोगों की कीचड़ पीता है। हम जानते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़ते समय तुम्हारा चित्त वैसी ही उत्सुकता और प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है, जैसी बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ परदेशी अपने घर कुटुम्ब के समाचार सुनने के लिए आतुर होता है। यह एक मजबूत प्रमाण है, जिससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की आन्तरिक इच्छा आत्म-स्वरूप देखने की बनी रहती है। शरीर में रहता हुआ भी वह उसमें घुलमिल नहीं सकता, वरन् उचक-उचक कर अपनी खोई हुई किसी चीज को तलाश करता है। बस, वह स्थान जहाँ भटकता है, यही है।

🔷 उसे यह याद नहीं आता कि मैं क्या चीज ढूँढ रहा हूँ? मेरा कुछ खो गया है, इसका अनुभव करता है। खोई हुई वस्तु के अभाव में दु:ख पाता है, किन्तु माया-जाल के पर्दे से छिपी हुई चीज को नहीं जान पाता। चित्त बड़ा चंचल है, घड़ी भर भी एक जगह नहीं ठहरता। इसकी सब लोग शिकायत करते हैं, परन्तु कारण नहीं जानते कि मन इतना चंचल क्यों हो रहा है? कस्तूरी मृग कोई अद्भुत गन्ध पाता है और उसके पास पहँचने के लिए दिन-रात चारों ओर दौड़ता रहता है । क्षण भर भी उसे विश्राम नहीं मिलता। यही हाल मन का है। यदि वह समझ जाय कि कस्तूरी मेरी नाभि में रखी हुई है, तो वह कितना आनन्द प्राप्त कर सके और सारी चंचलता भूल जाय।

🔶 आत्मा के पास तक पहुँचने के साधन जो हमारे पास मौजूद हैं, वह चित्त, अन्त:करण मन, बुद्घि आदि ही हैं। आत्म दर्शन की साधना इन्हीं के द्वारा हो सकती है। शरीर में सर्वत्र आत्मा व्याप्त है। कोई विशेष स्थान इसके लिए नियुक्त नहीं है, जिस पर किसी साधन विशेष का उपयोग किया जाय। जिस प्रकार आत्मा की आराधना करने में मन, बुद्घि आदि ही समर्थ हो सकते हैं, उसी प्रकार उसके स्थान और स्वरूप का दर्शन मानस लोक में प्रवेश करने से हो सकता है। मानसिक लोक भी स्थूल लोक की तरह ही है। उसमें इसी बाहरी दुनिया की ही अधिकांश छाया है। अभी हम कलकत्ते का विचार कर रहे हैं, अभी हिमालय पहाड़ की सैर करने लगे। अभी जिनका विचार किया था, वह स्थूल कलकत्ता और हिमालय नहीं थे, वरन् मानस लोक में स्थित उनकी छाया थी, यह छाया असत्य नहीं होती। पदार्थों का सच्चा अस्तित्व हुए बिना कोई कल्पना नहीं हो सकती। इस मानस लोक को भ्रम नहीं समझना चाहिए। यही वह सूक्ष्म चेतना है, जिसकी सहायता से दुनियाँ के सारे काम चल रहे हैं। च्च आध्यात्मिक चेतनाएँ मानसलोक से आती हैं। किसी के मन में क्या भाव उपज रहे हैं, कौन हमारे प्रति क्या सोचता है, कौन सम्बन्धी कैसे दशा में है आदि बातों को मानसलोक में प्रवेश करके हम अस्सी फीसदी ठीक-ठीक जान लेते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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