शनिवार, 29 अक्टूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 64)

🔵 वत्स! जीवन को शांतिपूर्वक ग्रहण करो। सभी समय शांत रहो। किसी भी बात पर क्षुब्ध न होओ। तुम्हारा शारीरिक स्वभाव बहुत अधिक क्षुब्धकारी ढंग से राजसिक है। किन्तु राजसिकता को छोड़ो नहीं, उसका अध्यात्मीकरण करो। यही रहस्य है। अपने आप पर इतना अधिकार रखो कि किसी भी मुहूर्त अपनी चंचल वृत्ति को शांत कर ध्यान की अवस्था में रह सको। सर्वतोमुखी बनो। कर्म तुम्हें जिन लोगों के संपर्क में लाता है उनसे तुम्हारा संबंध ऐसा हो कि तुम उनके भीतर की महानता के साक्षी बन सको। और यदि दोष देखना ही हो तो पहले अपने दोषों को देखो न कि तुम्हारे भाई के दोषों को। तात्कालिक क्षणों के अनुभवों से विह्वल न हो जाओ। इस दिन के बाद उस अनुभव का क्या महत्त्व रह जायेगा।

🔴 सारे धार्मिक जीवन का अर्थ है अहंकार की निवृत्ति। इसकी जड़े इतनी गहरी जमी हैं कि किसी असाध्य रोग के कारण को खोज पाने के समान कठिन है। यह हजारों प्रकार के छद्मों में अपने को छिपाता है किन्तु सभी छद्मों में सबसे अधिक धोखेबाज तथा दुष्ट छद्म आध्यात्मिक छद्म है। असावधानी पूर्वक यह विश्वास करते हुए कि तुम आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये कर्म कर रहे हो किन्तु तुम यह पाओगे कि इसके मूल में संभवतः कोई स्वार्थ तुम्हें प्रभावित कर रहा है। अतएव तीक्ष्ण्दृष्टि रखो। केवल व्यक्तित्व को जीत कर तथा उसके विसर्जन द्वारा उच्च अमूर्त को समझा तथा अनुभव किया जा सकता।

🔵 स्वयं के प्रति मर जाना जिससे कि सच्चा आध्यात्मिक जीवन जी सकें यही आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है। कच्छ प्रकाश (दल दल में दिखने वाला अस्थायी प्रकाश) से संतुष्ट रहने वाले बहुत से लोग असल सूर्य को नहीं देख पाते। जब स्वार्थपूर्ण व्यक्तित्व का निराकरण होता है तभी वास्तविक अमरत्व प्राप्त किया जा सकता। इसे स्मरण रखो। निराकार में मन को स्थिर करो। आत्मविजयी व्यक्तित्व में ही परमात्मा  की ज्योति प्रकाशित होती है। जब वह ज्योति पूर्णतः प्रकाशित होती है, तभी निर्वाण की अभिव्यक्ति होती है।
🌹 क्रमशः जारी
*🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर*

👉 मैं क्या हूँ ? What Am I ? (भाग 14)


🌞 पहला अध्याय

🔴 उपरोक्त शंका स्वाभाविक है, क्योंकि हमारी विचारधारा आज कुछ ऐसी उलझ गई है कि लौकिक और पारलौकिक स्वार्थों के दो विभाग करने पड़ते हैं। वास्तव में ऐसे कोई दो खण्ड नहीं हो सकते, जो लौकिक हैं वहीं पारलौकिक हैं। दोनों एक-दूसरे से इतने अधिक बँधे हुए हैं, जैसे पेट और पीठ। फिर भी हम पूरी विचारधारा को उलट कर पुस्तक के कलेवर का ध्यान रखते हुए नये सिरे से समझाने की यहाँ आवश्यकता नहीं समझते। यहाँ तो इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि आत्मदर्शन व्यावहारिक जीवन को सफल बनाने की सर्वश्रेष्ठ कला है। आत्मोन्नति के साथ ही सभी सांसारिक उन्नति रहती हैं। जिसके पास आत्मबल है, उसके पास सब कुछ है और सारी सफलाताएँ उसके हाथ के नीचे हैं।

🔴 साधारण और स्वाभाविक योग का सारा रहस्य इसमें छिपा हुआ है कि आदमी आत्म-स्वरूप को जाने, अपने गौरव को पहचाने, अपने अधिकार की तलाश करे और अपने पिता की अतुलित सम्पत्ति पर अपना हक पेश करे। यह राजमार्ग है। सीधा, सच्चा और बिना जोखिम का है। यह मोटी बात हर किसी की समझ में आ जानी चाहिए कि अपनी शक्ति और औजारों की कार्यक्षमता की जानकारी और अज्ञानता किसी भी काम की सफलता-असफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उत्तम से उत्तम बुद्धि भी तब तक ठीक-ठीक फैसला नहीं कर सकती, जब तक उसे वस्तुओं का स्वरूप ठीक तौर से न मालूम हो जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 2

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति का गुजरना पड़ रहा है वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुतः पतन की है। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है। दिमाग बड़े हो रहे हैं पर दिल दिन-दिन सिकुड़ते जाते हैं। पढ़-लिखकर लोग होशियार तो खूब हो रहे हैं पर साथ ही अनुदारता स्वार्थपरता, विलास और अहंकार भी उसी अनुपात से बढ़े हैं।

🔴 पोशाक, श्रृंगार, स्वादिष्ट भोजन और मनोरंजन की किस्में बढ़ती जाती हैं, पर असंयम के कारण स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। दो-तीन पीढ़ी पहले जैसा अच्छा स्वास्थ्य था वह अब देखने को नहीं मिलता। कमजोरी और अशक्तता हर किसी को किसी-न-किसी रूप में घेरे हुए हैं। डॉक्टर-देवताओं की पूजा प्रदक्षिणा करते-करते लोग थक जाते हैं पर स्वास्थ्य लाभ का मनोरथ किसी बेचारे को कदाचित ही प्राप्त होता है।

🔵 धन बढ़ा है पर साथ ही महंगाई और जरूरतों की असाधारण वृद्धि हुई हैं। खर्चों के मुकाबिले आमदनी कम रहने से हर आदमी अभावग्रस्त रहता है और खर्चे की तंगी अनुभव करता है। पारस्परिक सम्बन्ध खिंचे हुए, संदिग्ध और अविश्वास से भरे हुए हैं। पति-पत्नी, पिता-पुत्र और भाई-भाई के बीच मनोमालिन्य ही भरा रहता है।

🔴 यार-दोस्तों में से अधिकांश ऐसे होते हैं जिनसे विश्वासघात, अपहरण और तोताचश्मी की ही आशा की जा सकती है। चरित्र और ईमानदारी की मात्रा इतनी तेजी से गिर रही है कि किसी को किसी पर विश्वास नहीं होता। कोई करने भी लगे तो बेचारा धोखा खाता है। पुलिस और जेलों की, मुकदमे और कचहरियों की कमी नहीं, पर अपराधी मनोवृत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 63)

गुरुदेव की वाणी ने कहा :-

🔵 वत्स! तुम यह जानते के लिये बाध्य किये जाओगे कि संसार में कुछ ऐसी कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना तुम्हें अवश्य करना पड़ेगा तथा जो तुम्हारे पूर्व कर्मों के कारण अजेय प्रतीत होंगी। उनके कारण झुँझलाइट में अधीर न होओ। यह जान लो कि जहाँ चिन्ता और अपेक्षाएँ है, वहा अन्ध आसक्ति भी है। अपना कार्य करने के पश्चात् अलग हो जाओ। कार्य के अपने कर्मविधान के अनुसार उसे समय के प्रवाह में बहने दो, जैसा कि वह बहेगा ही।

🔴 अपना कार्य समाप्त कर लेने के पश्चात् तुम्हारा नारा हो, दूर रहो! अपनी संपूर्ण शक्ति से कर्म करो तथा उसके पश्चात् अपनी संपूर्ण शक्ति से समर्पित हो जाओ। किसी भी घटना में हतोत्साहित न होओ, क्योंकि कर्मफल शुभ अशुभ जो भी हो सभी गौण हैं। उन्हें त्याग दो! उन्हें त्याग दो!! तथा यह अच्छी तरह स्मरण रखो कि कर्म करने मैं कर्म की दक्षता उद्देश्य नहीं है, उद्देश्य है, कर्म के द्वारा व्यक्तित्व की परिपूर्णता।

🔵  अपने ही कर्मों को तुम वश में नहीं कर सकते, दूसरे के कर्मों पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। उसका कर्म एक प्रकार का है, तुम्हारा कर्म दूसरे प्रकार का। आलोचना न करो, आशा न रखो, भयभीत न होओ। सभी कुछ ठीक हो जायेगा। अनुभव आता जाता है, व्यग्र न होओ। तुम सत्य के धरातल पर खड़े होओ। अनुभव को तुम्हें मुक्त होना सिखाने दो। चाहे जो हो जाय और अधिक बंधन न बाँधो। और क्या तुम इतने मूर्ख हो कि एक ही प्रकार के कर्म में बँध जाओ? क्या मेरे कर्म का क्षेत्र असीम नहीं है?

🔴 कर्मयोग तथा सच्चे कर्म के महान आदर्श को ईर्ष्या तथा आसक्ति से नीचा न करो। बच्चों जैसी भावनाओं को तुम पर अधिकार न करने दो। आशा न रखो, प्रत्याशा न रखो। संसार के प्रवाह तुम्हारे व्यक्तित्व को जहाँ ले जायें ले जाने दो। स्मरण रखो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप समुद्रवत् है तथा उदासीन रहो। मन भी सूक्ष्म रूप में शरीर ही है यह जान लो। इसलिये तुम्हारी तपस्या को मानसिक बनाओ। अपनी सभी मानसिक वृत्तियों को शारीरिक वत्त्ति ही समझो तथा निर्लिप्त रहो। तुम आत्मा हो अपनी आत्मा से ही सरोकार रखो। अपने स्वयं का जीवन जीओ। स्वयं के प्रति सच्चे बनो।

🌹 क्रमशः जारी
*🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर*

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