शनिवार, 26 अगस्त 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 53)

🌹  संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य-प्रसार के लिए, अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।

🔴 इस संसार में अनेक परमार्थ और उपकार के कार्य हैं, वे सब आवरण मात्र हैं, उनकी आत्मा में, सद्भावनाएँ सन्निहित हैं। सद्भावना सहित सत्कर्म भी केवल ढोंग मात्र बनकर रह जाते हैं। अनेक संस्थाएँ आज परमार्थ का आडम्बर करके सिंह की खाल ओढ़े फिरने वाले शृंगाल का उपहासास्पद उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं। उनसे लाभ किसी का कुछ नहीं होता, विडम्बना बढ़ती है और पुरुषार्थ को भी लोग आशंका एवं संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। प्राण रहित शरीर कितने ही सुंदर वस्त्र धारण किए हुए क्यों न हो, उसे कोई पसंद न करेगा, न उससे किसी का कोई भला होगा। इसी प्रकार सद्भावना रहित जो कुछ भी लोकहित, जनसेवा के प्रयास किए जाएँगे, वे भलाई नहीं, बुराई ही उत्पन्न करेंगे।

🔵 बुराइयाँ आज संसार में इसलिए बढ़ और फल-फूल रही हैं कि उनका अपने आचरण द्वारा प्रचार करने वाले पक्के प्रचारक, पूरी तरह मन, कर्म, वचन से बुराई फैलाने वाले लोग बहुसंख्या में मौजूद हैं। अच्छाइयों के प्रचारक आज निष्ठावान् नहीं, बातूनी लोग ही दिखाई पड़ते हैं, फलस्वरूप बुराइयों की तरह अच्छाइयों का प्रसार नहीं हो पाता और वे पोथी के वचनों की तरह केवल कहने-सुनने भर की बातें रह जाती हैं। कथा-वार्ताओं को लोग व्यवहार की नहीं कहने-सुनने की बात मानते हैं और इतने मात्र से ही पुण्य लाभ की संभावना मान लेते हैं।

🔴 सत्प्रवृत्तियों को मनुष्य के हृदय में उतार देने से बढ़कर और कोई महत्त्वपूर्ण सेवा कार्य इस संसार में नहीं हो सकता। वस्तुओं की सहायता भी आवश्यकता के समय उपयोगी सिद्ध हो सकती है, पर उसका स्थाई महत्त्व नहीं है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य लोग ऐसी सेवा कर भी नहीं सकते। हर आदमी स्थायी रूप से अपनी समस्या, अपने पुरुषार्थ और विवेक से ही हल कर सकता है। दूसरों की सहायता पर जीवित रहना न तो किसी मनुष्य के गौरव के अनुकूल हे और न उससे स्थायी हल ही निकलता है। जितनी भी कठिनाइयाँ व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में दिखाई पड़ती हैं, उनका एकमात्र कारण कुबुद्धि है।

🔵 यदि मनुष्य अपनी आदतों को सुधार ले, स्वभाव को सही बना ले और विचारों तथा कार्यों का ठीक तारतम्य बिठा ले तो बाहर से उत्पन्न होती दीखने वाली सभी कठिनाइयाँ बात की बात में हल हो सकती हैं। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी में है कि सत्प्रवृत्तियों को अधिकाधिक पनपने का अवसर मिले। इसी प्रयास में प्राचीनकाल में कुछ लोग अपने जीवन के उत्सर्ग करते थे, उन्हें बड़ा माना जाता था और ब्राह्मण के सम्मानसूचक पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था। चूँकि सत्प्रवृत्तियों को पनपना संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है इसलिए उसमें लगे हुए व्यक्तियों को सम्मान भी मिलना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.73

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.13

👉 विशिष्ट प्रयोजन के लिये, विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज (भाग 4)

🔵 इन विषम परिस्थितियों में बहुमुखी समस्याओं की जड़े लोक मानस में अत्यन्त गहराई में घुसी हुई होने के कारण, युग परिवर्तन अतीव कठिन है। गुण, कर्म, स्वभाव लोक धारा को उलटना-समुद्र के खारी जल को हिमालय की सम्पदा बना देना कितना कठिन है उसे हर कोई नहीं समझ सकता। उसे भुक्तभोगी बादल ही जानते हैं कि उसमें कितना साहस करने कितना भार ढोने कितना उड़ना, और कितना त्याग करना पड़ता है। युग परिवर्तन के भावी प्रयासों को लगभग इसी स्तर का माना जाना चाहिए।

🔴 युग सन्धि की अत्यन्त महत्वपूर्ण वेला है। इन वर्षो में महान परिवर्तन होंगे और विकट समस्याओं को समाधान करना होगा। बुझते दीपक की लौ, प्रभाव से पूर्व की सघन तमिस्रा मरणासन्न की साँस, चींटी के उगते पंख, हारे जुआरी के दाव को देख कर, मरता सो क्या न करता की उक्ति को चरितार्थ होते प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। असुरता अपनी अन्तिम घड़ियों में जीवन-मरण की लड़ाई लड़ेगी और संकट, विक्रह अपेक्षाकृत अधिक बढ़ेंगे। इसी प्रकार देवत्व की प्रतिष्ठापना के लिए भी बीजारोपण के साथ प्रचंड उत्साह के साथ काम करने वाले किसान जैसी भूमिका की दर्शनीय होगी।

🔵 दोनों पक्ष एक दूसरे से सर्वथा विपरीत होते हुए भी परम साहसकिता का परिचय देंगे। एक दूसरे के साथ टकराने से भी पीछे न हटेंगे। साँड़ लड़ते हैं तो खेत खलिहानों को तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। युग परिवर्तन प्रसव पीड़ा जैसे कष्ट कारक होते हैं उसमें डाक्टरों, नर्सो की पूर्णतया जागरुक रहना पड़ता है। प्रसूता की तो जान पर ही बीतती है। उसकी सुरक्षा सान्त्वना में अतिरिक्त इन लोगों को नव जात शिशुओं के लिए आवश्यक सुविधाएँ भी पहले से ही जुटानी होती है।

🔴 युग संधि में दुहरे उत्तरदायित्व जागृत आत्माओं को सँभालने पड़ते हैं। विनाशकारी परिस्थितियों से जूझना और विकास के सृजन प्रयोजनों को सोचना। किसान और माली को भी यही करना पड़ता है। खर पतवार उखाड़ना-बेतुकी डालियों को काटना- पशु पक्षियों से फसल को रखाना जैसी प्रतिरोध सुरक्षा की जागरुकता दिखाने पर ही उनके पल्ले कुछ पड़ेगा अन्यथा परिश्रम निरर्थक चले जाने की आशंका बनी रहेगी। उन्हें एक मोर्चा सृजन का भी सँभालना पड़ता है। बीज-बोना, खाद देना, सिंचाई का प्रबन्ध करना, रचनात्मक काम है। इसकी उपेक्षा की जाय तो उत्पादन की आशा समाप्त होकर ही रहेगी। इसे दो मोर्चो पर दुधारी तलवार से लड़ने के समतुल्य माना जा सकता है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1980 पृष्ठ 47
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1980/February/v1.47

👉 आत्मचिंतन के क्षण 25 Aug 2017

🔴 साधारणतया मनुष्य दुख-सुख का कारण बाहरी वस्तुओं का संयोग एवं वियोग मानता है और इसी गलत धारण के कारण अनुकूल वस्तुओं व परिस्थितियों को उत्पन्न करने व जुटाने में एवं प्रतिकूल वस्तुओं को दूर करने में ही वह लगा रहता है। पर विचारकों ने यह देखा कि एक ही वस्तु की प्राप्ति से एक को सुख होता है और दूसरे को दुख। इतना ही नहीं परिस्थिति की भिन्नता हो तो एक ही वस्तु या बात एक समय में सुखकर प्रतीत होती हैं और अन्य समय में वही दुःखकर अनुभूत होती है इससे वस्तुओं का संयोग वियोग ही सुख-दुःख का प्रधान कारण नहीं कहा जा सकता और इसी के अनुसंधान में बाहरी दुखों एवं सुखों का समभाव रखने को महत्व दिया गया है।

🔵 आत्मोन्नति एकाँगी नहीं होती, केवल एक से ही वह पूरी नहीं हो सकती वरन् तत्संबन्धी सभी उपकरण जुटाने पड़ते हैं। पहलवान का इच्छुक व्यक्ति केवल मात्र व्यायाम पर जुटा रहे और पौष्टिक भोजन, तेल, मालिश, ब्रह्मचर्य, विश्राम आदि की उपेक्षा करे तो उसका सफल होना कठिन है। आत्मोन्नति के सुव्यवस्थित साधनों के संबंध में आध्यात्म विद्या के तत्वदर्शी आचार्य सदा से सावधान रहे हैं। उन्होंने अपने शिष्यों की सर्वांगीण उन्नति पर सदा से ही पूरा पूरा ध्यान रखा है और इस संबंध में बड़े नियमों प्रतिबंधों एवं उत्तरदायित्वों का शास्त्रों में अनेक प्रकार का वर्णन किया है। व्यवहारिक जीवन उदारता, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, लोक सेवा एवं स्वार्थ त्याग से ओत-प्रोत आचरणों का अधिकाधिक अवसर आना उन अवसरों पर अपना उत्तरदायित्व सफलतापूर्वक पूरा किया जाना प्रत्येक साधके के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

🔴 दूसरों के दुःख का असर होना इसको दया कहते हैं। अथवा दुःखी जीवों के प्रति जो प्रीति-भाव रखा जाता है, उसको दया कहते हैं। इस दयावृत्ति से संवेदना-शक्ति की उन्नति होती है। दयावृत्ति का भक्ति और प्रीति के साथ अतिघनिष्ठ सम्बन्ध है। जो मनुष्य प्राणीमात्र के अंतःकरण में ईश्वर का निवास मानकर भक्ति करता है वही सबसे प्रेम भाव रख सकता है, और उसी से दूसरों का दुःख नहीं देखा जाता। दूसरों के दुःख को देखकर उसको अपने अंतर में दुःख का असर होता है, जिससे तत्काल हृदय द्रवीभूत होकर अपने अंतर के दुःख की निवृत्ति के लिये दुःखी प्राणी की सहायता करने के लिये तत्पर होता है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मनस्वी लोक सेवक चाहिए (भाग 3)

🔵 बुद्ध धर्म के शून्यवाद ने जब वैदिक परम्पराओं को ग्रस लिया था तब साँस्कृतिक दुर्दशा पर महल के झरोखे में बैठी आँसू बहाती हुई राजकुमारी की आँखों का पानी सड़क पर चलते हुए कुमारिल भट्ट के ऊपर पड़ा। उसने ऊपर आँख उठा कर देखा और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा-को वेदान् उद्धरस्यसि? अर्थात् वेदों का उद्धार कौन करेगा? कुमारिल का पौरुष इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा कि मैं करूंगा? और सचमुच उस कर्मठ युवक ने वैदिक सभ्यता की रक्षा के लिए वह सब कुछ कर दिखाया जो कोई निष्ठावान व्यक्ति कर सकता है। आज विवाहों के अपव्यय ने भारतीय संस्कृति को उस घृणित एवं मरणोन्मुख परिस्थितियों में ला पटका है जिसमें कुछ दिन वह और पड़ी रही तो उसे अपनी मौत आप मर जाने के लिए ही विवश होना पड़ेगा। कुमारिल भट्ट की इस कुसमय की घड़ी में जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं रही।

🔴 यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा के नाम पर चारों ओर व्याप्त नृशंसता का उन्मूलन करने के लिए गौतम बुद्ध की आत्मा विद्रोह कर उठी थी, उनने तप करके जो शक्ति प्राप्त की, उसे समाज की तत्कालीन प्रवृत्तियों को बदलने में लगा दिया। आज यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा से बढ़ कर विवाहों के नाम पर होने वाले अपव्यय की क्रूर बलिवेदी लाखों कन्याओं के रक्त स्नान से अभिषिक्त होती रहती है। इस नृशंसता का उन्मूलन करने के लिए सहस्रों युद्धों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है पर सब ओर सन्नाटा देख कर ‘वीर विहीन मही’ होने की आशंका दिखाई पड़ने लगती है और भारतीय गौरव का मस्तक लज्जा से नीचा झुक जाता है।

🔵 युग-निर्माण के उपयुक्त अभिनव समाज रचना का महान अभियान आरम्भ करते हुए सबसे प्रथम यही आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि प्रत्येक जाति में ऐसे तेजस्वी युवक निकलें जो संगठन की प्रारम्भिक भूमिका का ढाँचा खड़ा करने में अपना समय लगावें और साहसपूर्वक कुछ काम कर गुजरने की लगन लेकर आगे बढ़ें। इसके लिए घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। आजीविका कमाते हुए, बच्चों का पालन करते हुए भी कोई व्यक्ति थोड़ा समय पारमार्थिक कामों में लगाता रहे तो उतने में भी सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य बहुत हद तक पूरा हो सकता है। पूरा समय दे सकने वाले प्रतिभाशाली लोग वानप्रस्थों की तरह देश धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा के लिए मिल सकें तब तो कहना ही क्या है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च1964 पृष्ठ 51-52

👉 आज का सद्चिंतन 26 Aug 2017


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