सोमवार, 12 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 8) 13 Dec
🌹 विभीषिकाओं के पीछे झाँकती यथार्थता
🔴 अहंकारी यदुवंशी आपस में ही लड़-मरकर खप गए थे। उन पर बाहर से कोई वज्रपात नहीं हुआ था। आग सबसे पहले उसी स्थान को जलाती है, जहाँ से वह प्रकट होती है। उद्दीप्त वासना, अनियंत्रित तृष्णा और उन्माद जैसी अहंकारिता का त्रिदोष, जब महाग्राह की तरह मानवी गरिमा को निगलता-गटकता चला जा रहा हो, तब बच सकने की आशा यत्किंचित ही शेष रह जाती है। वर्तमान में उफनते तूफानी अनाचार को देखते हुए लगता है कि सचमुच हम महाविनाश प्रलय-प्रक्रिया की ओर सरपट चाल से दौड़े चले जा रहे हैं।
🔵 प्रचण्ड प्रवाह को रोक सकने वाला बाँध विनिर्मित करने, जलधारा को नहरों के माध्यम से खेत-बगीचे तक पहुँचाने का काम तो निश्चय ही बड़ा कष्टसाध्य और श्रमसाध्य है। पर करने वाले जब प्राणपण से अपने पुरुषार्थ को सृजन की सदाशयता के साथ सम्बद्ध करते हैं तो उनकी साधना भी कम चमत्कारी परिणाम उत्पन्न नहीं करती। फरहाद, शीरी को पाने के लिए पहाड़ खोदकर लम्बी नहर निकाल सकने में, एकाकी प्रयासों के बलबूते ही सफल हो गया था। गंगा को स्वर्ग से घसीटकर जमीन पर बहने के लिए बाधित करने में भगीरथ अकेले ही सफल हो गए थे। व्यापक अन्धकार पर छोटा दीखने वाला सूरज ही विजय प्राप्त कर लेता है, अस्तु यह आशा भी की जा सकती है कि मनुष्य में उत्कृष्टता का उदय होगा, तो यह वातावरण भी बदल जाएगा, जो हर दृष्टि से भयंकर-ही-भयंकर दीख पड़ रहा है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 44)
🌹 विभूतिवान व्यक्ति यह करें
🔴 विशिष्ट प्रतिभावान व्यक्ति अपने विशेष व्यक्तित्व के द्वारा युग-निर्माण की दिशा में विशेष कार्य कर सकते हैं। कलाकारों का योग इस सम्बन्ध में विशेष रूप से अभीष्ट है। लेखक, कवि, वक्ता, संगीतज्ञ, चित्रकार, धनी, विद्वान, राजनीतिज्ञ, यदि चाहें तो अपनी विभूतियों का सदुपयोग करके नव-निर्माण के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। इस प्रकार के प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के सामने युग-निर्माण योजना निम्न सुझाव प्रस्तुत करती है:—
🔵 61. लेखकों और पत्रकारों से अनुरोध— देश की विभिन्न भाषाओं में जो लेखक और कवि आज कल लेखन कार्य में लगे हुए हैं, उनसे सम्पर्क बना कर यह प्रेरणा दी जाय कि वे युग-निर्माण की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखा करें। इसी प्रकार जो पुस्तक प्रकाशक एवं पत्रकार साहित्य प्रकाशन का कार्य हाथ में लिए हुए हैं, उन्हें मानव जीवन में प्रकाश भरने वाला साहित्य छापने की प्रेरणा की जाय। समाचार-पत्र एवं पुस्तक-विक्रेताओं से भी यही अनुरोध किया जाय कि उन वस्तुओं के विक्रय में विशेष ध्यान दें जो जन कल्याण के लिए उपयोगी एवं आवश्यक है। इसी प्रकार वर्तमान साहित्य क्षेत्र में लगे हुए लोगों से सम्पर्क स्थापित करके उन्हें युग की आवश्यकता पूर्ण करने की प्रेरणा दी जाय।
🔴 62. युग-साहित्य के नव निर्माता— इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में विशेष मनोयोग-पूर्वक युग की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए मिशनरी ढंग से काम करने वाले लेखकों एवं कवियों का एक विशेष वर्ग तैयार किया जाय जो साहित्य-निर्माण कार्य को अपना प्रधान सेवा-साधन बनाकर तत्परतापूर्वक इसी कार्य में लग सकें। ऐसे अनेक व्यक्ति मौजूद हैं जिनमें इस प्रकार की प्रतिभा और सेवा भावना पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, पर आवश्यक साधन, मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन न मिलने से वे अविकसित ही पड़े रहते हैं। अपना प्रयत्न ऐसे लोगों को संगठित एवं विकसित करने का हो। इस अभिरुचि एवं योग्यता के लोगों को ढूंढ़ना, उन्हें इकट्ठा करना और आवश्यक प्रशिक्षण देकर इस योग्य बनाना हमारा काम होगा कि वे कुछ ही दिनों में युग-निर्माता साहित्यकारों की एक भारी आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ में इस प्रतिभा के जो लोग होंगे उन्हें सर्व-प्रथम तैयार करेंगे और उनको आवश्यक शिक्षा देने के लिए जल्दी-जल्दी ही शिविरों की श्रृंखला आरम्भ करेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 विशिष्ट प्रतिभावान व्यक्ति अपने विशेष व्यक्तित्व के द्वारा युग-निर्माण की दिशा में विशेष कार्य कर सकते हैं। कलाकारों का योग इस सम्बन्ध में विशेष रूप से अभीष्ट है। लेखक, कवि, वक्ता, संगीतज्ञ, चित्रकार, धनी, विद्वान, राजनीतिज्ञ, यदि चाहें तो अपनी विभूतियों का सदुपयोग करके नव-निर्माण के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। इस प्रकार के प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के सामने युग-निर्माण योजना निम्न सुझाव प्रस्तुत करती है:—
🔵 61. लेखकों और पत्रकारों से अनुरोध— देश की विभिन्न भाषाओं में जो लेखक और कवि आज कल लेखन कार्य में लगे हुए हैं, उनसे सम्पर्क बना कर यह प्रेरणा दी जाय कि वे युग-निर्माण की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखा करें। इसी प्रकार जो पुस्तक प्रकाशक एवं पत्रकार साहित्य प्रकाशन का कार्य हाथ में लिए हुए हैं, उन्हें मानव जीवन में प्रकाश भरने वाला साहित्य छापने की प्रेरणा की जाय। समाचार-पत्र एवं पुस्तक-विक्रेताओं से भी यही अनुरोध किया जाय कि उन वस्तुओं के विक्रय में विशेष ध्यान दें जो जन कल्याण के लिए उपयोगी एवं आवश्यक है। इसी प्रकार वर्तमान साहित्य क्षेत्र में लगे हुए लोगों से सम्पर्क स्थापित करके उन्हें युग की आवश्यकता पूर्ण करने की प्रेरणा दी जाय।
🔴 62. युग-साहित्य के नव निर्माता— इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में विशेष मनोयोग-पूर्वक युग की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए मिशनरी ढंग से काम करने वाले लेखकों एवं कवियों का एक विशेष वर्ग तैयार किया जाय जो साहित्य-निर्माण कार्य को अपना प्रधान सेवा-साधन बनाकर तत्परतापूर्वक इसी कार्य में लग सकें। ऐसे अनेक व्यक्ति मौजूद हैं जिनमें इस प्रकार की प्रतिभा और सेवा भावना पर्याप्त मात्रा में मौजूद है, पर आवश्यक साधन, मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन न मिलने से वे अविकसित ही पड़े रहते हैं। अपना प्रयत्न ऐसे लोगों को संगठित एवं विकसित करने का हो। इस अभिरुचि एवं योग्यता के लोगों को ढूंढ़ना, उन्हें इकट्ठा करना और आवश्यक प्रशिक्षण देकर इस योग्य बनाना हमारा काम होगा कि वे कुछ ही दिनों में युग-निर्माता साहित्यकारों की एक भारी आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ में इस प्रतिभा के जो लोग होंगे उन्हें सर्व-प्रथम तैयार करेंगे और उनको आवश्यक शिक्षा देने के लिए जल्दी-जल्दी ही शिविरों की श्रृंखला आरम्भ करेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 14)
🌹 तीन दुःख और उनका कारण
🔵 शरीर द्वारा किए हुए चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा, आदि में मन ही प्रमुख है। हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है वरन् मन के आवेश की पूर्ति है, इसलिए इस प्रकार के कार्य, जिनके करते समय इंद्रियों को सुख न पहुँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं। ऐसे पापों का फल मानसिक दुःख होता है। स्त्री-पुत्र आदि प्रियजनों की मृत्यु, धन-नाश, लोक निंदा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दुःख हैं, उनसे मनुष्य की मानसिक वेदना उमड़ पड़ती है, शोक संताप उत्पन्न होता है, दुःखी होकर रोता-चिल्लाता है, आँसू बहाता है, सिर धुनता है।
🔴 इससे वैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है। देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि जीवन का सदुपयोग करना चाहिए। धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमण्ड चूर हो जाता है। नशा उतर जाने पर वह होश की बात करता है, मानसिक दुःखों का एकमात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईर्ष्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, दम्भ, घमण्ड की सफाई करना होता है। दुःख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाय। पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत्य प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिए प्रकट होती है।
🔵 दैविक-मानसिक कष्टों का कारण समझ लेने के उपरांत अब दैहिक-शारीरिक कष्टों का कारण समझना चाहिए। जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगों का कारण पूर्व जन्म में उन अंगों का दुरुपयोग करना है। मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है। नवीन शरीर की रचना इस सूक्ष्म शरीर द्वारा होती है । इस जन्म में जिस अंग का दुरुपयोग किया जा रहा है, वह अंग सूक्ष्म शरीर में अत्यंत निर्बल हो जाता है, जैसे कोई व्यक्ति अति मैथुन करता हो, तो सूक्ष्म शरीर का वह अंग निर्बल होने लगेगा, फलस्वरुप सम्भव है कि वह अगले जन्म में नपुंसक हो जाय। यह नपुंसकता केवल कठोर दण्ड नहीं है, वरन् सुधार का एक उत्तम तरीका भी है।
🔴 कुछ समय तक उस अंग को विश्राम मिलने से आगे के लिए वह सचेत और सक्षम हो जाएगा। शरीर के अन्य अंगों के शारीरिक लाभ के लिए पापपूर्ण, अमर्यादित, अपव्यय करने पर आगे के जन्म में वे अंग जन्म से ही निर्बल या नष्ट प्रायः होते हैं। शरीर और मन के सम्मिलित पापों के शोधन के लिए जन्मजात रोग मिलते हैं। या बालक अंग-भंग उत्पन्न होते हैं। अंग-भंग या निर्बल होने से उस अंग को अधिक काम नहीं करना पड़ता, इसलिए सूक्ष्म शरीर का वह अंग विश्राम पाकर अगले जन्म के लिए फिर तरोताजा हो जाता है, साथ ही मानसिक दुःख मिलने से मन का पाप-भार भी धुल जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/theen.2
🔵 शरीर द्वारा किए हुए चोरी, डकैती, व्यभिचार, अपहरण, हिंसा, आदि में मन ही प्रमुख है। हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है वरन् मन के आवेश की पूर्ति है, इसलिए इस प्रकार के कार्य, जिनके करते समय इंद्रियों को सुख न पहुँचता हो, मानसिक पाप कहलाते हैं। ऐसे पापों का फल मानसिक दुःख होता है। स्त्री-पुत्र आदि प्रियजनों की मृत्यु, धन-नाश, लोक निंदा, अपमान, पराजय, असफलता, दरिद्रता आदि मानसिक दुःख हैं, उनसे मनुष्य की मानसिक वेदना उमड़ पड़ती है, शोक संताप उत्पन्न होता है, दुःखी होकर रोता-चिल्लाता है, आँसू बहाता है, सिर धुनता है।
🔴 इससे वैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं और भविष्य में अधर्म न करने एवं धर्म में प्रवृत्त रहने की प्रवृत्ति बढ़ती है। देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि जीवन का सदुपयोग करना चाहिए। धन नाश होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमण्ड चूर हो जाता है। नशा उतर जाने पर वह होश की बात करता है, मानसिक दुःखों का एकमात्र उद्देश्य मन में जमे हुए ईर्ष्या, कृतघ्नता, स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, दम्भ, घमण्ड की सफाई करना होता है। दुःख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाय। पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत्य प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिए प्रकट होती है।
🔵 दैविक-मानसिक कष्टों का कारण समझ लेने के उपरांत अब दैहिक-शारीरिक कष्टों का कारण समझना चाहिए। जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगों का कारण पूर्व जन्म में उन अंगों का दुरुपयोग करना है। मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है। नवीन शरीर की रचना इस सूक्ष्म शरीर द्वारा होती है । इस जन्म में जिस अंग का दुरुपयोग किया जा रहा है, वह अंग सूक्ष्म शरीर में अत्यंत निर्बल हो जाता है, जैसे कोई व्यक्ति अति मैथुन करता हो, तो सूक्ष्म शरीर का वह अंग निर्बल होने लगेगा, फलस्वरुप सम्भव है कि वह अगले जन्म में नपुंसक हो जाय। यह नपुंसकता केवल कठोर दण्ड नहीं है, वरन् सुधार का एक उत्तम तरीका भी है।
🔴 कुछ समय तक उस अंग को विश्राम मिलने से आगे के लिए वह सचेत और सक्षम हो जाएगा। शरीर के अन्य अंगों के शारीरिक लाभ के लिए पापपूर्ण, अमर्यादित, अपव्यय करने पर आगे के जन्म में वे अंग जन्म से ही निर्बल या नष्ट प्रायः होते हैं। शरीर और मन के सम्मिलित पापों के शोधन के लिए जन्मजात रोग मिलते हैं। या बालक अंग-भंग उत्पन्न होते हैं। अंग-भंग या निर्बल होने से उस अंग को अधिक काम नहीं करना पड़ता, इसलिए सूक्ष्म शरीर का वह अंग विश्राम पाकर अगले जन्म के लिए फिर तरोताजा हो जाता है, साथ ही मानसिक दुःख मिलने से मन का पाप-भार भी धुल जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/theen.2
👉 गृहस्थ-योग (भाग 31) 12 Dec
🌹 गृहस्थ योग के कुछ मन्त्र
🔵 साधक सोचता है, इतने दिन से प्रयत्न कर रहा हूं, पर स्वभाव पर विजय ही नहीं मिलती, नित्य गलतियां होती है, ऐसी दशा में साधना चल नहीं सकती। कभी सोचता है हमारे घर वाले उजड्ड, गंवार, मूर्ख और कृतघ्न हैं यह लोग मुझे परेशान और उत्तेजित करते हैं और मेरे जीवन को साधना की नियत दिशा में चलने देते तो साधन व्यर्थ है, इस प्रकार के निराशाजनक विचारों से प्रेरित होकर वह अपने व्रत को छोड़ देता है।
🔴 उपरोक्त कठिनाई से हर साधक को आगाह हो जाना चाहिए। मनुष्य स्वभाव में त्रुटियां और कमजोरियां रहना निश्चित है। जिस दिन मनुष्य पूर्ण रूपेण त्रुटियों से परे हो जायेगा उसी दिन वह परम पद को प्राप्त कर लेगा, जीवन मुक्त हो जायेगा। जब तक उस मंजिल तक नहीं पहुंच जाता, जब तक मनुष्य योनि में है, देव योनि से पीछे है, तब तक यही मानना पड़ेगा कि मनुष्य त्रुटिपूर्ण हैं। जहां कई ऐसे व्यक्तियों का सम्मिलन है जिसमें कोई तो आध्यात्मिक भूमिका में बहुत आगे, कोई बहुत पीछे है ऐसे क्षेत्र में नित नई त्रुटियों का कठिनाइयों का सामने आना स्वाभाविक है। इन में से कुछ अपनी गलती के कारण उत्पन्न हुई होंगी कुछ अन्यों की गलती से।
🔵 यह क्रम धीरे दूर होता जाता है पर यह कठिन है कि अपना परिवार पूर्ण रूपेण देव परिवार हो जाय, इसके लिए बहुत कठिनाई से डरने घबराने या विचलित होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। समाज का अर्थ ही— ‘‘त्रुटियों के सुधार का अभ्यास’’ है। अभ्यास को निरन्तर जारी रखना चाहिए। योगीजन नित्य प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा-ध्यान आदि की साधना करते हैं, क्योंकि उनको मनोभूमि अभी दोषपूर्ण है, जिस दिन उनके दोष सर्वथा समाप्त हो जायेंगे उसी दिन, उसी क्षण वे ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त कर लेंगे।
🔴 दोषों का सर्वथा अभाव, यह अन्तिम सीढ़ी का सिद्ध अवस्था का लक्षण है। वहां तक पहुंच जाने पर तो कुछ करना ही बाकी नहीं रह जाता। साधकों को यह आशा न करनी चाहिये कि थोड़े ही समय में इच्छित भावनाएं पूर्ण रूप से क्रिया में आ जायेंगी। विचार क्षण भर में बन जाता है पर उसे संस्कार का रूप धारण करने में बहुत समय लगता है हथेली पर सरसों नहीं जमती। पत्थर पर निशान करने के लिए रस्सी की रगड़ बहुत समय तक जारी रहनी चाहिए। स्मरण रखिए से सर्वथा मुक्ति—लक्ष है, ध्येय है, सिद्ध अवस्था है। साधक का आरंभिक लक्षण यह नहीं है। आम का पौधा उगते ही यदि मीठे आम तोड़ने के लिए उसके पत्तों को टटोलेंगे तो मनोकामना पूर्ण न होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 साधक सोचता है, इतने दिन से प्रयत्न कर रहा हूं, पर स्वभाव पर विजय ही नहीं मिलती, नित्य गलतियां होती है, ऐसी दशा में साधना चल नहीं सकती। कभी सोचता है हमारे घर वाले उजड्ड, गंवार, मूर्ख और कृतघ्न हैं यह लोग मुझे परेशान और उत्तेजित करते हैं और मेरे जीवन को साधना की नियत दिशा में चलने देते तो साधन व्यर्थ है, इस प्रकार के निराशाजनक विचारों से प्रेरित होकर वह अपने व्रत को छोड़ देता है।
🔴 उपरोक्त कठिनाई से हर साधक को आगाह हो जाना चाहिए। मनुष्य स्वभाव में त्रुटियां और कमजोरियां रहना निश्चित है। जिस दिन मनुष्य पूर्ण रूपेण त्रुटियों से परे हो जायेगा उसी दिन वह परम पद को प्राप्त कर लेगा, जीवन मुक्त हो जायेगा। जब तक उस मंजिल तक नहीं पहुंच जाता, जब तक मनुष्य योनि में है, देव योनि से पीछे है, तब तक यही मानना पड़ेगा कि मनुष्य त्रुटिपूर्ण हैं। जहां कई ऐसे व्यक्तियों का सम्मिलन है जिसमें कोई तो आध्यात्मिक भूमिका में बहुत आगे, कोई बहुत पीछे है ऐसे क्षेत्र में नित नई त्रुटियों का कठिनाइयों का सामने आना स्वाभाविक है। इन में से कुछ अपनी गलती के कारण उत्पन्न हुई होंगी कुछ अन्यों की गलती से।
🔵 यह क्रम धीरे दूर होता जाता है पर यह कठिन है कि अपना परिवार पूर्ण रूपेण देव परिवार हो जाय, इसके लिए बहुत कठिनाई से डरने घबराने या विचलित होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। समाज का अर्थ ही— ‘‘त्रुटियों के सुधार का अभ्यास’’ है। अभ्यास को निरन्तर जारी रखना चाहिए। योगीजन नित्य प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा-ध्यान आदि की साधना करते हैं, क्योंकि उनको मनोभूमि अभी दोषपूर्ण है, जिस दिन उनके दोष सर्वथा समाप्त हो जायेंगे उसी दिन, उसी क्षण वे ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त कर लेंगे।
🔴 दोषों का सर्वथा अभाव, यह अन्तिम सीढ़ी का सिद्ध अवस्था का लक्षण है। वहां तक पहुंच जाने पर तो कुछ करना ही बाकी नहीं रह जाता। साधकों को यह आशा न करनी चाहिये कि थोड़े ही समय में इच्छित भावनाएं पूर्ण रूप से क्रिया में आ जायेंगी। विचार क्षण भर में बन जाता है पर उसे संस्कार का रूप धारण करने में बहुत समय लगता है हथेली पर सरसों नहीं जमती। पत्थर पर निशान करने के लिए रस्सी की रगड़ बहुत समय तक जारी रहनी चाहिए। स्मरण रखिए से सर्वथा मुक्ति—लक्ष है, ध्येय है, सिद्ध अवस्था है। साधक का आरंभिक लक्षण यह नहीं है। आम का पौधा उगते ही यदि मीठे आम तोड़ने के लिए उसके पत्तों को टटोलेंगे तो मनोकामना पूर्ण न होगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 31) 12 Dec
🌹 क्रोध स्वयं अपने लिए ही घातक
🔵 आवेशग्रस्त लोगों का एक और भी तरीका है कि वे आत्महत्या या पलायन की बात सोचते हैं और यह कल्पना करते हैं कि उनके न रहने पर प्रतिपक्षी को कितनी व्यथा सहनी पड़ेगी या कठिनाई उठाने पड़ेगी? जिनको आक्रमण की अपेक्षा आत्मघात सरल प्रतीत होता है वे उस रीति को अपना लेते हैं और जो भी तरीका समझ में आता है उससे आत्मघात कर बैठते हैं।
🔴 हत्या या आत्महत्या मनुष्य के हेय व्यक्तित्व का उभार है। मनुष्य में श्रेष्ठता और दुष्टता दोनों के अंश होते हैं। प्रयत्नपूर्वक उसकी करुणा और सहृदयता भी जगाई जा सकती है, जिससे प्रेरित होकर वह सेवा-सहायता जैसी सत्प्रवृत्तियां भी अपना सकता है, पर इसके लिए जन्मजात संस्कार ही नहीं वातावरण और प्रशिक्षण भी ऐसा मिलना चाहिए जिसके प्रभाव से सज्जनता उभरे। ऐसे छोटे-छोटे काम उसे आरम्भ में ही सौंपे जाय, जिसके सहारे सहानुभूति और संवेदना उभरे तथा निजी महत्वाकांक्षाओं के आवेशों पर नियन्त्रण करने का अभ्यास पड़े।
🔵 इसके विपरीत जिन्हें दुश्चिंतन का आधार मिलता है उन्हें कुकर्मियों के दुस्साहसों में शौर्य-पराक्रम ढूंढ़ने की आदत पड़ जाती है। वह दुर्बलों पर अनीति बरतते-बरतते इतने निष्ठुर हो जाते हैं जो दूसरों का अहित करने की तरह अपने आपको भी प्रतिशोध और आत्म प्रताड़ना का दुहरा काम सहने के लिए बाधित करे—इस मार्ग पर आने की रोकथाम किशोरावस्था में ही करनी चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 आवेशग्रस्त लोगों का एक और भी तरीका है कि वे आत्महत्या या पलायन की बात सोचते हैं और यह कल्पना करते हैं कि उनके न रहने पर प्रतिपक्षी को कितनी व्यथा सहनी पड़ेगी या कठिनाई उठाने पड़ेगी? जिनको आक्रमण की अपेक्षा आत्मघात सरल प्रतीत होता है वे उस रीति को अपना लेते हैं और जो भी तरीका समझ में आता है उससे आत्मघात कर बैठते हैं।
🔴 हत्या या आत्महत्या मनुष्य के हेय व्यक्तित्व का उभार है। मनुष्य में श्रेष्ठता और दुष्टता दोनों के अंश होते हैं। प्रयत्नपूर्वक उसकी करुणा और सहृदयता भी जगाई जा सकती है, जिससे प्रेरित होकर वह सेवा-सहायता जैसी सत्प्रवृत्तियां भी अपना सकता है, पर इसके लिए जन्मजात संस्कार ही नहीं वातावरण और प्रशिक्षण भी ऐसा मिलना चाहिए जिसके प्रभाव से सज्जनता उभरे। ऐसे छोटे-छोटे काम उसे आरम्भ में ही सौंपे जाय, जिसके सहारे सहानुभूति और संवेदना उभरे तथा निजी महत्वाकांक्षाओं के आवेशों पर नियन्त्रण करने का अभ्यास पड़े।
🔵 इसके विपरीत जिन्हें दुश्चिंतन का आधार मिलता है उन्हें कुकर्मियों के दुस्साहसों में शौर्य-पराक्रम ढूंढ़ने की आदत पड़ जाती है। वह दुर्बलों पर अनीति बरतते-बरतते इतने निष्ठुर हो जाते हैं जो दूसरों का अहित करने की तरह अपने आपको भी प्रतिशोध और आत्म प्रताड़ना का दुहरा काम सहने के लिए बाधित करे—इस मार्ग पर आने की रोकथाम किशोरावस्था में ही करनी चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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