मंगलवार, 19 सितंबर 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 69)

🌹  ‘‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।  

🔴 युग निर्माण की योजना का श्री गणेश हमें अपने आप से आरंभ करना चाहिए। वर्तमान नारकीय परिस्थितियों को भावी सुख-शान्तिमयी स्वर्गीय वातावरण में बदलने के लिए चिंतन ही एकमात्र वह केन्द्र बिन्दु है, जिसके आधार पर व्यक्ति की दिशा, प्रतिभा, क्रिया, स्थिति एवं प्रगति पूर्णतया निर्भर है। चिंतन की उत्कृष्टता, निकृष्टता के आधार पर व्यक्ति, देव और असुर बनता है। स्वर्ग और नरक का सृजन पूर्णतया मनुष्य के अपने हाथ में है। अपने भाग्य और भविष्य का निर्माण हर कोई स्वयं ही करता है। उत्थान एवं पतन की कुँजी चिंतन की दिशा को ही माना गया है।
   
🔵 हमें अपनी परिस्थितियाँ यदि उत्कृष्ट स्तर की अभीष्ट हों तो इसके लिए एक अनिवार्य शर्त यह है कि अपने चिंतन की धारा निकृष्टता की दिशा में प्रवाहित होने से रोककर उसे उत्कृष्टता की ओर मोड़ दें। यह मोड़ ही हमारे स्तर, स्वरूप और परिस्थितियों को बदलने में समर्थ हो सकता है। चिंतन निकृष्ट स्तर का हो और हम महानता वरण कर सकें, यह संभव नहीं। संकीर्ण और स्वार्थी लोग अनीति से कुछ पैसे भले ही इकट्ठे कर लें, पर उन विभूतियों से सर्वथा वंचित ही बने रहेंगे, जो व्यक्तित्व को प्रखर और परिस्थितियों को सुख-शांति से भरी संतोषजनक बना सकती है।
 
🔴 समाज व्यक्तियों के समूह का नाम है। व्यक्ति जैसे होंगे समाज वैसा ही बन जाएगा। लोग जैसे होंगे वैसा ही समाज एवं राष्ट्र बनेगा। दीन दुर्बल स्तर की जनता कभी समर्थ और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकती। धर्म, शासन, व्यवसाय, उद्योग, चिकित्सा, शिक्षा, कला आदि सभी क्षेत्रों का नेतृत्व जनता के ही आदमी करते हैं। जन-मानस का उत्तर गिरा हुआ हो तो ऊँचे, अच्छे, समर्थ और सजीव व्यक्तित्व नेतृत्व के लिए कहाँ से आएँगे?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.98

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.18

👉 सर्वपितृ अमावस्या

🔵 पितृ-पक्ष का हिन्दू-धर्म और हिन्दू-संस्कृति में बड़ा महत्व है। जो पितरों के नाम पर श्राद्ध और पिण्डदान नहीं करता, वह सनातन धर्मी हिन्दू माना नहीं जा सकता। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार मृत्यु होने पर मनुष्य का जीवात्मा चन्द्रलोक की तरफ जाता है और ऊंचा उठकर पितृ-लोक में पहुंचता है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुंचने की शक्ति प्रदान करने के लिए पिण्डदान और श्राद्ध का विधान किया गया है। श्राद्ध पितरों के नाम पर ब्राह्मण-भोजन भी कराया जाता है। इसके पुण्य-फल से भी पितरों का संतुष्ट होना माना गया है। धर्म-शास्त्रों में यह भी कहा है कि जो मनुष्य श्राद्ध करता है वह पितरों के आशीर्वाद से आयु, पुत्र, यश, बल, वैभव, सुख और धन-धान्य को प्राप्त होता है। इसीलिये धर्म-प्राण हिन्दू आश्विन मास के कृष्ण पक्ष भर प्रतिदिन नियम पूर्वक स्नान करके पितरों का तर्पण करते हैं। जो दिन उनके पिता की मृत्यु का होता है, उस दिन अपनी शक्ति के अनुसार दान करके ब्राह्मण-भोजन कराते हैं।

🔴 एक समय इस देश में श्राद्ध-कर्म का इतना प्रचार था कि उसके ध्यान में लोग अपने तन-बदल की सुधि भूल जाते थे। उन्हें बाल बनवाने, तेल लगाने, पान खाने आदि का भी अवकाश न मिलता था। उसी बात के चिह्न स्वरूप आज प्रायः सभी हिन्दू, चाहे वे श्राद्ध करने वाले न भी हों, इन कार्यों से पृथक रहना धर्मानुकूल मानते हैं। वैसे जिन लोगों के पिता स्वर्गवासी हो गये हैं, वे अमावस्या तक और जिनकी माता स्वर्गवासी हो गई हैं, वे मातृ-नवमी तक न तो बाल बनवाते हैं और न तेल लगाते हैं।

🔵 पितरों का पिण्डदान करने का सबसे बड़ा स्थान गया माना जाता है और जनता में ऐसी मान्यता है कि गया में पितरों को पिण्डदान कर देने पर फिर प्रति वर्ष पिण्ड देने की आवश्यकता नहीं रहती। यह भी कहते हैं कि महाराज रामचन्द्रजी ने गया आकर फल्गू किनारे अपने मृत पिता महाराज दशरथ का पिण्डदान किया था। कुछ भी हो इस प्रथा से इतना प्रत्यक्ष जान पड़ता है कि हिन्दुओं की सभ्यता प्राचीन काल में काफी ऊंचे दर्जे तक पहुंच चुकी थी और जीवित माता-पिता की सेवा करना ही अपना परम धर्म नहीं मानते थे, वरन् उनके मरने पर भी उनकी स्मृति-रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे और इसके लिए 15 दिन का समय अलग दिया था। हिन्दुओं की इस प्रथा की प्रशंसा अन्य लोगों ने भी की। हिन्दुस्तान के मुगल सम्राट शाहजहां ने, जब उसे उसके लड़के औरंगजेब को लिखा था कि ‘‘तुम से तो हिन्दू लोग ही बहुत अच्छे हैं जो मरने के बाद भी अपने पिता को जल और भोजन देते हैं तू तो अपने जीवित पिता को भी दाना-पानी के बिना तरसा रहा है।’’

🔴 इस विषय पर विशेष विचार करने से यही प्रतीत होता है कि पितृ-पक्ष का महत्व इस बात में नहीं है कि हम श्राद्ध-कर्म को कितनी धूम-धाम से मनाते हैं और कितने अधिक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, वरन् उसका वास्तविक महत्व यह है कि हम अपने पितामह आदि गुरुजनों की जीवितावस्था में ही कितनी सेवा-सुश्रूषा, आज्ञापालन करते हैं। चाहे अन्य लोग इसका कुछ भी अर्थ क्यों न लगावें, पर हम तो यही कहेंगे कि जो व्यक्ति अपने जीवित पिता-माता आदि की सेवा नहीं करते, उल्टा उनको दुख पहुंचाते हैं, या उनका अपमान करते हैं, बाद में उनका पिण्डदान और श्राद्ध करना कोरा ढोंग है और उसका कोई परिणाम नहीं। क्योंकि अगर हमारे श्राद्ध का फल पितरों तक सूक्ष्म रूप से पहुंचता भी है तो वह तभी संभव है जब हम सच्ची भावना और एकाग्र चित्त से उस कार्य को करें। पर जो लोग जन्म भर अपने पिता-माता को हर तरह से कष्ट पहुंचाते रहे, उनको भला-बुरा कहते रहे, वे फिर किस प्रकार श्रद्धा और हार्दिक भावना से श्राद्ध आदि कर्म कर सकते हैं?

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/pitaron_ko_shraddha_den_ve_shakti_denge/v1.91

👉 ज्ञान प्रधान धर्मशास्त्र

🔴 बड़े-बड़े धर्मवक्ता आपने देखे होंगे और उनके व्याख्यान सुने होंगे। सोचना चाहिए कि उनके शब्दों का अनुकरण उनका हृदय कहाँ तक करता है? वे अपने अन्तःकरण के भावों को यदि स्पष्टतया प्रकट करने लगें तो आप निश्चय समझिए कि उनमें से अधिकाँश लोगों को ‘नास्तिक’ कहना पड़ेगा। वे अपने बुद्धि को चाहे जितनी भगतिन बनावें, वह उनसे यही कहेगी कि “किसी पुस्तक में लिखा है या किसी महापुरुष ने कहा है इसलिये मैं उस पर बिना विचार किये विश्वास क्योंकर करूं? दूसरे भले ही अन्धश्रद्धा के अधीन हो जायँ, मैं कभी फँसने वाली नहीं।” इधर जाते हैं तो खाई और उधर जाते हैं तो अथाह समुद्र है। यदि धर्मोपदेशक या धर्मग्रन्थों का कहना मानो तो विवेचक बुद्धि बाधा डालती है और न मानो तो लोग उपहास करते हैं, ऐसी अवस्था में लोग उदासीनता की शरण लेते हैं।

🔵 जिन्हें आप धार्मिक कहते हैं, उनमें से अधिकाँश लोग उदासीन अथवा तटस्थ हैं और इसका कारण धर्म पर यथार्थ विचार न करना ही है। धर्म की उदासीनता यदि ऐसी बढ़ती ही जायगी और लोग धर्माचरण के लाभों से अनभिज्ञ ही बने रहेंगे तो धर्म की पुरानी इमारत भौतिक-शास्त्रों के एक ही अघात में हवाई किले की तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जायगी। भौतिक शास्त्र जिस प्रकार विवेक बुद्धि की भट्टी से निकलकर अपनी सत्यता सिद्ध करते हैं उसी प्रकार धर्म शास्त्र को भी अपने सिद्धान्तों की सत्यता संसार के सामने सप्रमाण सिद्ध कर देनी चाहिये। ऐसा करने पर बुद्धि के तीव्र ताप से यदि धर्मतत्व गल-पच भी जायेंगे तो भी हमारी कोई हानि नहीं है। जिसे आज तक हम रत्न समझे हुये थे, वह पत्थर निकला। उसके नष्ट होने का हमें दुःख क्या? अन्ध-परम्परा से उसे सिर पर लादे रहना ही मूर्खता है।

🔴 मेरी समझ में ऐसे सन्दिग्ध पत्थरों की जहाँ तक शीघ्र हो, परीक्षा कर व्यवस्था से लगा देना ही अच्छा है। यदि धर्मतत्व सत्य होंगे तो वे भट्टी में कभी न जलेंगे, उलटे वे ही असत्य पदार्थ भस्म हो जायेंगे जिनके मिश्रण से सत्यधर्म में सन्देह होने लगा है। आग में तपाने से सोना मलीन नहीं किंतु अधिक उज्ज्वल हो जाता है। विवेक बुद्धि की भट्टी में सत्य धर्म को डालने से उसके नष्ट होने का कोई भय नहीं है किन्तु ऐसा करने से उसकी योग्यता और भी बढ़ जायगी तथा उसका उच्च स्थान सर्वदा बना रहेगा। पदार्थ विज्ञान और रसायन शास्त्रों की तरह धर्मशास्त्र भी प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध करना चाहिये। यदि कर्मेन्द्रियों की अपेक्षा ज्ञानेन्द्रियों की योग्यता अधिक है तो जड़ (भौतिक) शास्त्रों पर ज्ञान-प्रधान धर्मशास्त्र की विजय क्योंकर न होगी? भौतिक शास्त्रों की सिद्धि तो इन्द्रियों के भरोसे है और धर्मशास्त्रों की सिद्धि अन्तरात्मा से सम्बन्ध रखती है, फिर क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि हम इसी आवश्यक और प्रधान शास्त्र की सिद्धि का पहले यत्न करें?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 श्री स्वामी विवेकानन्द जी
🌹 अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1952 पृष्ठ 4
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1952/September/v1.4

👉 आज का सद्चिंतन 19 Sep 2017


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