परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद
कान्ट, हेगल, प्लेटो एरिस्टाटल आदि प्रकृति विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि एक ऐसी सत्ता है, जो ब्रह्माण्ड की रचयिता है या स्वयं ब्रह्माण्ड है किन्तु इनमें से किसी ने भी पूर्ण विचार देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। संसार में जितने भी धर्म है, वह सब ईश्वरीय अस्तित्व को मानते हैं। प्रत्येक धर्म अपने ब्रह्म के प्रतिपादन में अनेक प्रकार के सिद्धान्त और कथायें प्रस्तुत करते हैं, किन्तु उस सत्ता का सविवेक प्रदर्शन इनमें से कोई नहीं कर सकता, तथापि वे उच्च सत्ता की सर्वशक्तिमत्ता पर अविश्वास नहीं करते।
ईश्वर सम्बन्धी अनुसन्धान की वैज्ञानिक प्रक्रिया डार्विन से प्रारम्भ होती है। डार्विन एक महान् जीव-शास्त्री थे, उन्होंने देश-विदेश के प्राणियों, पशुओं और वनस्पतियों का गहन अध्ययन किया और 1859 एवं 1871 में प्रकाशित अपने दो ग्रन्थों में यह सिद्धान्त स्थापित किया कि संसार के सभी जीव एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। उन्होंने बताया—संसार में जीवों की जितनी भी जातियां और उपजातियां हैं, उनमें बड़ी विलक्षण समानतायें और असमानतायें हैं। समानता यह कि उन सभी की रचना एक ही प्रकार के तत्व से हुई है और असमानता यह है, उनकी रासायनिक बनावट सबसे अलग-अलग है। अनुवांशिकता का आधार रासायनिक स्थिति है, उसकी प्रतिक्रिया में भाग लेने वाली क्षमता चाहे कितनी सूक्ष्म क्यों न हो।
इसके बाद मेंडल, हालैण्ड के ह्यूगो दव्री ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग किये और यह पाया कि जीव में अनुवांशिक-विकास माता-पिता के सूक्ष्म गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैण्ड) के डा. फ्रांसिस क्रिक ने भी अनेक प्रयोगों द्वारा शरीर के कोशों (सेल्स) की भीतरी बनावट का विस्तृत अध्ययन किया और गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) की खोज की। जीन्स (गुण सूत्रों में एक प्रकार की गांठें) उसी की विस्तृत खोज का परिणाम थीं। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य शरीर में डोरे की शक्ल में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को यदि खींचकर बढ़ा दिया जाये तो उससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नापा जा सकता है। बस इससे अधिक और मूलस्रोत की जानकारी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये तब से उनकी खोजों की दिशा और ही है। उस एक अक्षर, अविनाशी और सर्वव्यापी तत्व के गुणों का पता लगाना उनके लिये सम्भव न हुआ, जो प्रत्येक अणु में सृजन या विनाश की क्रिया में भाग लेता है। हां इतना अवश्य हुआ कि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि—(1) सारा जीव जगत् एक ही तत्व से विकसित हुआ है, (2) गुणों के आधार पर जीवित शरीरों का विकास होता है।
यद्यपि यह जानकारियां अभी नितान्त अपूर्ण हैं तो भी उनसे मनुष्य को सत्य की यथार्थ जानकारी के लिए प्रेरणा अवश्य मिलती है। ‘कटेम्प्रेरी थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन’ के विद्वान् लेखक ए.एन. विडगरी लिखते हैं—‘‘वे तत्व जो जीवन का निर्माण करते हैं और जिनकी वैज्ञानिकों ने जानकारी की है, उनमें यथार्थ मूल्यांकन के अनुपात में बहुत कमी है, आज आवश्यकता इस बात की है कि सांसारिक अस्तित्व से भी अधिक विशाल मानवीय अस्तित्व क्या हैं, इसका पता लगाया जाये। विज्ञान से ही नहीं, बौद्धिक दृष्टि से भी उसकी खोज की जानी चाहिए। हमारा भौतिक अस्तित्व अर्थात् हमारे शरीर की रचना और इससे सम्बन्धित संस्कृति का मानव के पूर्ण अस्तित्व से कोई तालमेल नहीं है। इससे हमारी भावनात्मक सन्तुष्टि नहीं हो सकती, इसलिये हमें जीवन के मूलस्रोत की खोज करनी पड़ेगी। अपने अतीत और भविष्य के बीच थोड़ा-सा वर्तमान है, क्या हमें उतने से ही सन्तोष मिल सकता है, हमें अपने अतीत की स्थिति और भविष्य में हमारी चेतना का क्या होगा, हम संसार में क्यों हैं और क्या कुछ ऐसे आधार हैं जिनसे बंधे होने के कारण हम संसार में हैं, इनकी खोज होनी चाहिये।’’ इन पंक्तियों में वही बात प्रतिध्वनित होती है, जो ऊपर कही गई है। विज्ञान ने निष्कर्ष भले ही न दिया हो पर उसने जिज्ञासा देकर मनुष्य का कल्याण ही किया है। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ ब्रह्म की पहचान के लिये हम तभी तत्पर होते हैं, जब उस मूलस्रोत के प्रति हमारी जिज्ञासा जाग पड़ती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७७
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी