ईमानदारी का तकाजा है कि देशवासियों के औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोकमंगल के लिए लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता, बढ़ी हुई कमाई को ऐय्याशी में, बड़प्पन के अहंकारी प्रदर्शन में खर्च किया जाता है अथवा बेटे पोतों के लिए जोड़ा-जमा किया जाता है, तो ऐसा कर्त्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जाएगा।
हमारी अभिलाषा यह है कि अपने स्वजन-परिजनों को नव निर्माणों के लिए कुछ करने के लिए कहते-सुनते रहने का अभ्यस्त मात्र न बना दें, वरन् कुछ तो करने के लिए उनमें सक्रियता पैदा करें। थोड़े कदम तो उन्हें चलते-चलाते अपनी आँखों से देख लें। हमने अपना सारा जीवन जिस मिशन के लिए तिल-तिल जला दिया, जिसके लिए हम आजीवन प्रकाश-प्रेरणा देते रहे उसका कुछ तो सक्रिय स्वरूप दिखाई देना ही चाहिए। हमारे प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने वाले क्या हमारे अनुरोध को भी अपना सकते हैं?
समय, साधन, सुविधा और सामर्थ्य होते हुए भी हम परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ सोच और कर नहीं पाते यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बंधन है। उसे तोड़कर फेंका जा सकता हो और उच्च विचारणा के अनुरूप आदर्शवादी परमार्थ परायण जीवन जिया जा सकता हो तो समझना चाहिए कि मुक्ति मिल गई।
हमारी अभिलाषा यह है कि अपने स्वजन-परिजनों को नव निर्माणों के लिए कुछ करने के लिए कहते-सुनते रहने का अभ्यस्त मात्र न बना दें, वरन् कुछ तो करने के लिए उनमें सक्रियता पैदा करें। थोड़े कदम तो उन्हें चलते-चलाते अपनी आँखों से देख लें। हमने अपना सारा जीवन जिस मिशन के लिए तिल-तिल जला दिया, जिसके लिए हम आजीवन प्रकाश-प्रेरणा देते रहे उसका कुछ तो सक्रिय स्वरूप दिखाई देना ही चाहिए। हमारे प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने वाले क्या हमारे अनुरोध को भी अपना सकते हैं?
समय, साधन, सुविधा और सामर्थ्य होते हुए भी हम परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ सोच और कर नहीं पाते यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बंधन है। उसे तोड़कर फेंका जा सकता हो और उच्च विचारणा के अनुरूप आदर्शवादी परमार्थ परायण जीवन जिया जा सकता हो तो समझना चाहिए कि मुक्ति मिल गई।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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