मंगलवार, 14 जुलाई 2020
👉 जीवन कहानी
एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी भलाई के लिए बड़ी बड़ी सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्टात्मा राज्य से निकाल बाहर किये गये, राज्य में सर्वत्र सुख शान्ति का साम्राज्य था।
एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।
दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सबके सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।
निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाय। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाय तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी।
उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहासास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।
उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधान मन्त्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हठ कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सबको बता दी गई थी।
राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधान मन्त्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुखोपभोग की सामग्री जगह जगह उपस्थिति कर दी। उन्हें लेने की सबको छुट्टी थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र, आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलाँगी तरुणियाँ सेवा सुश्रूषा के लिए मौजूद थीं जगह -जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्रों के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।
चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजाजन भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसन्द करने शुरू किये। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।
एक दिन पहले ही सब प्रजाजनों को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोजा है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा दुहरा कर सुना न दी गई हों, सबने कान खोलकर सुन लिया था।
शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएंगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उल्टे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।
दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजाजनों में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधान मन्त्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसी सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा।
यह कहानी काल्पनिक है परन्तु मनुष्य जीवन में यह बिल्कुल सच उतरती है। ईश्वर को प्राप्त करने पर हम राज्य मुक्ति अक्षय आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। उसके पाने की अवधि भी नियत हैं मनुष्य जन्म समाप्त होने पर यह अवसर हाथ से चला जाता है। संसार के मौज तमाशे थोड़े समय के हैं यह कुछ काल बाद छिन जाते हैं। सब किसी ने यह घोषणा सुन रखी है कि संसार के भोग नश्वर हैं, ईश्वर की प्राप्ति में सच्चा सुख है, प्रभु की प्राप्ति का अवसर मनुष्य जन्म में रहने तक ही है। परन्तु हममें से कितने हैं जो इस घोषणा को याद रख कर नश्वर माया के लालच में नहीं डूबे रहते?
अवसर चला जा रहा है। हम माया के भुलावे में फँस कर तुच्छ वस्तुओं को समेट रहे हैं और अक्षय सुख की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। हमारे इस व्यवहार को देखकर प्रधान मन्त्री शैतान मन ही मन खुश हो रहा है कि मेरी चाल कैसी सफल हो रही है। यह कहानी हमारे जीवन का एक कथा चित्र है।
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1940
एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।
दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सबके सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।
निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाय। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाय तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी।
उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहासास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।
उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधान मन्त्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हठ कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सबको बता दी गई थी।
राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधान मन्त्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुखोपभोग की सामग्री जगह जगह उपस्थिति कर दी। उन्हें लेने की सबको छुट्टी थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र, आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलाँगी तरुणियाँ सेवा सुश्रूषा के लिए मौजूद थीं जगह -जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्रों के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।
चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजाजन भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसन्द करने शुरू किये। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।
एक दिन पहले ही सब प्रजाजनों को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोजा है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा दुहरा कर सुना न दी गई हों, सबने कान खोलकर सुन लिया था।
शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएंगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उल्टे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।
दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजाजनों में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधान मन्त्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसी सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा।
यह कहानी काल्पनिक है परन्तु मनुष्य जीवन में यह बिल्कुल सच उतरती है। ईश्वर को प्राप्त करने पर हम राज्य मुक्ति अक्षय आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। उसके पाने की अवधि भी नियत हैं मनुष्य जन्म समाप्त होने पर यह अवसर हाथ से चला जाता है। संसार के मौज तमाशे थोड़े समय के हैं यह कुछ काल बाद छिन जाते हैं। सब किसी ने यह घोषणा सुन रखी है कि संसार के भोग नश्वर हैं, ईश्वर की प्राप्ति में सच्चा सुख है, प्रभु की प्राप्ति का अवसर मनुष्य जन्म में रहने तक ही है। परन्तु हममें से कितने हैं जो इस घोषणा को याद रख कर नश्वर माया के लालच में नहीं डूबे रहते?
अवसर चला जा रहा है। हम माया के भुलावे में फँस कर तुच्छ वस्तुओं को समेट रहे हैं और अक्षय सुख की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। हमारे इस व्यवहार को देखकर प्रधान मन्त्री शैतान मन ही मन खुश हो रहा है कि मेरी चाल कैसी सफल हो रही है। यह कहानी हमारे जीवन का एक कथा चित्र है।
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1940
👉 अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता (भाग १)
जिस स्थान पर मनुष्य रहता तथा जिस शरीर से काम लेता है, उसकी नित्य सफाई करनी होती है। आहार-विहार से स्वास्थ्य संवर्धन का लाभ तभी मिल पाता है। गन्दगी बढ़ने से रोगों के कीटाणु उत्पन्न होते तथा अनेकों रोगों को जन्म देते हैं। अतएव स्वच्छता, स्वास्थ्य सन्तुलन के लिए अनिवार्य है। मन की स्वच्छता, पवित्रता शरीर से भी अधिक आवश्यक है। शरीर की भाँति मन पर भी नित्य विकारों की पर्त चढ़ती है। उनका शोधन भी जरूरी है। काम-क्रोध-लोभ-अहंकार जैसे अनेकों विकारों के कारण ही मन चिन्तित, विक्षुब्ध बना रहता है।
स्वच्छ मन में ही श्रेष्ठ विचारों का निवास होता है। वैयक्तिक अथवा सामूहिक उन्नति अथवा अवनति विचारों की उत्कृष्टता पर निर्भर करती है। स्वच्छ मन मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, स्वार्थ, पाप, व्यभिचार, अपहरण, क्रोध, अहंकार, आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मन में बढें़ तो मनुष्य पिशाच बन जाता है। उसकी सारी क्रियाएँ और चेष्टाएँ ऐसी हो जाती हैं जिनसे उसे मनुष्य शरीर में रहते हुए भी प्रत्यक्ष असुर के रूप में देखा जा सकता है। आलस, प्रमाद, निराशा, अनुत्साह, अनियमितता, दीर्घसूत्रता, विलासिता जैसे दुर्गुण मन में जम जायें तो वह एक प्रकार से पशु ही बन जाता है। सींग, पूँछ भले ही उसके न हों पर जीवन के अपव्यय की दृष्टि से वह सब प्रकार पशु से भी अधिक घाटे में रहता है।
मन की मलीनता प्रगति के द्वार बन्द कर देती है। उससे न जम कर श्रम होता है और न पुरूषार्थ, साहस की पूँजी ही उसके पास शेष रहती है। दूषित दृष्टिकोण के कारण भीतर ही भीतर निरन्तर जलता -भुनता रहता है और अशान्ति, उद्विग्रता में घिरा रहता है। झुंझलाहट, अशिष्टता, कटुता ही उसके चेहरे और व्यवहार से टपकती है। दूसरे हर किसी को खराब बताना, सब में दोष ढूँढ़ना और उन्हें अपना शत्रु मानना ऐसा मानसिक दुर्गुण है जिसके कारण अपने भी विराने हो जाते हैं, जो लोग प्यार करते थे और सहयोग देते थे वे भी उदासीन, असन्तुष्ट और प्रतिपक्षी बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आपको मरघट के ठूँठ करील की तरह सर्वथा एकाकी और सताया हुआ ही अनुभव करते रहते है। बेचारों की स्थिति दयनीय रहती हैं।
आलसी और अव्यवस्थित, छिन्द्रान्वेषी और उद्विग्र मनुष्य के लिये यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पापी और दुराचारी, चोर और व्यभिचारी की न लोक में प्रतिष्ठा है और न परलोक में स्थान। ऐसे लोग क्षणिक सुख की मृग-तृष्णा में भटकते और ओस चाटते फिरते है, फिर भी उन्हें सन्ताप के अतिरिक्त मिलता कुछ नही। दो घड़ी डरते काँपते कुछ ऐश कर भी लिया तो उसकी प्रति-क्रिया में चिर-अशान्ति उसके पल्ले बँध जाती है । मन की मलीनता से बढ़कर इस संसार में और कोई शत्रु नहीं है। यह पिशाचिनी भीतर ही भीतर कलेजे को चाटती रहती है और जो कुछ मानव जीवन में श्रेष्ठता है उस सबको चुपके-चुपके खा जाती है। बेचारा मनुष्य अपनी बर्बादी की इस तपेदिक को समझ भी नहीं पाता। वह बाहर ही कारणों को ढूँढ़ता रहता है, कभी इस पर कभी उस पर दोष मढ़ता रहता है और भीतर ही भीतर चलने वाली यह सत्यानाशी आरी सब कुछ चीर डालती है। उन्नति, प्रगति, शान्ति, स्नेह, आत्मीयता, प्रसन्नता जैसे लाभ जो उसे मन के स्वच्छ होने पर सहज ही मिल सकते थे, उसके लिए एक असंभव जैसी चीज बने रहते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
स्वच्छ मन में ही श्रेष्ठ विचारों का निवास होता है। वैयक्तिक अथवा सामूहिक उन्नति अथवा अवनति विचारों की उत्कृष्टता पर निर्भर करती है। स्वच्छ मन मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, स्वार्थ, पाप, व्यभिचार, अपहरण, क्रोध, अहंकार, आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मन में बढें़ तो मनुष्य पिशाच बन जाता है। उसकी सारी क्रियाएँ और चेष्टाएँ ऐसी हो जाती हैं जिनसे उसे मनुष्य शरीर में रहते हुए भी प्रत्यक्ष असुर के रूप में देखा जा सकता है। आलस, प्रमाद, निराशा, अनुत्साह, अनियमितता, दीर्घसूत्रता, विलासिता जैसे दुर्गुण मन में जम जायें तो वह एक प्रकार से पशु ही बन जाता है। सींग, पूँछ भले ही उसके न हों पर जीवन के अपव्यय की दृष्टि से वह सब प्रकार पशु से भी अधिक घाटे में रहता है।
मन की मलीनता प्रगति के द्वार बन्द कर देती है। उससे न जम कर श्रम होता है और न पुरूषार्थ, साहस की पूँजी ही उसके पास शेष रहती है। दूषित दृष्टिकोण के कारण भीतर ही भीतर निरन्तर जलता -भुनता रहता है और अशान्ति, उद्विग्रता में घिरा रहता है। झुंझलाहट, अशिष्टता, कटुता ही उसके चेहरे और व्यवहार से टपकती है। दूसरे हर किसी को खराब बताना, सब में दोष ढूँढ़ना और उन्हें अपना शत्रु मानना ऐसा मानसिक दुर्गुण है जिसके कारण अपने भी विराने हो जाते हैं, जो लोग प्यार करते थे और सहयोग देते थे वे भी उदासीन, असन्तुष्ट और प्रतिपक्षी बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आपको मरघट के ठूँठ करील की तरह सर्वथा एकाकी और सताया हुआ ही अनुभव करते रहते है। बेचारों की स्थिति दयनीय रहती हैं।
आलसी और अव्यवस्थित, छिन्द्रान्वेषी और उद्विग्र मनुष्य के लिये यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पापी और दुराचारी, चोर और व्यभिचारी की न लोक में प्रतिष्ठा है और न परलोक में स्थान। ऐसे लोग क्षणिक सुख की मृग-तृष्णा में भटकते और ओस चाटते फिरते है, फिर भी उन्हें सन्ताप के अतिरिक्त मिलता कुछ नही। दो घड़ी डरते काँपते कुछ ऐश कर भी लिया तो उसकी प्रति-क्रिया में चिर-अशान्ति उसके पल्ले बँध जाती है । मन की मलीनता से बढ़कर इस संसार में और कोई शत्रु नहीं है। यह पिशाचिनी भीतर ही भीतर कलेजे को चाटती रहती है और जो कुछ मानव जीवन में श्रेष्ठता है उस सबको चुपके-चुपके खा जाती है। बेचारा मनुष्य अपनी बर्बादी की इस तपेदिक को समझ भी नहीं पाता। वह बाहर ही कारणों को ढूँढ़ता रहता है, कभी इस पर कभी उस पर दोष मढ़ता रहता है और भीतर ही भीतर चलने वाली यह सत्यानाशी आरी सब कुछ चीर डालती है। उन्नति, प्रगति, शान्ति, स्नेह, आत्मीयता, प्रसन्नता जैसे लाभ जो उसे मन के स्वच्छ होने पर सहज ही मिल सकते थे, उसके लिए एक असंभव जैसी चीज बने रहते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 Accumulate Strength
Life is a sort of a continuum of struggles of varied intensities and types. One has to fight with diverse, unfavorable situations and troubles every moment. The success of life is in proceeding ahead against all odds. This seems to be the case with the life cycle of every living being; despite enormous gifts of Nature, there also appear enemies and hardships all around in one form or the other. “Survival of the fittest” is a bitter truth in this world. The weaker is a prey to the stronger; big fishes eat the tiny ones; Sparrows eat insects; Hawks eat sparrows and so on… Huge trees grab the food of the small plants around; the rich men exploit the poor; the mightier rule over the meek.
What do these live-examples teach us? If we do not want to let ourselves ruined by adversities and want to live with dignity, we must be alert and eliminate our weaknesses. We should at least have that much (inner) strength that no one would ruin us just like that; we should at least have the courage, vigor and mental power to fight for our genuine rights and work for moral rise.
Before entering the worldly life, we must know this secret that only the awakened, aware, strong (independent), confident and wise enjoy esteemed success here.
📖 Akhand Jyoti, Aug. 1945
What do these live-examples teach us? If we do not want to let ourselves ruined by adversities and want to live with dignity, we must be alert and eliminate our weaknesses. We should at least have that much (inner) strength that no one would ruin us just like that; we should at least have the courage, vigor and mental power to fight for our genuine rights and work for moral rise.
Before entering the worldly life, we must know this secret that only the awakened, aware, strong (independent), confident and wise enjoy esteemed success here.
📖 Akhand Jyoti, Aug. 1945
👉 विवेकहीन अन्धानुकरण
अंग्रेजों की आमदनी बहुत थी वे मनचाहा खर्च कर सकते थे। वे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए इस गरम देश में रहकर भी अपने ठण्डे मुल्क की पोशाक पहनते थे, हिन्दुस्तानी भाषा जानते हुए भी अपनी मातृ भाषा में बोलने में ही गौरव अनुभव करते थे। उन्होंने अपने को श्रेष्ठ समझा और अपनी दृढ़ता से दूसरे की कमजोरी को प्रभावित किया। एक हम हैं जो उनकी दृढ़ता देश भक्ति ,स्वाभिमान एवं विशेषताओं को तो छू भी न सके उलटे बन्दर की तरह नकल बनाने लगे अपनी भाषा, संस्कृति, पोशाक, आहार, परम्परा आदि को तिलाञ्जलि देकर हमने पाया कुछ नहीं समझदार लोगों की आँखों में उपहासास्पद बने और खर्च भी बढ़ा लिये।
अब अंग्रेज भारत में नहीं हैं राजनैतिक गुलामी से भी छुटकारा मिल गया पर काले अंग्रेज अभी भी उनकी सांस्कृतिक गुलामी को गले में लपेटे बैठे हैं और इसी दुर्बुद्धि है कि भारतीय परम्पराओं के अनुरूप जीवन क्रम रखने की अपेक्षा अंग्रेजी परम्पराओं के अनुरूप वेश विन्यास एवं ढंग ढाँचा बनाना कहीं अधिक खर्चीला है और इतना खर्चीला ढोंग जो कोई भी बनावेगा दरिद्रता का अभिशाप उसे घेरे ही रहेगा। नक्कालों की हर जगह हँसी उड़ाई जाती है। साँस्कृतिक नकलची जहाँ आर्थिक तंगी में घिरे रहते हैं वहाँ हर समझदार की दृष्टि में परले सिरे के मूर्ख भी माने जाते हैं। हमें इस खर्चीले मूर्खता से बचकर भारतीय रहन−सहन अपनाये रहना चाहिए। हर शिक्षित को इस ओर अधिक ध्यान देना चाहिए क्योंकि शिक्षा के कारण उनकी बढ़ी हुई आमदनी को भी यही नकलची प्रवृत्ति बरबाद करती रहती है।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अब अंग्रेज भारत में नहीं हैं राजनैतिक गुलामी से भी छुटकारा मिल गया पर काले अंग्रेज अभी भी उनकी सांस्कृतिक गुलामी को गले में लपेटे बैठे हैं और इसी दुर्बुद्धि है कि भारतीय परम्पराओं के अनुरूप जीवन क्रम रखने की अपेक्षा अंग्रेजी परम्पराओं के अनुरूप वेश विन्यास एवं ढंग ढाँचा बनाना कहीं अधिक खर्चीला है और इतना खर्चीला ढोंग जो कोई भी बनावेगा दरिद्रता का अभिशाप उसे घेरे ही रहेगा। नक्कालों की हर जगह हँसी उड़ाई जाती है। साँस्कृतिक नकलची जहाँ आर्थिक तंगी में घिरे रहते हैं वहाँ हर समझदार की दृष्टि में परले सिरे के मूर्ख भी माने जाते हैं। हमें इस खर्चीले मूर्खता से बचकर भारतीय रहन−सहन अपनाये रहना चाहिए। हर शिक्षित को इस ओर अधिक ध्यान देना चाहिए क्योंकि शिक्षा के कारण उनकी बढ़ी हुई आमदनी को भी यही नकलची प्रवृत्ति बरबाद करती रहती है।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पचास फीसदी दुख अभी खत्म हो जाएं
'शांति चाहिए। इसके लिए मैं क्या करूं? 'कुछ मत करो, बल्कि जो कर रहे हो उसे बंद कर दो, शांति आ जाएगी।' बतौर उदाहरण आप झूले पर झूल रहे हो और पैर से टेका लगाना बंद कर दो, झूला अपने आप थम जाएगा। शांतिमय जीवन के लिए जरूरी है कि व्यक्ति हर हाल में मस्त रहने की कला सीख ले। जो नहीं मिला, उसके लिए प्रभु से शिकायत मत करो कि तूने मुझे औरों से कम दिया है, बल्कि इस बात के लिए उसे धन्यवाद दो कि उसने तुझे तेरी काबलियत से भी अधिक दिया है। अगर व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर ले कि 'जो भी दे-दे मालिक, तू कर ले कबूल, कभी-कभी कांटो में भी खिलते हैं फूल' तो उसके पचास फीसदी दुख आज और अभी खत्म हो जाएं।
जीवन की सफलता यह नहीं कि आप कितने खुश हैं? बल्कि जीवन की सफलता यह है कि लोग आपसे कितने खुश हैं। लोगों को क्षमा करते और अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगते चलिए, जीवन की सफलता आपको नजर आने लगेगी।
जीवन की सफलता यह नहीं कि आप कितने खुश हैं? बल्कि जीवन की सफलता यह है कि लोग आपसे कितने खुश हैं। लोगों को क्षमा करते और अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगते चलिए, जीवन की सफलता आपको नजर आने लगेगी।
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