मंगलवार, 22 अगस्त 2017

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 131)

🌹  तपश्चर्या आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य

🔵 भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेक उच्चस्तरीय तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आन्दोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा, किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।

🔴 जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपचार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, इस बार विशिष्ट तपश्चर्या वातावरण के प्रवाह को बदलने सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरम्भिक दिनों में जो काम कंधे पर आया था वह भी लोकमानस को परिष्कृत करने, जागृत आत्माओं को एक संगठन सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उत्साह उभारने का था। इतने भर से काम चल जाया करे तो इसकी व्यवस्था सम्पन्न लोग अपनी जेब से अथवा दूसरों से माँग-जाँचकर आसानी से पूर्ण कर लिया करते और अब तक स्थिति को बदलकर कुछ से कुछ बना लिया गया होता। कइयों ने पूरे जोर-शोर से यह प्रयत्न किए भी हैं। प्रचारात्मक साधनों के अम्बार भी जुटाए हैं, पर उनके बलबूते कुछ ऐसा न बन पड़ा जिसका कारगर प्रभाव हो सके। वस्तुस्थिति को समझने वाले निर्देशक ने सर्वप्रथम एक ही काम सौंपा। चौबीस साल की गायत्री महापुरश्चरण साधना शृंखला का पिछले तीस वर्षों में जो कुछ बन पड़ा उसमें श्रेय है। कमाई की वह हुण्डी ही अब तक काम देती रही। अपना, व्यक्ति विशेष का, समाज का, संस्कृति का यदि कुछ भला अपने द्वारा बन पड़ा, तो इस चौबीस वर्ष के संचित भण्डार को खर्च किए जाने की बात ही समझी जा सकती है। उस समय भी मात्र जप संख्या ही पूरी नहीं की गई थी, वरन् साथ ही कितने ही अनुबंध-अनुशासन एवं व्रत पालन भी जुड़े हुए थे।

🔵 जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय वाला पूरी कर सकता है, पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाने वाला कोई व्यक्ति उतनी भर चिह्न पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़े रहने चाहिए जो स्थूल शरीर, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीरों को तपाते और हर दृष्टि से समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी आत्मिक प्रगति के मार्ग में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्ठी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। जमीन में से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला कच्चा होता है। अन्य धातुएँ भी ऐसी ही अनगढ़ स्थिति में होती है उन्हें भट्ठी में डालकर तपाया और प्रयोग के उपयुक्त बनाया जाता है। रस शास्त्री बहुमूल्य रस भस्में बनाने के लिए कई-कई अग्नि संस्कार करते हैं।

🔴 कुम्हार के पास बर्तन पकाने के लिए उन्हें आँवे में तपाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्यों पर भी यही नियम लागू होते हैं। ऋषि मुनियों की सेवा साधना, धर्म-धारणा तो प्रकट है ही साथ ही वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए तपश्चर्या भी समय-समय पर अपनाते रहते थे। यह प्रक्रिया अपने-अपने ढंग से हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को सम्पन्न करनी पड़ी है, करनी पड़ेगी। क्योंकि ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का उन्नयन, परिपोषण इसके बिना हो नहीं सकता। व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रखरता और परिपक्वता न हो तो कहने योग्य-सराहने योग्य सफलताएँ प्राप्त कर सकने का सुयोग ही नहीं बनता। कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब टिकेगा और किस प्रकार फूलेगा-फलेगा?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.146

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.19

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 49)

🌹  नर- नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।

🔴 नर का नारी के प्रति तथा नारी का नर के प्रति पवित्र दृष्टिकोण होना, आत्मोन्नति सामाजिक प्रगति एवं सुख- शांति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले, अविवाहित नर- नारियों के लिए व्यवहार एवं चिंतन में एक- दूसरे के प्रति पवित्रता का समावेश अनिवार्य है ही, किन्तु अन्यों को भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपवित्र पाशविक दृष्टि रखकर कोई भी वर्ग, दूसरे वर्ग की श्रेष्ठता का न तो मूल्यांकन कर सकता है और न उनका लाभ उठा सकता है। इस हानि से बचने की अत्यधिक उपयोगी प्रेरणा इस वाक्य में दी गई है।

🔵 ‘नारी इस संसार की सर्वोत्कृष्टता पवित्रता है।’ जननी के रूप में वह अगाध वात्सल्य लेकर इस धरती पर अवतीर्ण होती है। पत्नी के रूप में त्याग और बलिदान की, प्रेम और आत्मदान की सजीव प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। बहन के रूप में स्नेह, उदारता और ममता की देवी जैसी परिलक्षित होती है। पुत्री के रूप में वह कोमलता, मृदुलता, निश्छलता की प्रतिकृति के रूप में इस नीरस संसार को सरस बनाती रहती है। परमात्मा ने नारी में सत्य, शिव और सुंदर का अनंत भंडार भरा है। उसके नेत्रों में एक अलौकिक ज्योति रहती है, जिसकी कुछ किरणें पड़ने मात्र से निष्ठुर हृदयों की भी मुरझाई हुई कली खिल सकती है। दुर्बल, अपंग मानव को शक्तिमान और सत्ता सम्पन्न बनाने का सबसे बड़ा श्रेय यदि किसी को हो सकता है तो वह नारी का ही है। वह मूर्तिमान प्रेरणा, भावना और स्फूर्ति के रूप में अचेतन को चेतन बनाती है। उसके सान्निध्य में अकिंचन व्यक्ति का भाग्य मुखरित हो उठता है। वह अपने को कृत- कृत्य हुआ अनुभव करता है।
 
🔵 नारी की महत्ता अग्नि के समान है। अग्नि हमारे जीवन का स्रोत है, उसके अभाव में हम निर्जीव और निष्प्राण बनकर ही रह सकते हैं। उसका उपयोगिता की जितनी महिमा गाई जाए, उतनी ही कम है, पर इस अग्नि का दूसरा पहलू भी है, वह स्पर्श करते ही काली नागिन की तरह लपलपाती हुई उठती है और छूते ही छटपटा देने वाली, भारी पीड़ा देने वाली परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी में जहाँ अनंत गुण हैं, वहाँ एक दोष ऐसा भी है जिसके स्पर्श करते ही असीम वेदना से छटपटाना पड़ता है। वह रूप है- नारी का रमणी रूप। रमण की आकांक्षा से जब भी उसे देखा, सोचा और छुआ जाएगा तभी वह काली नागिन की तरह अपने विष भरे दंत चुभो देगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.68

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.12

👉 अपना मूल्य, आप ही न गिरायें (भाग 4)

🔵 निश्चय ही यह आपका भ्रम ही है। क्योंकि संसार में कोई भी मनुष्य मूल रूप से न तो निर्बल होता है और न निर्धन। उसका अपना दृष्टिकोण ही उसे वैसा बना देता है। मनुष्य परमात्मा का अमर पुत्र है। वह अपने पिता के दिव्य गुणों से विभूषित है। उसके अन्दर अपरिमित आध्यात्मिक सम्पदायें भरी हुई हैं। उसका दीन-हीन और निर्बल होना सम्भव नहीं। उसका आत्म-विस्मरण ही उसे वैसा बनाये रहता है। अपने सत्य-स्वरूप को पहचानिये, उसका चिन्तन करिये, आपका सारा दैन्य दूर हो जायेगा और आप अपने को संसार में सर्वशक्तिमान परमात्मा का उत्तराधिकारी अनुभव करेंगे।

🔴 आप संसार के सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं। आपकी शक्तियों और सम्पदाओं का पारावार नहीं। आप अखण्ड और अनन्त भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों से सम्पन्न कर संसार में अवतरित किए गये हैं। जैव-विज्ञान का नियम है कि किसी जीव के पिता में जो गुण होते हैं, वही उसकी सन्तान में आते हैं। स्वस्थ पिता की सन्तान स्वस्थ, गुणी पिता की सन्तान गुणी और अयोग्य पिता की सन्तान का अयोग्य होना स्वाभाविक है। तब आप परमात्म की सन्तान होकर दीन-हीन और मलीन किस प्रकार हो सकते हैं? यह भ्रम आपको तभी तक रहता है, जब तक आप अपनी पैतृकता को भूले हुए हैं। अपनी पैतृकता याद कीजिये और आप में सारे ईश्वरीय गुण स्फुरित हो उठेंगे।

🔵 यहाँ पर इतना और स्पष्ट हो जाय कि केवल पैतृकता स्मरण करने से ही काम नहीं चलेगा। उसमें विश्वास करना होगा उसे अपने अन्दर अनुभव भी करना होगा। विश्वास रहित स्थिति नकारात्मक ही होती है। जब तक जो पुत्र अपने पिता की परम्परा में विश्वास नहीं करेगा, वह उसका उत्तराधिकारी किस प्रकार बन सकता है और बिना उत्तराधिकार के उसकी सम्पदाओं का स्वामी भी कैसे बनेगा। आत्म-स्फुरण के लिए अपने में और अपनी पैतृक परम्परा में प्रतीति करना नितान्त आवश्यक है। ऐसा करने पर ही आप अपने मन्तव्य में कृतकृत्य हो सकेंगे अन्यथा नहीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 1968 पृष्ठ 30

👉 आज का सद्चिंतन 22 Aug 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 Aug 2017


👉 ईर्ष्या या नफ़रत

🔵 एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बडे़ आलू साथ लेकर आयें, उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिये जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं। जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आये।

🔴 अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आये, किसी पास चार आलू थे, किसी के पास छः या आठ और प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफ़रत करते थे।

🔵 अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहाँ भी जायें, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें। शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया। दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बडे कष्ट में थे। जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताये, और शिष्यों ने महात्मा की शरण ली। महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियाँ निकालकर रख दें, शिष्यों ने चैन की साँस ली।

🔴 महात्माजी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा? शिष्यों ने महात्मा से अपनी आपबीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि बडा हल्का महसूस हो रहा है… महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैने आपको एक शिक्षा देने के लिये किया था…

🔵 जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिये कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या नफ़रत करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा, और वह बोझ आप लोग तमाम जिन्दगी ढोते रहते हैं, सोचिये कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी? यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह…. इसलिये अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो।

🔴 यदि किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफ़रत मत करो, तभी तुम्हारा मन स्वच्छ, निर्मल और हल्का रहेगा, वरना जीवन भर इनको ढोते-ढोते तुम्हारा मन भी बीमार हो जायेगा

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...