रविवार, 30 अप्रैल 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 30 April 2023

इस संसार में भावना ही प्रधान है। कर्म का भला-बुरा रूप उसी के आधार पर बंधनकारक और मुक्तिदायक बनता है। सद्भावना से प्रेरित कर्म सदा शुभ और श्रेष्ठ ही होते हैं, पर कदाचित् वे अनुपयुक्त भी बन पड़ें तो भी लोक दृष्टि से हेय ठहरते हुए वे आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट ही सिद्ध होंगे। आंतरिक उत्कृष्टता, सदाशयता, उच्च भावना और कर्त्तव्य बुद्धि रखकर हम साधारण जीवन व्यतीत करते हुए भी महान् बनते हैं और इसी से हमारी लक्ष्य पूर्ति सरल बनती है।

यदि हम सज्जनता ढूँढने निकलें तो सर्वत्र न्यूनाधिक मात्रा में सज्जनता दिखाई देगी। मानवता के श्रेष्ठ गुणों से रहित कोई भी व्यक्ति इस संसार में नहीं है। सद्गुण और अच्छाइयाँ ढूँढने निकलें तो बुरे समझे जाने वाले मनुष्यों में भी अगणित ऐसी अच्छाइयाँ दिखाई देंगी जिनसे अपना चित्त प्रसन्न हो सके। इसके विपरीत यदि बुराई ढूँढना ही अपना उद्देश्य हो तो श्रेष्ठ, सज्जन और सम्भ्रान्त माने जाने वाले लोगों में भी अनेकों दोष सूझ पड़ सकते हैं और उनकी निन्दा करने का अवसर मिल सकता है।

जीवन में हर घड़ी आनंद और संतोष की मंगलमय अनुभूतियाँ उपलब्ध करते रहना अथवा द्वेष, विक्षेप और असंतोष की नारकीय अग्नि में जलते रहना बिलकुल अपने निज के हाथ की बात है। इसमें न कोई दूसरा बाधक है और न सहायक। अपना दृष्टिकोण यदि दोषदर्शी हो तो उसका प्रतिफल हमें घोर अशान्ति के रूप में मिलेगा ही और यदि हमारा सोचने का तरीका गुणग्राही है तो संसार की विविधता और विचित्रता हमारे मार्ग में विशेष बाधक नहीं हो सकती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आवेशग्रस्त न रहें, सौम्य जीवन जियें (अन्तिम भाग)

भय में अपनी दुर्बलता की अनुभूति प्रथम कारण है और दूसरा  है- हर स्थिति को अपने विपरीत मान बैठना। आशंकाग्रस्त व्यक्ति भोजन में विष मिला होने की कल्पना करके स्त्री द्वारा बनाये, परोसे जाने पर भी शंकाशील रहते हैं। ग्रह नक्षत्रों तक के प्रतिकूल होने दूरस्थ होने पर भी विपत्ति खड़ी करने की कल्पना करते रहते हैं। जैसा का तैसा मिल भी जाता है। डरपोकों को और अधिक डराने वाली उक्तियाँ बताने और घटनाएँ सुनाने वाले भी कहीं न कहीं से आ टपकते हैं।

अपने ऊपर भूत के आक्रमण की आशंका हो तो वैसी चर्चा करते ही ऐसे लोग तत्काल मिल जायेंगे जो उस भय का समर्थन करने वाले संस्मरण सुनाने लगे। भले ही वे सर्वथा कपोल कल्पित ही क्यों न हों। हाँ में हाँ मिलाने की आदत आम लोगों की होती है। भ्रान्तियों का खण्डन करके सही मार्गदर्शन कर सकने योग्य बुद्धिमानों और सत्याग्रहियों की बेतरह कमी हो गई है। गिरे को गिराने वाले ‘शाह मदारों’ की ही भरमार पाई जाती है। फलतः भ्रमग्रस्तों को और अधिक उलझन में फँसा देने वाले ही राह चलते मिल जाते हैं। भ्रान्तियों के बढ़ने का सिलसिला इसी प्रकार चलता रहता है।

ताओ धर्म के प्रवर्तक लाओत्स ने एक दृष्टान्त लिखा है- यमराज ने प्लेग को दस हजार व्यक्ति मार लाने के लिए हुक्म दिया। वह काम पूरा करके लौटे तो साथ में एक लाख मृतकों का समुदाय था। यमराज ने क्रुद्ध होकर इतनी अति करने का कारण पूछा। मौत ने दृढ़ता पूर्वक कहा- “उसने दस हजार से एक भी अधिक नहीं मारा। शेष लोग तो डर के मारे खुद ही मर गये हैं।”

मस्तिष्क को शान्त रखने में इच्छित परिस्थितियों की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए अपने सोचने का तरीका बदल देने और तालमेल बिठाते हुए सौम्य और शान्त स्तर का जीवनयापन करने की कला सीखने और अभ्यास में उतारने भर से काम चल सकता है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1984 पृष्ठ 40


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