गुरुवार, 2 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 03 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 03 March 2017


👉 निर्मूल सिद्ध हुई डॉक्टरों की आशंका

🔵 उन दिनों मैं जमालपुर शक्तिपीठ में समयदान कर रहा था। दो- तीन महीने के अन्तराल में घर भी हो आता था। इसी दौरान एक दिन मेरी पीठ पर छोटा- सा फोड़ा निकल आया। मैंने सोचा कि यह तो साधारण सी बात है। राई भर का फोड़ा है, ठीक हो जायेगा अपने आप। लेकिन फोड़ा था कि दिन- प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। कुछ दिनों बाद जब घर पहुँचा, तो पत्नी को दिखाया। उसने फोड़े का मवाद निकालकर घर में रखा मरहम लगा दिया। लेकिन वह फोड़ा ठीक होने के बजाय और बड़ा हो गया। कार्य की व्यस्तताओं के कारण फोड़े की उपेक्षा होती रही। डॉक्टर को दिखाने के बजाय पत्नी का इलाज ही चलता रहा। साल बीतते- बीतते उसका आकार काफी बड़ा हो गया था। हमेशा असहनीय दर्द रहता। अब तो फोड़े से दुर्गन्ध भी आने लगी थी।

🔴 अन्ततः डॉक्टर अशोक मुखर्जी के क्लीनिक में दिखाया, तो उन्होंने चिन्तित स्वर में कहा- इतने दिन डिले नहीं करना चाहिए था। ऐसी देर से साधारण फोड़ा भी कैन्सर में बदल जाता है। आप अच्छी तरह से चेकअप करवाइये। कैन्सर टेस्ट भी अवश्य करा लें। कम- से निश्चिंत तो हो जाएँगे।

🔵 डॉ. मुखर्जी की बातों से मन चिंतित हो गया। किसी दूसरे डॉक्टर की राय भी ले ली जाए, यह सोचकर धनबाद के एक सर्जन डॉ. ए.के. सहाय से मिला। उन्होंने भी फोड़े को देखकर यही संदेह जताया कि कैन्सर हो सकता है। उन्होंने कई प्रकार की दवाएँ दीं, लेकिन बीमारी घटने के बजाय बढ़ती ही गई। मवाद का निकलना इस कदर बढ़ गया था कि एक दिन के अन्तराल पर ड्रेसिंग कराना अनिवार्य हो गया।

🔴 कैन्सर के अन्देशे के कारण कोई भी डॉक्टर ऑपरेशन करने के लिए तैयार नहीं था। जब फोड़ा बढ़ते- बढ़ते नीबू के आकार का हो गया तो बनारस के कैन्सर के विशेषज्ञ डॉ. एस.पी. सिंह के पास पहुँचा। वे भी खतरे की आशंका से ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं हुए।

🔵 मेरे इस कष्ट के निवारण के लिए मेरी पत्नी ने शांतिकुंज जाकर विशेष अनुष्ठान किया। वापस आकर उसने बताया- पूज्य गुरुदेव ने कहा है, कुछ नहीं होगा। साधारण सा फोड़ा है, काटकर हटा दे।

🔴 पूज्य गुरुदेव का आश्वासन मिल जाने के बाद मैंने एक बार फिर अपने पुराने डॉ. ए.के. सहाय से बात की। वे बड़ी मुश्किल से ऑपरेशन के लिए राजी हुए। उन्होंने फोड़ा काट कर हटा दिया। गुरुकृपा से बड़े- बड़े डॉक्टरों द्वारा व्यक्त की गई कैन्सर की आशंका निर्मूल सिद्ध हुई। 

🌹 त्रिवेणी प्रसाद अग्रवाल, गिरीडीह  (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/doc

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 10)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं    
🔴 जापान के गाँधी ‘कागावा’ ने उस देश के पिछड़े समुदाय को सभ्य एवं समर्थों की श्रेणी में ला खड़ा किया था।            

🔵 महामना मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द, योगी अरविन्द, राजा महेन्द्र प्रताप, रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्थापित शिक्षा संस्थाओं ने कितनी उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ विनिर्मित करके राष्ट्र को समर्पित कीं। इन घटनाक्रमों को भुलाया नहीं जा सकता। विवेकानन्द, दयानन्द आदि के द्वारा जो जन-कल्याण बन पड़ा, उसे असाधारण ही कहा जाएगा। प्रतिभाएँ सदा ऐसे ही कार्यक्रम हाथ में लेतीं और उसे पूरी करती हैं।   

🔴 रियासतों को भारत-गणतन्त्र में मिलाया जाना था। कुछ राजा सहमत नहीं हो रहे थे और अपनी शक्ति का परिचय देते हुए तलवार हिला रहे थे। सरदार पटेल ने कड़ककर कहा-इस तलवार से तो मेहतरों की झाडू अधिक सशक्त है, जो कुछ कर तो दिखाती है।’ राजाओं को पटेल के आगे समर्पण करना पड़ा है।   

🔵 राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, राजा छत्रशाल आदि के पराक्रम प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वल्प-साधनों से जो लड़ाइयाँ लड़ीं, उन्हें असाधारण पराक्रम का प्रतीक ही माना जा सकता है। लक्ष्मीबाई ने तो महिलाओं की एक पूरी सेना खड़ी कर ली थी और समर्थ अँग्रेजों के छक्के ही छुड़ा दिए थे।

🔴 चाणक्य की जीवनी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि परिस्थितियाँ एवं साधन नहीं, वरन् मनोबल के आधार पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता है। शंकर दिग्विजय की गाथा बताती है कि मानवी प्रतिभा कितने साधन जुटा सकती और कितने बड़े काम करा सकती है? परशुराम ने समूचे विश्व के आततायियों का मानस किस प्रकार उलट दिया था, यह किसी से छिपा नहीं है। कुमारजीव ने एशिया के एक बड़े भाग को बौद्ध धर्म के अन्तर्गत लेकर कुछ ही समय में धार्मिक क्षेत्र की महाक्रान्ति कर दिखाई थी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रधान मंत्री की सादगी

🔴 यूनान के एक राजदूत ने भारत के प्रधान मंत्री चाणक्य की विद्वता, कूटनीतिज्ञता तथा सादगी की बात सुनी तो उनसे भेंट करने चल पडा। चाणक्य की कुटिया गंगा किनारे थी। वह राजदूत तलाश करता हुआ गंगा तट पर पहुँचा, उसने देखा कि एक बलिष्ठ व्यक्ति गंगा में नहा रहा है। थोडी ही देर में वह निकला, उसने पानी का एक घडा अपने कंधे पर रखा और चल दिया।

🔵 राजदूत ने पूछा- 'क्यों भाइ! मुझे चाणक्य के निवास स्थान का पता बताओगे।' उसने घास-फूस से निर्मित कुटी की ओर हाथ का संकेत कर दिया। राजदूत को बडा आश्चर्य हुआ कि मैंने तो प्रधान मंत्री का निवास पूछा और इसने तो कुटिया की ओर इशारा कर दिया। क्या इतने बड़े देश का प्रधानमंत्री इस कुटिया में रहता है। ऐसे विचार उसके मन में आते रहे।

🔴 पहले उस राजदूत ने गंगा स्नान करना उचित समझा, फि वह उसी कुटी पर पहुँचा। कुटी के बाहर से उसने देखा कि थोडे़ से बरतन रखे हैं। एक किनारे पर जल का वही घडा जो गंगा में से अभी भरकर आया था। एक खाट और मोटे-मोटे ग्रंथों का छोटा संग्रह।

🔵 "मैं प्रधान मंत्री चाणक्य से भेंट करना चाहता हूँ।" राजूदत ने कहा- "स्वागत है अतिथि आपका, मुझे ही चाणक्य कहते हैं।''

🔴 राजदूत के नेत्र आश्वर्य से खुले ही रह गए। इस व्यक्ति से तो अभी भेंट हो ही चुकी थी। लंबी-सी चोटी साधारण-सी धोती पहने सीधा मेरुदंड किये पुस्तक के पृष्ठ पलटने वाला यह किसी देश का प्रधान मंत्री हो सकता है?  आश्चर्य! स्वावलंबन का यह अनोखा जीवन कि पानी तक स्वयं भरकर लाता है। यहां तो कोई नौकर चाकर भी दिखाई नहीं देते। फर्नीचर अलमारियाँ तथा उपयोग एवं दिखावे की अन्य वस्तुओं का एकदम अभाव।

🔵 वह कुटिया में एक आसन पर बैठकर चाणक्य से चर्चा करता रहा। जब वह अपने देश को लौटा तो उसने वहाँ के लोगों को बताया कि भारत एक महान् देश है और उसे महान बनाने का श्रेय वहाँ के महापुरुषों को है, जो त्याग और संयम का जीवन व्यतीत करते हैं। जो सादा जीवन को ही अपना गौरव मानते हैं। वहाँ के प्रधानमंत्री तक निर्धन व्यक्ति जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। जिस देश का प्रधानमंत्री अपने देशवासियों की इतनी चिंता करता है और धन के सदुपयोग पर ध्यान रखता है, फिर उसे कौन विदेशी परास्त करने की हिम्मत कर सकता है ?

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 60, 61

👉 झूठी प्रशंसा

🔵 फ्रेडरिक महान शासक होने के साथ-साथ कुछ नाटक लिखने का भी शौक रखता था। वह अपने लिखे नाटक अपने दरबारियों को सुनाया करता था। दरबारी नाटक अच्छा न होने पर उसकी तारीफ के पुल बाँध दिया करते थे। इससे फ्रेडरिक को अपने बहुत बड़े नाटककार होने का भ्रम हो गया।

🔴 उसी के समय में “व्हाल्टायर” नाम का एक बहुत ही जाना-माना प्रसिद्ध नाटककार था। फ्रेडरिक-द-ग्रेट ने एक बार उक्त नाटककार को आमंत्रित कर बड़े गर्व से अपना नाटक सुनाया। उसे आशा थी ‘व्हाल्टायर’ भी अन्य दरबारियों की तरह राज-रचना होने के कारण प्रभावित हो प्रशंसा करेगा।

🔵 किन्तु उस नाटक-मर्मज्ञ व्हाल्टायर ने उसका नाटक सुनकर बड़ी ही स्पष्टता से असफल और रद्दी कह दिया। इस पर फ्रेडरिक को बहुत बुरा लगा और उसने व्हाल्टायर को जेल भिजवा दिया।

🔴 कुछ समय बाद फ्रेडरिक ने एक और नाटक लिखा, और उसने व्हाल्टायर को बन्दीगृह से बुलवाकर अपना नया नाटक सुनाया। उसे विश्वास था कि व्हाल्टायर का दिमाग जेल की यातनाओं से बदल गया होगा और अब वह अवश्य नाटक की तारीफ करेगा।

🔵 किन्तु व्हाल्टायर नाटक सुनते-सुनते बीच में ही उठ कर चल दिया। फ्रेडरिक ने पूछा—”कहाँ जा रहे हो?” इस पर उस नाटककार ने उत्तर दिया कि—”आपका यह नाटक सुनने से तो जेल की यातना अच्छी है।”

🔴 उसकी इस प्रकार निर्भीक स्पष्टोक्ति से फ्रेडरिक महान बहुत प्रभावित हुआ और व्हाल्टायर को जेल से मुक्त करके उसे अपना साहित्यिक गुरु मान लिया।

🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1965

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 26)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसकी किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते, और वास्तविक बात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह सोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरुमरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा बालक की तरह कौतुकपूर्ण हैं जो आगे पड़ी हुई अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनोमन्दिर में हंसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसको पाने के लिए कम से कम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।

🔵 प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में नियोजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न में जो कष्ट प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा-मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्त तथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्जनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्यु वेदी पर प्राण हरण के लिए लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।

🔴 एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आज हम अपने लिए अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे। यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाये कि आज हम दूसरों के लिए अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे तो वह दिन आपके लिए बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 4)

🌹 चेतना की सत्ता एवं उसका विस्तार

🔵 यह व्यंग्य-उपहास मनुष्य के अचिंत्य चिंतन का है। इसी के कारण उसके चरित्र और व्यवहार में भ्रष्टता घुस पड़ती है और तरह-तरह के आक्षेप-उलाहना लगने शुरू होते हैं। दुष्ट चिंतन ही भ्रष्ट आचरण का निमित्त बनता है और इसी के कारण अनेक अवांछनीयताएँ उसके सिर पर लद लेती हैं। कहना न होगा कि कर्मफल भोग बिना किसी को छुटकारा नहीं; भले ही वह भटकाव के कारण ही क्यों न बन पड़ी हो। चारे के लोभ में चिड़ियाँ और मछलियाँ बहेलियों के हाथ पड़ती और अपनी जान गँवाती देखी गई हैं। जो बोया है वही तो काटना पड़ेगा; भले ही पीछे सतर्कता बरती गई हो या समझदारी से काम लिया गया हो।        

🔴 यही है भ्रांति, विकृति और विपत्ति का केंद्र। इसके भँवर में फँसकर अधिकांश लोग गर्हित गतिविधियाँ अपनाते और दुर्गति के भाजन बनते हैं। यदि इस भूल से बचा जा सके तो मनुष्य को ईश्वर का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ राजकुमार कहने में किसी को क्यों आपत्ति हो? फिर उसकी प्रवृत्ति स्वार्थी बनकर आनंद का रसास्वादन करते रहने में क्यों किसी प्रकार बाधक बने? क्यों उसे वासना, तृष्णा और अहंता के लौहपाशों में जकड़ जाने पर बंदीगृह के कैदी जैसी विडंबनाएँ सहनी पड़ें? क्यों मरघट में रहने वाले व्यक्तियों जैसा नीरस, निष्ठुर और हेय जीवन जीना पड़े? क्यों डरती-डराती और रोती-रुलाती जिंदगी जीनी पड़े?      

🔵 इस संसार में अंधकार भी है और प्रकाश भी; स्वर्ग भी है और नरक भी; पतन भी है और उत्थान भी; त्रास भी है और आनंद भी। इन दोनों में से जिसे चाहे, मनुष्य इच्छानुसार चुन सकता है। कुछ भी करने की सभी को छूट है, पर प्रतिबंध इतना ही है कि कृत्य के प्रतिफल से बचा नहीं जा सकता। स्रष्टा के निर्धारित क्रम को तोड़ा नहीं जा सकता। करने की छूट होते हुए भी उसे परिणाम भुगतने के लिये सर्वथा बाध्य रहना पड़ता है। यह दूसरी बात है कि इस प्रक्रिया के पकने में कुछ विलंब लगता है। मुकदमा दायर होने और सजा मिलने में अपने न्यायाधीश भी तो ढेरों समय लगा लेते हैं। ईश्वर का कार्यक्षेत्र तो और भी अधिक विस्तृत है। उसके न्याय करने में यदि देर लग जाती है तो मनुष्य को धैर्य खोने की आवश्यकता नहीं है और न यह अनुमान लगाने की कि वहाँ अंधेरगर्दी चलती है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 8)

🌹 दीक्षा क्या? किससे लें?

🔴 मैं समझता हूँ कि अभी फिलहाल की जो परिस्थितियाँ हैं , उनमें किसी आदमी को किसी व्यक्ति से दीक्षा नहीं लेनी चाहिए। बल्कि सिर्फ भगवान् के साथ, आत्मा के साथ, परमात्मा के साथ ब्याह करना चाहिए और अपनी जीवात्मा को भगवान् के साथ भगवान् के कार्यों में करने के लिए एक संकल्प और प्रतिज्ञा लेनी चाहिए। विवाह के समय भी यों ऐसे ही स्त्री-पुरुष साथ रहने लगें, तो कोई हर्ज नहीं है। लेकिन विवाह होता है, सामाजिक रूप में होता है, उत्सव के साथ में होता है, तो दोनों की- स्त्री-पुरुष के मन पर एक छाप पड़ जाती है कि हमारा नियमित और विधिवत् विवाह हुआ था।

🔴 इसी तरह किसी आदमी ने अपने जीवन में कोई प्रतिज्ञा ली है, उसके ऊपर कोई उसकी मनोवैज्ञानिक छाप हमेशा के लिए पड़ जाती है। शपथ लेने की याद बनी रहती है। दीक्षा लेना एक शपथ लेने के बराबर है। हमने क्या ली शपथ? दीक्षा के दिन हमने ये शपथ लीकि हम मनुष्य का जीवन जियेंगे और मनुष्य के सिद्घान्त और मनुष्य के आदर्शों को ध्यान में रखेंगे।

🔵 जो मनुष्य का जीवन मिला है, उसको हम भूलेंगे नहीं। अब हम हिम्मत के साथ उसके सामने कदम बढ़ायेंगे। जैसे पहली बार अन्न खाया जाता है, उस दिन अन्नप्राशन का उत्सव मनाया जाता है। उसी प्रकार से जिस दिन प्रतिज्ञामय जीवन जीने की कसम खाई जाती है, शपथ खाई जाती है कि हमारा मुख इस ओर मुड़ गया और हम अपने कर्तव्यों की ओर अग्रसर होने को कटिबद्ध हो गये हैं ; उसकी जो प्रतिज्ञा की जाती है, उसकी जो शपथ ली जाती है, उस शपथ का नाम दीक्षा समारोह है, दीक्षा उत्सव है, दीक्षा संस्कार है।    

🔴 शपथ ली जाती है कि हम अपने आपको उससे यह प्रकृति के साथ नहीं, वासना के साथ नहीं, तृष्णा के साथ नहीं, बल्कि अपने को अपनी जीवात्मा के साथ जोड़ते हैं और अपने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को अपनी आत्मा के साथ जोड़ते हैं। अपनी क्रियाशीलता और सम्पदा को अपनी आत्मा के साथ जोड़ते हैं। आत्मा का अर्थ परमात्मा जो कि शुद्ध और परिष्कृत रूप से हमारे अंतःकरण में बैठा हुआ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 66)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 गुरुदेव के आदेश पर तो मैं यह भी कह सकता था। जलती आग में जल मरूँगा। जो होना होगा, सो होता रहेगा। प्रतिज्ञा करने और उसे निभाने में प्राण की साक्षी देकर प्रण तो किया ही जा सकता है। यह विचार मन में उठ रहे थे। गुरुदेव उन्हें पढ़ रहे थे। अब की बार मैंने देखा कि उनका चेहरा ब्रह्मकमल जैसा खिल गया है।

🔵 दोनों स्तब्ध थे और प्रसन्न भी। पीछे लौट चलने और उन सभी ऋषियों से दुबारा मिलने का निश्चय हुआ, जिनसे कि अभी-अभी विगत रात्रि ही मिलकर आए थे। दुबारा हम लोगों को वापस आया हुआ देखकर उनमें से प्रत्येक बारी-बारी से प्रसन्न होता गया और आश्चर्यान्वित भी।

🔴 मैं तो हाथ जोड़े सिर नवाए मंत्र-मुग्ध की तरह खड़ा रहा। गुरुदेव ने मेरी कामना, इच्छा और उमंग उन्हें परोक्षतः परावाणी में कह सुनाई। और कहा-‘‘यह निर्जीव नहीं है। जो कहता है उसे करेगा भी। आप यह बताइए कि आपका जो कार्य छूटा हुआ है, उसका नए सिरे से बीजारोपण किस तरह हो? खाद पानी आप-हम लोग लगाते रहेंगे, तो इसका उठाया हुआ कदम खाली नहीं जाएगा।’’

🔵 इसके बाद उनने गायत्री पुरश्चरण की पूर्ति पर मथुरा में होने वाले सहस्रकुण्डीय पूर्णाहुति में इसी छाया रूप में पधारने का आमंत्रण दिया और कहा ‘‘यह बंदर तो है, पर है हनुमान। यह रीछ तो है, पर है जामवंत। यह गिद्ध तो है, पर है जटायु। आप इसे निर्देश दीजिए और आशा कीजिए कि जो छूट गया है, वह फिर से विनिर्मित होगा और अंकुर वृक्ष बनेगा। हम लोग निराश क्यों हों? इससे आशा क्यों न बाँधें, जबकि यह गत तीन जन्मों में दिए गए दायित्वों को निष्ठापूर्वक निभाता चला आ रहा है।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav.2

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 67)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔴 शरीर को जीवित भर रखने और परिवार की, देह की परिस्थिति जितने साधनों से संतुष्ट रहने की शिक्षा देकर लोभ- लिप्सा की जड़ काट दी। मन उधर  से भटकना बंद कर दे, तो कितनी अपार शक्ति मिलती है और जी कितना प्रफुल्लित रहता है। यह तथ्य कोई अनुभव करके देख सकता है; पर लोग तो ठहरे, तेल से आग बुझाना चाहते हैं। तृष्णा को दौलत से और वासना को भोग- साधना से तृप्त करना चाहते हैं। इन्हें कौन समझाये कि यह प्रयास केवल दावानल ही भड़का सकते हैं।

🔵 इस पथ पर चलने वाला मृग- तृष्णा में ही भटक सकता है। मरघट के प्रेत- पिशाच की तरह उद्विग्न ही रह सकता है- कुकर्म ही कर सकता है। इसे कौन कैसे समझाये? समझने और समझाने वाले दोनों विडम्बना मात्र करते हैं। सत्संग और प्रवचन बहुत सुने, पर ऐसे ज्ञानी न मिले जो अध्यात्म के अन्तरंग में उतर कर अनुकरण की प्रेरणा देते। प्रवचन देने वाले के जीवनक्रम को उघाड़ा, तो वहाँ सुनने वाले से भी अधिक गन्दगी पाई। सो जी खट्टा हो गया।

🔴 बड़े- बड़े सत्संग, सम्मेलन होते तो, पर अपना जी किसी को देखने- सुनने के लिए न करता। प्रकाश मिला तो अपने भीतर। आत्मा ने ही हिम्मत की और चारों ओर जकड़े पड़े जंजाल को काटने की बहादुरी दिखाई, तो ही काम चला। दूसरों के सहारे बैठे रहते, तो ज्ञानी बनने वाले शायद अपने तरह हमें अज्ञानी बना देते। लगता है किसी को प्रकाश मिलना होगा, तो भीतर से ही मिलेगा। कम- से अपने सम्बन्ध में तो यही तथ्य सिद्ध हुआ है।

🔵 आत्मिक प्रगति में वाह्य अवरोधों के जो पहाड़ खड़े थे- उन्हें लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा रखे बिना, श्रेय पथ पर चलने का दुस्साहस संग्रह किये बिना निरस्त नहीं किया जा सकता था, सो अपनी हिम्मत ही काम आई। अब अड़ गये तो सहायकों की भी कमी नहीं। गुरुदेव से लेकर भगवान् तक सभी अपनी मंजिल को सरल बनाने में सहायता देने के लिए निरन्तर आते रहे और प्रगति पथ पर धीरे- धीरे किन्तु  सुदृढ़ कदम आगे ही बढ़ते चले गये। अब तक की मंजिल इसी क्रम से पूरी हुई है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.2

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