शनिवार, 8 जनवरी 2022

👉 पूजा और उपासना

किसी व्यक्ति की उपासना सच्ची है या झूठी है उसकी एक ही परीक्षा है कि साधक की अन्तरात्मा में सन्तोष, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास और सद्भावना का कितनी मात्रा में अवतरण हुआ। यदि यह गुण नहीं आये हैं और हीन वृत्तियाँ उसे घेरे हुए हैं तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति पूजा पाठ कितना ही करता हो उपासना से अभी दूर ही है।
पूजा पाठ अलग बात है, उपासना अलग। उपासना के लिए पूजा पाठ से कर्मकाण्ड की चिन्हपूजा करते रहने मात्र से उपासना का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। जीव को जीवन धारण करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है पर शरीर ही जीवन नहीं है। जीव विहीन शरीर देखा तो जा सकता है पर उसका कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उपासना विहीन पूजा भी होती तो है पर उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

आत्मा जब परमात्मा की गोदी में बैठता है तो उसे प्रभु की सहज करुणा और अनुकम्पा का लाभ मिलता है। उसे तुरन्त ही निर्भयता और निश्चिन्तता की प्राप्ति होती है। हानि, घाटा, रोग, शोक, विछोह, चिन्ता, असफलता और विरोध की विपन्न स्थितियों में भी उसे विचलित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे इन प्रतिकूलताओं में भी अपने हित साधन का कोई विधान छिपा दिखाई पड़ता है। वस्तुतः विपन्नता हमारी त्रुटियों का शोधन करने और पुरुषार्थ को बढ़ाने के लिए ही आती है। आलस्य और प्रमाद को, अहंकार और मत्सर को मनोभूमि से हटाना ही प्रतिकूलताओं का उद्देश्य होता है। सच्चे आस्तिक को अपने प्रिय परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है और वह अनुकूलताओं की तरह प्रतिकूलताओं का भी खुले हृदय से स्वागत करता है।

👉 भक्तिगाथा (भाग १००)

योग-क्षेम का त्यागी कहलाता है भक्त

इस सूत्र में सभी को भक्ति की सर्वथा नवीन परिभाषा की झलक दिखायी दी परन्तु सभी की तुलना में इस सूत्र को सुनकर महर्षि विश्वामित्र के मुख पर अधिक ही प्रसन्नता छलक उठी, इसे सब ने अनुभव किया। महर्षि क्रतु ने तो कह भी दिया- ‘‘लगता है ऋषिश्रेष्ठ विश्वामित्र को इस सूत्र ने उनकी कठिन तपस्या के दिन याद दिला दिए।’’ इसे सुनकर विश्वामित्र हल्के से हँसे, फिर बोले- ‘‘नहीं महर्षि! मेरी तपस्या कठिन अवश्य थी, परन्तु उसमें भक्ति की कोमल भावनाएँ नहीं, बल्कि अहंकार की कठोरता थी। एक अहंकारी का कर्म भला भक्ति की पावनता कैसे पा सकता है, फिर भले ही वह तप क्यों न हो?’’

ऐसा कहते हुए महर्षि के नेत्र छलछला उठे। थोड़ी देर बाद वह अपने भावों को संयत करते हुए बोले- ‘‘मुझे तो बस भोले भक्त सुगना भील की याद आ गयी।’’ सुगना का नाम सुनकर ऋषि वसिष्ठ से न रहा गया, वे बोल उठे- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! हम आपके व्यक्तित्व के सतत रूपान्तरण के स्वयं साक्षी हैं पर सुगना के बारे में मैंने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम से सुना है। उसकी चर्चा करते हुए वे भी यदा-कदा भावुक हो उठते थे। वह था ही ऐसा भोला भक्त, उसका जीवन अपने भगवान में इतना अधिक अर्पित था कि भगवान उस पर अवश्य सम्मोहित हुए होंगे।’’

ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का यह वार्तालाप सभी ने सुना। इसकी कुछ ही पंक्तियों ने सभी के मन में यह जिज्ञासा पैदा कर दी कि आखिर यह सुगना कौन है? अब तो सभी की आँखें ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के मुख पर टिक गयीं। महर्षि क्रतु ने तो प्रकट में कह भी दिया कि- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आप हम सबको भक्त सुगना भील का कथा वृतान्त सुनाकर तृप्त करें।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन पर महर्षि विश्वामित्र ने भावुक स्वर में कहा- ‘‘हे महर्षि! यह कथा उन दिनों की है, जब मैं भारतभूमि के मिथिला प्रदेश में सिद्धाश्रम में रहा करता था। सिद्धाश्रम मेरी प्रयोगस्थली ओर साधनास्थली दोनों ही था। मेरे साथ विशिष्ट ऋषियों, मनीषियों, विशेषज्ञों, विद्वानों का एक खास समुदाय था। ये सभी विविध विद्याओं के धनी एवं अनेकों चमत्कारी प्रयोगों में निष्णात थे।

मेरे और मेरे सभी सहयोगियों के सारे प्रयोगों का उद्देश्य एक ही था कि देवभूमि भारत सदा के लिए आसुरी आतंक से मुक्त हो सके। हम सभी के दिन और रात, इन्हीं सब प्रयोगों एवं विद्याओं की साधना में बीतते थे। एक दिन प्रातः ब्रह्मबेला में जबमैं ऋषि रूद्रांश के साथ भ्रमण के लिए निकला तो देखा कि पास के बीहड़ वन में एक कृष्ण वर्ण युवा भील वट वृक्ष की छांव में बैठा हुआ ध्यानमग्न है।

ऋषि रूद्रांश ने मेरा ध्यान उसकी ओर आकर्षित करते हुए कहा- महर्षि यह भीषण वन तो महामायाविनी एवं महाभयाविनी ताड़का का क्षेत्र है। यहाँ तो ताड़का, मारीच, सुबाहु के साथ मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को ही नहीं, वृक्ष-वनस्पतियों को भी आतंकित करती रहती है। हम जैसे तपस्वियों एवं आप सदृश परम तेजस्वी महर्षि को भी इधर आने से पहले रक्षोघ्न प्रयोगों को करना पड़ता है। ऐसे में यह एकाकी युवा भील, इतना निर्भय एवं इतना अधिक प्रसन्नचित्त- सचमुच अचरज है।

ऋषि रुद्रांश का कथन सच था, बात अचरज की ही थी। इस युवा भील का वहाँ जीवित होना ही आश्चर्य था। उसकी प्रसन्नता एवं निर्भयता तो शायद उस युग का परम आश्चर्य थी। हम दोनों धीमे कदमों से चलते हुए उसके पास गए। वह हम दोनों के पांव की आहट सुनकर उठ गया। उसके नेत्रों से भक्ति के आंसू छलक रहे थे। पास पहुँचते ही उसने हम दोनों को ही प्रणाम किया। उसके प्रणाम में उसके भावों की गहराई स्पष्ट थी।

हमने उसे आशीष देते हुए पूछा-पुत्र! तुम यहीं रहते हो। उत्तर में उसने थोड़ी दूर पर वृक्षों के झुरमुट की ओट में बनी एक झोंपड़ी की ओर इशारा किया। उसे पहली दृष्टि में देखकर लगा- सचमुच ही निर्जन स्थान पर रहने वाले इस भील भक्त ने सभी लौकिक बन्धन तोड़ डाले हैं। निःसन्देह उसकी चेतना तीनों गुणों के पार है और भगवान् के इस अनन्य भक्त ने असन्दिग्ध रूप से योग तथा क्षेम का परित्याग कर दिया है। परन्तु उसके बारे में अभी अनेकों जिज्ञासाएँ थीं, जिनका समाधान आगे होना था।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८८


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