मंजिल नहीं, पड़ाव है—सवितर्क समाधि
सीमाओं से मुक्त गगन में श्वेत हंस की भाँति साधक उड़ना चाहता है। इसी लिए तो वह अंतर्यात्रा के लिए संकल्पित हुआ था, जिसके प्रयोगों में रहस्यमयता है, किन्तु इनकी परिणति बड़ी स्पष्ट है। जो इन प्रयोगों में संलग्न हैं, वे अपनी अनुभूति में इस सच का साक्षात्कार करते हैं। अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों में लवलीन साधक अपनी प्रयोग यात्रा में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों उसके सामने मानव चेतना के नये-नये पहलू उजागर होते हैं। शक्ति एवं ज्ञान के नव स्रोत खुलते हैं। ध्यान की प्रगाढ़ता होते ही योग साधक की अंतःऊर्जा भी प्रगाढ़ होने लगती है। साथ ही प्रखर होने लगती है उसके ज्ञान की रश्मियाँ। चेतना के उच्चस्तरीय आयाम उसमें झिलमिलाते हैं, झलकते हैं। सवितर्क समाधि में यह झलक और भी तीव्र होती है। परन्तु यह सब कुछ नहीं है। यहाँ से मंजिल का अहसास, आभास तो होता है, पर मंजिल अभी दूर ही रहती है।
हालाँकि यह स्थिति भी योग साधक की पवित्रता की गवाही देती है। वस्तुतः स्फटिक के समान शुद्घ मन में अंतर्प्रज्ञा जाग्रत तो होती है, परन्तु अभी आत्मा का सम्पूर्ण प्रकाश अस्तित्व में नहीं फैल पाता। यहाँ इस अवस्था में ज्ञान का अरुणोदय तो होता है, परन्तु ज्ञान सूर्य की प्रखरता का चरम बिन्दु अभी भी बाकी रहता है। यह स्थिति अँधेरे की समाप्ति की तो है, परन्तु पूरी तरह उजाला होने में अभी भी कसर बाकी रहती है। यह बीच की भावदशा है और कई बार यहाँ बड़े विभ्रम खड़े हो जाते हैं। क्या सच है और क्या नहीं है? यह प्रश्न सदा मन को मथते रहते हैं।
इस भावदशा को बताते हुए महर्षि का सूत्र है-
तत्र शब्दार्थ ज्ञान विकल्पैः सकीर्णा सवितर्का समापत्तिः॥ १/४२॥
शब्दार्थ— तत्र = उनमें; शब्दार्थज्ञानविकल्पैः = शब्द, अर्थ, ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से; संकीर्णा = संकीर्ण-मिली हुई; समापत्तिः = समाधि; सवितर्का = सवितर्क है।
अर्थात् सवितर्क समाधि वह समाधि है-जहाँ योगी अभी भी वह भेद करने के योग्य नहीं रहता है, जो सच्चे ज्ञान के तथा शब्दों पर आधारित ज्ञान और तर्क या इन्द्रिय बोध पर आधारित ज्ञान के बीच होता है, क्योंकि यह सब मिली-जुली अवस्था में मन में बना रहता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या