बुधवार, 13 अप्रैल 2022

👉 किसी का जी न दुखाया करो (भाग 2)

क्या तुम समझते हो कि दूसरे के मन पर घात करने से तुम्हारी बात ऊंची रह जायेगी? क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारे प्रहारों से दूसरे तुम्हारी बातें मान लेंगे? क्या तुम्हारा विचार है कि तुम केवल उसके जी को दुःखाते हुए उसे परास्त करके अपनी विजय स्थापित कर लोगे? क्या तुम्हारी धारण है कि उसका मन चुपचाप तुम्हारे प्रहारों को सहता रहेगा? ऐसा न समझो कि तुम उसको केवल परास्त करके मनवा सकोगे। उसका मन तुम्हारा सदा विरोध करेगा।

तुम्हारी बातों को वह मानेगा तो कदापि नहीं, हाँ भीतर ही भीतर वह तुम्हारा विरोधी अवश्य बन जायगा। उसका हृदय भी तुम्हारी ही भाँति कुछ आत्मगौरववान् होता है। उसकी भी इच्छा होती है कि वह तुम्हारे कथनों का प्रतिवाद करे। उसमें भी बदले की छिपी भावना रहती है। तुम उसे दुःखी करके विरोध को बढ़ाते ही हो, अपने मत को स्थापित नहीं करते।

विजय प्रेम से होती है। जो काम प्रेम से निकलता है वह क्रोध, दबाव या आघात से नहीं। किसी को समझाना प्रेम से अधिक अच्छी ढंग से हो सकता है, झिझकने, फटकारने या चुभती बात कहने से नहीं। मानव मन पर किसी का एकाधिकार तो है नहीं। यदि तुमसे ही कोई आज कहे कि तुम बड़ा बुरा करते हो कि बहस किया करते हो, तो तुम यही कहोगे न, कि जाओ, करते हैं- तुम्हें इससे क्या? यही दशा सबकी है।

दीवार से टकराकर पत्थर लौट जाता है। पहाड़ से टकराकर शब्द प्रति ध्वनित होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया सदा होती ही है। फिर तुम्हारे जी दुखाने की प्रतिक्रिया क्यों न होगी? यदि वह प्रकट रूप से तुम्हें कुछ न कहेगा, तो उसकी अन्तरात्मा तो तुम्हें सदा कोसती रहेगी। तुम्हें वह चाहे एक शब्द भी न कहे, पर उसका मन हमेशा कुढ़ता रहेगा।

क्रमशः जारी
~ अखण्ड ज्योति फरवरी 1948 पृष्ठ 24 

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👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १६

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए
दो-चार छोटी-मोटी बुराइयाँ यदि आप में हैं तो वे विजातीय होने के कारण बार-बार आपका ध्यान खींचेंगी और पूर्ण विवेक एवं निष्पक्ष परीक्षण शक्ति की कमी रही तो संभव है आप कभी बुरे नतीजे पर पहुँच जाएँ। वे बुराइयाँ आपके ध्यान को अपने में उलझाए रहेंगी अच्छाइयों तक दृष्टि न पहुँचने' देंगी। ऐसी दशा में कोई व्यक्ति यह विश्वास कर बैठ सकता है कि मुझ में बुराइयाँ पाप-वासनाएँ दुर्भावनाएँ  अयोग्यताएँ अधिक हैं इससे नीची ही स्थिति में पड़ा रहूँगा आगे और भी नीचा हो जाऊँगा, ऊँचा चढ़ना कठिन है।
ऐसे निराशापूर्ण विचार और विश्वास, भ्रम पूर्ण, एकांगी और आवेश में आकर निश्चय किए हुए होते हैं। 
 
इनमें कोई तथ्य नहीं, इनसे कोई लाभ नहीं, यह निरर्थक विचार प्रेरक शक्ति से बिल्कुल शून्य होने के कारण सर्वथा अग्राह्य हैं। हानि, पतन और झुँझलाहट की आत्मघाती, विषैली भावनाएँ इससे उपजती हैं जिससे हर प्रकार का अपकार ही अधिक होता है।
असल में मानव तत्त्व में ' दुर्गुणों की मात्रा इतनी नहीं है जो सद्गुणों  से अधिक हो, कम से कम इतना तो निश्चित है कि जिनके हाथों में यह पुस्तक है जिनकी आँखें इन पंक्तियों को पढने में रुचि ले रही हैं वे दुर्गुण प्रधान नहीं हैं। आप अपने गुण- अवगुणों पर एक बार पुन: दृष्टिपात कीजिए निष्पक्षता पूर्वक निरीक्षण कीजिए तो हम विश्वास दिलाते हैं कि आपको इस परिणाम पर पहुँचने के लिए विवश होना पडेगा कि आप में 'दुर्गुणों की अपेक्षा सद्गुण अधिक हैं। सचाई इसके लिए मजबूर कि अपने अंदर उच्च ' गुणों की अधिकता को स्वीकार करें। मनुष्य शरीर, इसमें भी शिक्षित, फिर आध्यात्मिक विषयों में दिलचस्पी, यह तीनों एक से बढ़कर एक प्रमाण हैं जो साबित करते हैं कि आप अच्छे हैं, बुद्धिमान हैं, विवेकशील हैं और ऊपर की ओर चल रहे हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २४

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👉 भक्तिगाथा (भाग ११८)

भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नही

महात्मा सत्यधृति के मुख से भक्त विमलतीर्थ के अनुभव सुनकर सभी भावलीन हो गए। भावनाएँ-भावनाओं को छूती हैं, इनके स्पर्श से अस्तित्त्व व व्यक्तित्त्व के केन्द्र में एक रहस्यमय हिलोर उठती है, जो समूचे व्यक्तित्व को स्पन्दित करती चली जाती है। भक्तिमन्त्र के द्रष्टा ऋषि नारद भक्तितत्त्व के परम अनुभवी व मर्मज्ञ थे। वे जानते थे कि भक्ति-भावनाओं का परिमार्जन-परिष्कार व रूपान्तरण करने में समर्थ है। बस आवश्यकता इसके सम्यक प्रयोग की है। जिसने भी जब यह प्रयोग जहाँ कहीं भी किया उसे सफलता अवश्य मिली। इसमें कहीं किसी तरह की विकलता, असफलता की कोई गुंजाइश ही नहीं।

देवर्षि नारद अपनी लय में सोचे जा रहे थे। अन्य सभी भी अपनी विचारविथियों में भ्रमण कर रहे थे। बाहर सब ओर मौन छाया था। पर्वत शिखर, उत्तुंग वृक्ष, औषधीय वनस्पत्तियाँ, यहाँ तक वन्य पशु सभी शान्त व स्थिर थे। कहीं से कोई स्वर नहीं था। ऐसा लग रहा था कि सारे रव, नीरव में समाहित हो गए हैं। काफी देर तक ऐसा ही बना रहा। पल-क्षण बीतते गए, परन्तु भक्ति की भावसमाधि यथावत बनी रही। लेकिन तभी अब तक स्तम्भित रही वायु मन्दगति से बह चली और धीरे-धीरे उसमें हिमपक्षियों के स्वर घुलने लगे। थोड़ी देर बाद हिमालयी वन्य पशुओं ने भी उसमें अपना रव घोला। वातावरण में ऐसी चैतन्यता अचानक उभरी, जैसे कि समूची प्रकृति अपनी समाधिलीनता त्यागकर अपने बाह्य जगत के कर्त्तव्यों के प्रति सजह, सचेष्ट हो गयी हो।

इस नयी स्थिति को अपने अनुभव में समेटते हुए महर्षि पुलह मुस्करा उठे। उनकी यह मुस्कराहट ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के मन को बेध गयी। उन्होंने बड़े मन्द स्वर में  ऋषि पुलह से पूछा- ‘‘महर्षि अचानक आपकी इस मुस्कराहट का कोई प्रयोजन तो नहीं?’’ उत्तर में ऋषि पुलह ने पुनः अपनी उसी मुस्कान में स्वरों को घोलते हुए कहा- ‘‘लगता है हम सभी को मौन देखकर स्वयं प्रकृति मुखर हो उठी है।’’ महर्षि पुलह के इस अटपटे उत्तर को सुनकर ऋषि विश्वामित्र भी मुस्करा दिये। इन दोनों ऋषियों की मुस्कान ने वातावरण को और भी चैतन्य बना दिया। देवर्षि नारद के साथ अन्य सब अपनी विचार वीथियों से बाहर निकलकर जीवन की सामान्य सतह पर आ गए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३४

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👉 मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग 4)

माँ की इच्छा है कि हमारा प्राण और हमारी प्रतिज्ञा समान हो। माँ की चाहत है कि वह जिस सृष्टि और जिस ब्रह्मांड की मंगलमयी अधिष्ठात्री देवी है, उसका किसी भी तरह अमंगल न हो। जिस दैवी सम्पदा, संस्कृति और परम्परा की रक्षा के लिए वह अपने सम्पूर्ण तप, संकल्प, सिद्धि, शक्ति, ममता, करुणा और मातृत्व का पुँज बनकर समय-समय पर प्रकट होती आयी है, हम उसकी प्राण-पण से रक्षा करें। नवरात्रि अनुष्ठान के साथ यदि हम इस महासत्य के लिए संकल्पित नहीं है, तो हमारा अनुष्ठान अधूरा है। और विडम्बना यही है कि बहुसंख्यक जनों की स्थिति ऐसी ही है। निजी स्वार्थ में वे सर्वभूत हितेरतः का बीज मंत्र या मातृ मंत्र भूल गए हैं।

सवाल यह है कि ऐसी स्थिति आयी ही क्यों? तो जवाब यह है कि हमारी यह प्रतीति ही खो गयी है कि हम किससे हैं? हम जिसके कारण हैं, वह कौन है? वह हमारी क्या है और सबसे बढ़कर हम उसके क्या हैं? हमने जननी को, माँ को केवल स्त्री मान लिया है। धरती माता, भारत माता हमारे लिए केवल एक मिट्टी का टुकड़ा बनकर रह गयी है। हमें यह तो याद है कि हमारे लिए माँ को राष्ट्रमाता को क्या-क्या करना चाहिए। लेकिन उसके प्रति किए जाने वाले हमारे कर्म-धर्म हमको अब याद नहीं रहे। स्थिति इतनी विकृत एवं बिगड़ी हुई है कि हम केवल प्रकृति एवं प्रवृत्ति को ही प्रदूषित नहीं कर रहे, नारी और उसके मातृत्व को भी अपवित्र बनाते जा रहे हैं। यही कारण है कि आज सन्तानों का जन्म किसी सद्संकल्प के कारण नहीं वासना के वशीभूत होकर होता है।

आज हर घर-आँगन में तुलसी के बिरवे की जगह यह प्रश्न रोपित-आरोपित है कि हमारे बच्चे बिगड़ैल एवं हमारा परिवार आतंकित क्यों है? इसका जवाब एकदम सीधा-सपाट है कि हमें मातृत्व का सम्यक् बोध नहीं रहा। हमारे देश की नारी ने आधुनिकता की दौड़ में जो पश्चिमी बालक बना रही है, उसके परिणाम में वह जननी तो बन जाती हैं, पर माँ नहीं बन पाती। यही स्थिति जन्म देने वाले की है। ध्यान रहे कि कभी भी वासना जीवन का वन्दनवार नहीं बन सकती। पश्चिमी आधुनिकतावादी कोख से जन्मी हमारी सन्तानें यदि विलासी, लम्पट एवं उच्छृंखल बन रही हैं, तो इसमें भला अचरज ही क्या है? उन्हें जन्म तो मिला पर संस्कार प्रदान करने वाली माँ नहीं मिली।

अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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