शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

Vartman Paristhitiyan | वर्तमान परिस्थितियाँ | Pt Shriram Sharma Acharya



Title

👉 जिंदगी का सफर-ये कैसा सफर

एक प्रोफेसर अपनी क्लास में कहानी सुना रहे थे, जोकि इस प्रकार है–

एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी। कप्तान ने शिप खाली करने का आदेश दिया। जहाज पर एक युवा दम्पति थे। जब लाइफबोट पर चढ़ने का उनका नम्बर आया तो देखा गया नाव पर केवल एक व्यक्ति के लिए ही जगह है। इस मौके पर आदमी ने औरत को धक्का दिया और नाव पर कूद गया।

डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा।

अब प्रोफेसर ने रुककर स्टूडेंट्स से पूछा – तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा? ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये – स्त्री ने कहा – मैं तुमसे नफरत करती हूँ! I hate you!

प्रोफेसर ने देखा एक स्टूडेंट एकदम शांत बैठा हुआ था, प्रोफेसर ने उससे पूछा कि तुम बताओ तुम्हे क्या लगता है?

वो लड़का बोला – मुझे लगता है, औरत ने कहा होगा – हमारे बच्चे का ख्याल रखना!

प्रोफेसर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने लडके से पूछा – क्या तुमने यह कहानी पहले सुन रखी थी ? लड़का बोला- जी नहीं, लेकिन यही बात बीमारी से मरती हुई मेरी माँ ने मेरे पिता से कही थी।

प्रोफेसर ने दुखपूर्वक कहा – तुम्हारा उत्तर सही है!

प्रोफेसर ने कहानी आगे बढ़ाई – जहाज डूब गया, स्त्री मर गयी, पति किनारे पहुंचा और उसने अपना बाकि जीवन अपनी एकमात्र पुत्री के समुचित लालन-पालन में लगा दिया। कई सालों बाद जब वो व्यक्ति मर गया तो एक दिन सफाई करते हुए उसकी लड़की को अपने पिता की एक डायरी मिली। डायरी से उसे पता चला कि जिस समय उसके माता-पिता उस जहाज पर सफर कर रहे थे तो उसकी माँ एक जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थी और उनके जीवन के कुछ दिन ही शेष थे।

ऐसे कठिन मौके पर उसके पिता ने एक कड़ा निर्णय लिया और लाइफबोट पर कूद गया। उसके पिता ने डायरी में लिखा था – तुम्हारे बिना मेरे जीवन को कोई मतलब नहीं, मैं तो तुम्हारे साथ ही समंदर में समा जाना चाहता था। लेकिन अपनी संतान का ख्याल आने पर मुझे तुमको अकेले छोड़कर जाना पड़ा।
जब प्रोफेसर ने कहानी समाप्त की तो, पूरी क्लास में शांति थी।

इस संसार में कईयों सही गलत बातें हैं लेकिन उसके अतिरिक्त भी कई जटिलतायें हैं, जिन्हें समझना आसान नहीं। इसीलिए ऊपरी सतह से देखकर बिना गहराई को जाने-समझे हर परिस्थिति का एकदम सही आकलन नहीं किया जा सकता।

◆ कलह होने पर जो पहले माफ़ी मांगे, जरुरी नहीं उसी की गलती हो। हो सकता है वो रिश्ते को बनाये रखना ज्यादा महत्वपूर्ण समझता हो।

◇ दोस्तों के साथ खाते-पीते, पार्टी करते समय जो दोस्त बिल पे करता है, जरुरी नहीं उसकी जेब नोटों से ठसाठस भरी हो। हो सकता है उसके लिए दोस्ती के सामने पैसों की अहमियत कम हो।

■ जो लोग आपकी मदद करते हैं, जरुरी नहीं वो आपके एहसानों के बोझ तले दबे हों। वो आपकी मदद करते हैं क्योंकि उनके दिलों में दयालुता और करुणा का निवास है।

👉 नव निर्माण हेतु विभूतियों का आह्वान (भाग १)

यों सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं, पर जिनमें विशेष विभूतियाँ चमकती हैं उन्हें ईश्वर के विशेष अंश की सम्पदा से सम्पन्न समझा जाना चाहिए। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान कृष्ण ने विशिष्ट विभूतियों में अपना विशेष अंश होने की बात उदाहरणों समेत बताई है। यों जीवनयापन तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी करते हैं, पर जिनके पास विशेष शक्तियाँ, विभूतियाँ हैं, कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य वे ही कर पाते हैं। इसलिए भावनात्मक नव निर्माण जैसे युगान्तरकारी अभियानों में उनका विशेष हाथ रहना आवश्यक है।

विभूतियों को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) भावना (२) शिक्षा-साहित्य (३) कला (४) सत्ता (५) सम्पदा (६) भौतिकी (७) प्रतिभा। इन सातों के सदुपयोग से ही व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है।

(१) भावना (धर्म एवं अध्यात्म)-व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और गतिविधियों को आदर्श बनाने की अन्तःप्रेरणा को भावना कहा जाता है। धर्म धारणा और अध्यात्म साधना के समस्त कलेवर को इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। पिछले दिनों कुछ कर्मकाण्डों, परम्पराओं एवं विधानों को पूरा कर लेना भर धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता समझी जाती रही है। वस्तुतः चरित्र गठन का नाम धर्म और अपनी क्षमताओं को लोक मंगल के लिए समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाओं के कल्पना लोक में नहीं उड़ते रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने तथा समाज के समग्र निर्माण में संलग्न होना चाहिए। यही उनका वास्तविक प्रयोजन भी है।

धर्म की प्राचीनता और दार्शनिकता से प्रभावित लोगों को कहा जा रहा है कि अपने सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने, धर्म परिवर्तन के प्रति उत्साह में शक्तियों का अपव्यय न करें। हमारा सतत प्रयास है सब धर्मों के प्रति परस्पर सहिष्णुता, समन्वय की वृत्ति उत्पन्न करना। वे अपने स्वरूप को भले ही पृथक बनाये रहे, पर विश्वधर्म का एक घटक बनकर रहें और अपने प्रभाव को चरित्र गठन एवं परमार्थ प्रयोजन में ही नियोजित करें। प्रथा परम्पराओं वाले कलेवर को गौण समझें। सभी धर्म सम्प्रदाय अपनी परम्पराओं में से उत्कृष्टता का अंश अपनाकर विश्व एकता के, उत्कृष्ट मानवता और आदर्श समाज रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े और एक ही केन्द्र पर केन्द्रित हो। धर्मों के जीवित रहने का, अपनी उपयोगिता बनाये रहने का मात्र यही तरीका है।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 असम्भव में सम्भव

जीवन के हर पल में विषमताएँ विपन्नताएँ एवं द्वन्द्व हैं। ये इतनी अधिक हैं कि इनको मिटाना असम्भव जान पड़ता है। जीवन के हर तल में, यहाँ तक कि मनुष्य के कण-कण में महाभारत का महासमर छिड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति नित नये कौरवी चालों और आघातों को झेलने एवं इनसे जूझने के लिए कुरुक्षेत्र में खड़ा है। महाभारत के ऐतिहासिक क्षण बीत चुके, ऐसा नहीं है। यह महासमर तो अभी भी जारी है। नये बच्चे के साथ पैदा हो रहा है।
  
गीता में कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा है, क्योंकि यहाँ निर्णय होता है धर्म और अधर्म का, प्रकाश और अंधकार का, प्रेम एवं घृणा का। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर निर्णायक घटना घटित होती है। इसीलिए तो भारी चिंता है, किसी को कहीं राहत नहीं है, आदमी बेचैन है। इस बेचैनी के बड़े कारण भी हैं, क्योंकि घृणा के पक्ष में, अंधकार और अधर्म के पक्ष में बड़ी फौज है। महाभारत में कृष्ण की नारायणी सेना कौरवों के ही साथ थी। केवल कृष्ण, वे भी पूरी तरह से निहत्थे पाण्डवों के साथ थे। यह बात बड़ी अर्थपूर्ण है। जिन्दगी के भी यही हाल हैं। संसार की सारी शक्तियाँ आज अधर्म एवं अँधेरे के पक्ष में हैं। संसार की शक्तियाँ यानि कि परमात्मा की सेना, कृष्ण की समूची नारायणी सेना। केवल कृष्ण भर अपने पक्ष में हैं, वे भी बिना किसी हथियार के । भरोसा नहीं होता कि जीत अपनी ही हो सकेगी। पूरी तरह से असम्भव लगता है कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय कैसे हो सकेगी।
  
कृष्ण अर्जुन के ही सारथी थे, ऐसा नहीं है। हमारी जिन्दगी के रथ पर भी जो सारथी बैठा है, वे कृष्ण ही हैं। प्रत्येक के भीतर परमात्मा ही रथ को सम्भाल रहे हैं। लेकिन सामने विरोध में दिखाई दे रही है, बड़ी सेनाएँ, घातक व्यूह रचनाएँ, चतुर चालों एवं षड्यंत्रों का बड़ा विराट् आयोजन। ऐसे असम्भव में घबराहट स्वाभाविक है। अर्जुन भी घबराया था। हमारे भी हाथ-पाँव थरथरा रहे हैं। सब तरह से, गणित के हर ढंग से, प्रत्येक तर्क से हार सुनिश्चित मालूम पड़ रही है और जीत असम्भव। लेकिन इस असम्भव में सम्भव घटित हो सकता है, यदि कृष्ण के ‘मामेकंशरण व्रज’ की स्वर लहरियों को सुना जा सके। जो कृष्ण को समर्पित हैं, जिनके जीवन के हर कर्म अपने हृदय में वास करने वाले परमात्मा को अर्पित हैं, जीवन में अंतिम विजय उन्हीं की होती है। उनके जीवन के प्रत्येक असम्भव में सम्भव साकार होते हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १५२

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 8)

Q.8. What is a Beej Mantra? How is it applied?

Ans. All religions of the world make use of a part of their scriptures as a representative Beej Mantra. Thus Mohammedans have their Kalma the Christians Baptism, and the Jains Namonkar Mantra. The Gayatri Mantra is the Beej Mantra for the Hindus.

An abbreviation of a Ved Mantra is also known as its Beej Mantra. Literally the word ‘Beej’ Means ‘Seed’. In the seed are inherent all the characteristics of the tree. The DNA of a person is also akin to the seed of a plant, since it contains all genetic characteristics of a living organism. Beej Mantras, like the microchips in the computer, are small but extraordinarily effective for invocation of specific streams of divine powers for particular objectives. The application of Beej Mantras, however , belongs to Tantrik System and these can only be made use of under the guidance of an expert.

In Gayatri Mantra as a whole, there are Beej Mantras Bhur, Bhuwaha and Swaha, corresponding to each of its three segments. Besides, each of its 24 letters has a beej Mantra of its own. The Beej Mantra in Gayatri is applied after the ‘Vyahriti’ (Bhur  Bhuwaha Swaha) prefixing “Tatsaviturvarniyam...” It is also used as a suffix (samput) after “Prachodayat. (Ref. “Gayatri Ka Har Akshar Shakti Shrot”).

Q.9. How is rishi Vishwamitra related to Gayatri Mantra?   

Ans. Vishwamitra was the first rishi of this kalpa (the present cycle of creation) who could access all powers of Gayatri. In spiritual parlance,  he was the first master of  Gayatri Sadhana. Rishi Vishwamitra standardised the procedures of Gayatri Sadhana for the common man.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 42

👉 गायत्री और यज्ञ

भारत की प्रसुप्त अंतरात्मा को जगाने के लिए ज्ञान और विज्ञान की प्रतिष्ठापना करना सर्वप्रथम कार्य है। इन दोनों के बल पर ही कोई व्यक्ति या राष्ट्र उन्नति कर सकता है। जब इनमें से एक की भी कमी हो जाती है, तो अधःपतन आरंभ हो जाता है। ज्ञान का अर्थ है-विद्या बुद्धिमत्ता, विवेक दूरदर्शिता, सद्भावना, उदारता, न्याय प्रियता। विज्ञान का अर्थ है- योग्यता, साधन, शक्ति, सम्पन्नता, शीघ्र सफलता प्राप्त करने की सामर्थ्य आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में जब संतुलित उन्नति होती है, तभी उसे वास्तविक विकास माना जाता है। भारत प्राचीन काल में बुद्धिमान बनने के लिए ज्ञान की और बलवान बनने के लिए विज्ञान की उपासना करने में सदैव संलग्न रहता था। योगी लोग जहाँ भक्ति भावना द्वारा भगवान में संलग्न होते थे वहाँ कष्ट साध्य साधनाओं तथा तपश्चर्याओं द्वारा अपने में अनेक प्रकार की सामर्थ्य भी उत्पन्न करते थे। भावना से भगवान और साधना से शक्ति प्राप्त होती है, यह निर्विवाद है।
  
आज का ज्ञान प्रत्यक्ष दृश्यों, अनुभवों तथा विज्ञान मशीनों पर अवलंबित है। भौतिक जानकारी तथा शक्तियाँ प्राप्त करने के लिए भौतिक उपकरणों का ही आज के वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे हैं यह तरीका बहुत खर्चीला, श्रमसाध्य, स्वल्पफलदायक एवं अचिर-अस्थायी है जो ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, प्रोफेसरों, द्वारा उत्पन्न किया जा रहा है, वह भौतिक जानकारी तो काफी बढ़ा देता है, पर उससे अंतःकरण में आत्मिक महानता, उदार दृष्टि तथा लोकसेवा के लिए आत्म त्याग करने की भावना पैदा नहीं होती। आज का तथाकथित ज्ञान मनुष्य को अधिक स्वार्थी, खर्चीला एवं बनावट पसंद बनाता जा रहा है। दूसरी ओर जो वैज्ञानिक उन्नति हो रही है, उससे एक ओर जहाँ थोड़ा-सा लाभ होता है, दूसरी ओर उससे अधिक हानि हो जाती है।
  
प्राचीनकाल में ज्ञान और विज्ञान के आधार आज से भिन्न थे। आज जिस प्रकार हर वस्तुतः जड़ जगत् में से, भौतिक परमाणुओं में से खोजी जाती और उपलब्ध की जाती है, उसी प्रकार प्राचीन काल में प्रत्येक बात, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक शक्ति आत्मिक जगत् में से ढूँढ़ी जाती थी। आज का आधार भौतिकता है, प्राचीनकाल का आधार आध्यात्मिकता था।
  
ज्ञान और विज्ञान की हमारी प्राचीन शोध गायत्री और यज्ञ के आधार पर होती थी, क्योंकि यही दोनों अध्यात्म विद्या के माता-पिता हैं। गायत्री ज्ञान रुपिणी है, यज्ञ विज्ञान प्रतीक है। गायत्री मंत्र के ख्ब् अक्षरों में मनुष्य जाति का ठीक प्रकार प्रदर्शन करने वाली शिक्षाएँ भरी हुई हैं। इसके अतिरिक्त इन अक्षरों का गुंथन रहस्यमय विद्या के रहस्यमय आधार पर भी है। इन अक्षरों के नियमित उपासना से अलौकिक शक्तियाँ एवं आध्यात्मिक गुणों की तेजी से अभिवृद्धि होती है, बुद्धि तीव्र होती है, जिसके आधार पर जीवन की समस्या की अनेक गुत्थियों को सरल किया जा सकता है।
  
यज्ञ का विज्ञान अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। वेदमंत्रों की शब्द शक्ति को विशिष्ट कुण्डों, समिधाओं, हवियों चरुओं के साथ उत्पन्न की हुई विशेष सामर्थ्यवान अग्नि में सम्मिश्रित कर देने पर रेडियो सक्रिय शक्ति तरंगों का आविर्भाव होता है। यह शक्ति तरंगें रैडार यंत्र की तरह संसार के किसी भी भाग में भेजी जा सकती है, किसी व्यक्ति विशेष प्रयोजन के शरीर में भरी जा सकती है, प्रकृति के गुह्य गह्वर में किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रविष्ट कराई जा सकती है।
  
सांस्कृतिक पुनरुत्थान ज्ञान और विज्ञान के बिना असंभव है। भारतीय संस्कृति का बीज मंत्र गायत्री है। उसकी शिक्षाओं तथा शक्तियों के आधार पर हमारा सारा ढाँचा खड़ा हुआ है। भौतिक माता-पिता हमें शरीर संपत्ति, शिक्षा सुविधा, आश्रय, सहयोग, स्नेह आदि बहुत कुछ देते हैं। गायत्री माता और यज्ञ पिता की यदि हम प्रतिष्ठा और उपासना करें, तो इसके द्वारा हम और भी उत्तम एवं महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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