प्याली में सागर समाने जैसा है भक्ति का भाव
देवर्षि ने भगवान दत्त को मन ही मन प्रणाम करते हुए कहा- ‘‘देव! आपके आगमन से मेरा यह सूत्र फलित हो गया है। इसकी व्याख्या आप स्वयं करें।’’ पर प्रकट रूप से वह मौन थे। हालाँकि देवर्षि की इस मनोवाणी को सप्तर्षियों सहित महर्षि लोमश एवं मार्कण्डेय आदि ने भी सुना और फिर सबने उनसे आग्रह किया कि वे देवर्षि के भक्ति सूत्र की व्याख्या करें। सभी के आग्रह पर भगवान दतात्रेय विंहसे और नारद की ओर देखते हुए बोले- ‘‘देवर्षि! आप धन्य हैं, जो इस भक्तिकथा में प्रवृत्त हुए हैं। आपका यह सूत्र यथार्थ है, सार्थक है, इसमें साधना जीवन का सार है।
भावों की परिशुद्धि के साथ जब ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है और यह जीवन का रूपान्तरण करती हुई, परमात्म-ऊर्जा में लय होती है, तभी इस सूत्र का अनुभव होता है। सामान्य भावचेतना तो अपनी अशुद्धियों के कारण परमात्म चेतना की अनुभूति कर ही नहीं सकती। पर रूपान्तरित होने के बावजूद इस अनुभव को सहन कर पाना कठिन है। कुछ ऐसा जैसे कि प्याली में सागर उमड़ आये। जीवात्मा में परमात्मा के उमड़ते ही एक अद्भुत सात्विक-आध्यात्मिक उन्माद छा जाता है, फिर नहीं बचती लोकरीति की लकीरें, नहीं बचती जीवन की क्षुद्रताएँ। होती है तो बस विराट्-व्यापकता में विलीनता। ऐसी मस्ती छाती है कि न मन रुकता है और न तन। जीवन झूम उठता है और गूँजता है भक्ति का भाव संगीत, जो किन्हीं भी सात सुरों का मोहताज नहीं होता, बल्कि इसमें तो सभी सुर-ताल लय हो जाते हैं।’’
भगवान दत्त कह रहे थे और सभी सुन रहे थे। अग-जग में, हिमालय के कण-कण में उनकी वाणी व्याप्त हो रही थी। सभी को यह बात ठीक लग रही थी कि छोटी सी प्याली में सागर समा जाय तो फिर प्याली का पागल होना स्वाभाविक है। बूँद में सागर उतर जाए तो भला बूँदों की दुनिया के नियम कैसे बचेंगे। कुछ वैसे ही जब भक्त के जीवन में सम्पूर्ण भगवत्ता अवतरित होने लगे तो एक आँधी तो आयेगी ही, एक तूफान तो उठेगा ही और फिर जो दृश्य उभरेंगे, जो कुछ घटेगा उससे भक्त स्तब्ध तो होगा ही। ऐसे में वह होता है जो कि कभी हुआ ही नहीं, जिसके बारे में न तो कभी सोचा और न ही कभी जाना। ऐसा बहुत कुछ, बल्कि कहें तो सब कुछ होने लगता है भक्त के जीवन में, जो उसे स्तब्ध करता है। वह हो जाता है अवाक्। उसकी गति रुक जाती है। पहले की सारी गतियाँ थम जाती हैं। अब तक जो भी जाना था, वह व्यर्थ हो जाता है। अब तक जिसे पहचाना था, वह बेगाना हो जाता है।
पहले मत्त, फिर स्तब्ध। ये घटनाएँ एक के बाद एक घटती हैं, फिर जब यह स्तब्धता थमती है तो अंतस् में बहती है एक अलौकिक धारा-आत्मरमण की धारा। बड़ा अद्भुत होता है यह सब। इसे जो जानता है वही जानता है। भगवान दत्त के शब्दों की लय में सभी के मन विलीन हो रहे थे। छायी हुई थी आत्मलीनता। देवर्षि स्वयं भी सुन रहे थे और अनुभव कर रहे थे कि उनके अंतर्यामी नारायण ही आज बाह्य रूप से दत्त भगवान बनकर पधारे हैं। आज भगवान स्वयं अपनी भक्ति की व्याख्या कर रहे हैं। उनकी यह भावनाएँ मौन में ही मुखर थीं। प्रकट में तो वह केवल प्रभु की दिव्यलीला के साक्षी थे।
मन ही मन उन्होंने कहा- ‘‘कुछ और कहें प्रभु!’’ देवर्षि की चेतना में उठे इन स्पन्दनों ने दत्तात्रेय को स्पन्दित किया और वह बोले- ‘‘जो भक्ति पथ पर चलना चाहते हैं, उनसे मेरा यही कहना है कि इस पथ पर पहले तो पीड़ा होगी बहुत, विरह भी होगा। मार्ग में काँटें भी चुभेंगे, आँसू भी बहेंगे, पर भक्त को बिना घबराये आगे बढ़ना है, क्योंकि जो मिलने वाला है वह अनमोल है। जिस दिन मिलेगा उस दिन भक्त उन्मत्त हुए, स्तब्ध हुए, आत्माराम हुए बिना न रहेगा। उसकी एक-एक आस पर हजार-हजार फूल खिलेंगे। उसकी एक-एक पीड़ा, हजार-हजार वरदान लेकर आयेगी।’’ इतना कहते हुए भगवान दत्तात्रेय ने सभी से विदा ली और अंतर्ध्यान हो गये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३४