गुरुवार, 14 सितंबर 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 66)

🌹  मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा

🔴 पुरुषार्थ का नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों को भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है, पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी-कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न आकृति के बच्चे जन्म लेते देखे गए हैं। कभी-कभी कोई पेड़ असमय में ही फल-फूल देने लगता है, कभी-कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद है। इन्हें कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है, पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्व निश्चित भाग्य-विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है, वैसा यदि अमिट ही है, तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती?
 
🔵 हर व्यक्ति अपने-अपने अभीष्ट उद्देश्यों के लिए पुरुषार्थ करने में संलग्न रहता है, इससे प्रकट है कि आत्मा का सुनिश्चित विश्वास पुरुषार्थ के ऊपर है और वह उसी का प्रेरणा निरंतर प्रस्तुत करती रहती है। हमें समझ लेना चाहिए कि ब्रह्मा जी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। जिस प्रकार कल का जमाया हुआ दूध आज दी बन जाता है, उसी प्रकार कल का पुरुषार्थ आज भाग्य बनकर प्रस्तुत होता है। आज के कर्मों का फल आज ही नहीं मिल जाता। उसका परिपाक होने में, परिणाम प्राप्त होने में, परिणाम निकलने में कुछ देर लगती है। यह देरी ही भाग्य कही जा सकती है। परमात्मा समदर्शी और न्यायकारी है, उसे अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं, फिर वह किसी का भाग्य अच्छा, किसी का बुरा लिखने का अन्याय या पक्षपात क्यों करेगा? उसने अपने हर बालक को भले या बुरे कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की है, पर साथ ही यह भी बता दिया है कि उनके भले या बुरे परिणाम भी अवश्य प्राप्त होंगे। इस प्रकार कर्म को ही यदि भाग्य कहें तो अत्युक्ति न होगी।

🔴 हमारे जीवन में अगणित समस्याएँ उलझी हुई गुत्थियों के रूप में विकसित वेष धारण किए सामने खड़ी हैं। इस कटु सत्य को मानना ही चाहिए। उनके उत्पादक हम स्वयं हैं और यदि इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी आदतों, विचारधाराओं, मान्यताओं और गतिविधियों को सुधारने के लिए तैयार हों, तो इन उलझनों को हम स्वयं ही सुलझा सकते हैं। बेचारे ग्रह-नक्षत्रों पर दोष थोपना बेकार है। लाखों-करोड़ों मील दूर दिन-रात चक्कर काटते हुए अपनी मौत के दिन पूरे करने वाले ग्रह-नक्षत्र भला हमें क्या सुख-सुविधा प्रदान करेंगे? उनको छोड़कर सच्चे ग्रहों का पूजन आरंभ करें, जिनकी थोड़ी-सी कृपा-कोर से ही हमारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, सारी आकांक्षाएँ देखते-देखते पूर्ण हो सकती हैं।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.98

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.17

👉 वैराग्य भावना से मनोविकारों का शमन (भाग 1)

🔴 मनुष्य के मस्तिष्क की रचना कुछ इस प्रकार हुई है कि उसमें जिस प्रकार के विचार आयेंगे, वैसा ही आचरण और शरीर पर प्रभाव पड़ेगा। विचार-भावनाओं के अनुरूप ही मनुष्य का निर्माण होता है। विचार शक्ति के द्वारा ही उसके जीवन में उतार-चढ़ाव और परिवर्तन होते हैं। अच्छे विचारों से बुरे विचारों को दबाया जा सकता है। इस प्रकार यह मनुष्य की विशेषता है कि वह जैसा जीवन निर्मित करना चाहे, अपने विचार, अपनी भावनाओं के परिष्कार द्वारा वैसा ही कर सकता है।

🔵 वैराग्य भावना में निस्संदेह बड़ी शक्ति है। बुरे से बुरे संस्कार वैराग्य के बादलों से धुलते देखे गये हैं। कामासक्त तुलसीदास, दुष्ट दुराचारी बाल्मीक, हिंसक व्याध और अंगुलिमाल जैसे व्यक्तियों के हृदय में जब वैराग्य भावना का प्रवाह उमड़ा तो उनके जीवन की धारायें ही बदल गईं। सारे के सारे सन्त, महात्मा और महान् पण्डित बन गये।

🔴 विचार, भाव तथा क्रिया में अत्यन्त सूक्ष्म ग्रहण शीलता रखते हुये साँसारिक विषयों के प्रति निरपेक्ष बने रहने का नाम वैराग्य है। संक्षेप में राग द्वेष के बन्धनों से मुक्त होना ही वैराग्य है। यह भी कह सकते है कि वैराग्य उस अवस्था या स्थिति का नाम है, जब मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ विभिन्न भावों से हटकर चिर सत्य की ओर जागृत हों। इन भावनाओं की शक्ति और सामर्थ्य की थाह पाना निश्चय ही कठिन बात है, क्योंकि जिस किसी के जीवन में भी इन भावनाओं का उदय हुआ, उनका तीव्र विरोध, उपहास और साँसारिक विषय, विकार कुछ कर नहीं पाये। षट-विकारों के शमन का भी श्रेष्ठ उपाय वैराग्य भावनाओं को ही मान सकते हैं। वैराग्य द्वारा ही सात्विक कार्य सम्पन्न होते हैं। वैराग्य का अर्थ है- त्याग, समर्पण, विवेक और सत्य के प्रति श्रद्धा की अनन्य भावना। इस प्रकार वैराग्य में वह सम्पूर्ण शक्तियाँ सन्निहित हैं, जिनमें मनुष्य अपने जीवन में सन्तुलन बनाये रख सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1965 पृष्ठ 2

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/February/v1.2

👉 आज का सद्चिंतन 14 Sep 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Sep 2017


👉 भिखारी ने लौटाया धन

🔵 किसी नगर में एक भिखारी भीख माँगा करता था और वह वंहा पर एक कटोरा लेकर बैठा होता जिसे कुछ देकर जाना होता वो उस कटोरे में डालकर चला जाता। वर्षों से यही चल रहा था और वह सुबह आकर वंहा बैठा जाता और शाम को अँधेरा होने से पहले वंहा से चला जाया करता। कभी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वो कन्हा से आता है और कन्हा जाया करता है।

🔴 वह अन्य भिखारियों की तरह गिडगिडाता भी नहीं था हाँ जब भी कोई आता तो अपना कटोरा आगे कर देता कि जिसको मन होता वह डालकर चला जाता और जिसका मन नहीं होता वो आगे बढ़ जाता लेकिन भिखारी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी एक दिन क्या होता है कि एक आदमी आया उसकी चाल ढाल और महंगे कपडे देख कर और गले मे पड़ी सोने की चैन को देखकर लगता था जैसे वो कोई बहुत ही बड़े घर का आदमी है यही जानकार भिखारी ने भी अपने कटोरे को आगे कर दिया लेकिन वो आदमी ने इस तरह मुह बनाया जैसे कोई कडवी चीज़ उस के मुह में आ गयी हो लेकिन फिर अनमने मन से उनसे अपनी जेब से चवन्नी निकली और कटोरे की जगह नीचे फेंककर आगे बढ़ गया।

🔵 भिखारी वह सब हरकतें देख रहा था उसने आव देखा न ताव और चवन्नी को उठाकर उसकी और फेंकते हुए बोला ये ले अपनी दौलत मुझे तुम जैसे गरीब का पैसा नहीं चाहिए उस अमीर आदमी के पैर वही ठिठक गये। तभी उसे एक धर्म ग्रन्थ में पढ़ी हुई एक बात याद आ गयी की जिस दान के साथ दानदाता खुद को नहीं देता वह दान व्यर्थ है इसलिए उसे अपने किये पर शर्मिंदगी महसूस हुई।

🔴 जिसके पास दिल नहीं है दूसरों के दर्द को समझने की भावना नहीं है उसके पास करोडो की सम्पति होते हुए भी वो गरीब है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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