मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

👉 अहंकार और प्रेम...!!!

👉 जीवन में प्रेम का संचय करें, अहंकार का नहीं।

🔷 जगत की ओर देखने वाला अहंकार से भरा हुआ हो जाता है, प्रभु की ओर देखने वाला प्रेम से पूर्ण होता है।

🔶 अहंकार सदा लेकर प्रसन्न होता है, प्रेम सदा देकर संतुष्ट/आनंदित होता है।

🔷 अहंकार को अकड़ने का अभ्यास है, प्रेम सदा झुक कर विनम्रता से रहता है।

🔶 अहंकार जिस पर बरसता है उसे तोड़ देता है, प्रेम जिस पर बरसता है उसे जोड़ देता है।

🔷 अहंकार दूसरों को ताप देता है, प्रेम शीतल मीठे जल सी तृप्ति देता है।

🔶 अहंकार संग्रह में लगा रहता है, प्रेम बाँट-बाँट कर आगे बढ़ता है।

🔷 अहंकार सबसे आगे रहना चाहता है, प्रेम सबके पीछे रहने में प्रसन्न है।

🔶 अहंकार सब कुछ पाकर भी भिखारी है , प्रेम अकिंचन रहकर भी पूर्ण धनी है।

जीवन प्रेममयी बने।

👉 चांदी की छड़ी

🔷 एक आदमी सागर के किनारे टहल रहा था। एकाएक उसकी नजर चांदी की एक छड़ी पर पड़ी, जो बहती-बहती किनारे आ लगी थी। वह खुश हुआ और झटपट छड़ी उठा ली। अब वह छड़ी लेकर टहलने लगा।

🔶 धूप चढ़ी तो उसका मन सागर में नहाने का हुआ। उसने सोचा, अगर छड़ी को किनारे रखकर नहाऊंगा, तो कोई ले जाएगा। इसलिए वह छड़ी हाथ में ही पकड़ कर नहाने लगा। तभी एक ऊंची लहर आई और तेजी से छड़ी को बहाकर ले गई। वह अफसोस करने लगा और दुखी हो कर तट पर आ बैठा।

🔷 उधर से एक संत आ रहे थे। उसे उदास देख पूछा, इतने दुखी क्यों हो? उसने बताया, स्वामी जी नहाते हुए मेरी चांदी की छड़ी सागर में बह गई। संत ने हैरानी जताई, छड़ी लेकर नहा रहे थे ? वह बोला, क्या करता ? किनारे रख कर नहाता, तो कोई ले जा सकता था।

🔶 लेकिन चांदी की छड़ी ले कर नहाने क्यों आए थे ? स्वामी जी ने पूछा। ले कर नहीं आया था, वह तो यहीं पड़ी मिली थी, उसने बताया। सुन कर स्वामी जी हंसने लगे और बोले, जब वह तुम्हारी थी ही नहीं, तो फिर दुख या उदासी कैसी?

🔷 मित्रों कभी कुछ खुशियां अनायास मिल जाती हैं और कभी कुछ श्रम करने और कष्ट उठाने से मिलती हैं। जो खुशियां अनायास मिलती हैं, परमात्मा की ओर से मिलती हैं, उन्हें सराहने का हमारे पास समय नहीं होता।

🔶 इंसान व्यस्त है तमाम ऐसे सुखों की गिनती करने में, जो उसके पास नहीं हैं- आलीशान बंगला, शानदार कार, स्टेटस, पॉवर वगैरह और भूल जाता है कि एक दिन सब कुछ यूं ही छोड़कर उसे अगले सफर में निकल जाना है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 25 April 2018


👉 युग-निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद

🔷 युग-निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद है। हम हर बात को उचित-अनुचित की कसौटी पर कसना सीखें। जो उचित हो वही करें, जो ग्राह्य हो वही ग्रहण करें, जो करने लायक हो उसी को करें। लोग क्या कहते हैं, क्या कहेंगे, इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें सोचना होगा कि लोग दो तरह के हैं। एक विचारशील दूसरे अविचारी।

🔶 विवेकशील पाँच व्यक्तियों की सम्मति, अविचारी पाँच लाख व्यक्तियों के समान वजन रखती हैं। विवेकशीलों की संख्या सदा ही कम रही है। वन में सिंह थोड़े और सियार बहुत रहते हैं। एक सिंह की दहाड़, हजारों सियारों की हुआ-हुआ से अधिक महत्त्व रखती है। विचारशील वर्ग के थोड़े से व्यक्ति, विवेकसम्मत कदम बढ़ाने का दृढ़ निश्चय कर लें तो व्याप्त विकृतियाँ उसी प्रकार छिन्न-भिन्न हो जायेंगी जैसे प्रचण्ड सूर्य के उदय होते ही कोहरा। मनुष्य की शक्तियों, क्षमताओं को वांछित दिशा में लगाने के लिए यह करना ही होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (५.१२)

👉 साधना से साहस

🔷 मित्रो ! साधना का प्रयोजन अपने भीतर की महानता को विकसित करना ही है। बाहर व्यापक क्षेत्र में भी देव शक्तियाँ विद्यमान हैं। पर उनके लिए समष्टि विश्व की देखभाल का विस्तृत कार्य क्षेत्र नियत रहता है। व्यक्ति की भूमिका के अनुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करने-सफलता और वरदान देने का कार्य उनके वे अंश ही पूरा करते हैं जो बीज रूप में हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। सूर्य का अंश आँख में मौजूद है। यदि आँखें सही हों तो ही विराट् सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाया जा सकता है। अपने कान ठीक हों तो ही बाहर के ध्वनि प्रवाह की कुछ उपयोगिता है। इसी प्रकार अपने भीतर के हेय बीज यदि विकसित परिष्कृत हों तो उनके माध्यम से विश्वव्यापी देवतत्वों के साथ सम्बन्ध जोडऩा आकर्षित करना और उनका सहयोग अनुग्रह प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

🔶 मित्रो! इक्कीसवीं सदी रूपी गंगावतरण को उन भगीरथों की आवश्यकता है, जो सूखे पड़े विशाल क्षेत्र की प्यास बुझाने के लिए राजपाट का व्यामोह छोड़कर तप-साधना का मार्ग अपनाने का असाधारण साहस दिखा सकें।

🔷 जिनका साहस उभरे, उन्हें करना इतना भर है कि अपनी पहुँच से प्रज्ञा पुत्रों को महाकाल की चुनौती से अवगत कराएँ और युग धर्म के परिपालन में वरिष्ठों को क्या करने के लिए बाधित होना पड़ता है, इसका स्वरूप समझाते हुए उन्हें नए सिरे से नई उमंगों का धनी बना सकने की स्थिति उत्पन्न करें। अपना परिवार इतना बड़ा, इतना समर्थ और इतना प्रबुद्ध है कि उस परिवार के लोग ही नव सृजन में जुट सकें, तो असंख्य-अनेक को अपना सहयोगी बनाने में निश्चित रूप से सफल हो सकते हैं। उतने भर से वह गति चक्र घूमने लगेगा जो नया इन्सान बनाने, नया संसार बसाने की युग चेतना को समुचित सहयोग दे सकें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 King Nripendra

🔷 The glory of king Nripendra of Mahismati had spread far and wide like the scattered luminescence of the full moon. The treasury, army, power and beauty-everything was in plentiful abundance. King Nripendra was just and benevolent towards his subjects  who, in turn, held him in great adoration.

🔶 Time passed. Strengths declined. Old age began to creep over and with this gradually increased the king’s inner disquiet and dissatisfaction. He withdrew into a shell of silence and stopped seeing anybody . Restless and sad, the king was always  seen immersed in brooding.

🔷 One day, very early in the morning, the king strolled over the palace garden. Sitting on a quartz rock, and facing east, he was engrossed for long in an inward search for something. Slowly the sun rose over the horizon. Its vibrant rays fell upon the pond and stirred the ‘thousand petalled’ lotus. The flower was soon in full bloom and began spreading its beauty and fragrance all over.

🔶 The divine inner voice spoke: “Can you still not grasp the mystery of the sun’s splendour? From where does its brilliance come? Is not the radiating light the sun’s own inner pulsation? The fragrance of the lotus comes from within. This whole flux of life you see everywhere has sprouted forth from within the cosmic spirit. The source of delight is hidden inside you. You will have to awaken it. For this, you have to orient yourself inward and do jivana sadhana

📖 From Akhand Jyoti

👉 गुरुगीता (भाग 94)

👉 सद्गुरु को तत्त्व से जान लेने का मर्म

🔷 ध्यान से तत्त्वज्ञान के क्रम में माँ भवानी भगवान् सदाशिव से जिज्ञासा करती हैं-
श्री पार्वत्युवाच-

🔶 पिण्डं किंतु महादेव पदं कि समुदाहृतम्। रूपातीतं च रूपं किं एतद् आख्याहि शंकर॥ १२०॥

🔷 श्री पार्वती कहती हैं- पिण्ड क्या है? पद किसे कहते हैं? हे शंकर रूप क्या है और रूपातीत क्या है? यह आप हमें बताएँ।
  
🔶 जगन्माता भवानी की ये जिज्ञासाएँ जीव को तत्त्व बोध कराने वाली हैं। सन्तान की सबसे अधिक चिन्ता माता को होती है। माँ के सिवा अपनी सन्तान की कल्याण कामना भला और कौन करेगा? इसी कल्याण कामना से प्रेरित होकर माता ने जगदीश्वर से ये जिज्ञासाएँ कीं। इन जिज्ञासाओं की गहनता एवं व्यापकता अति विस्तार लिए हुए है। इन कुछ प्रश्नों में अध्यात्म का मूल मर्म है। अध्यात्मज्ञान के जो भी मौलिक सवाल हैं- वे सभी इनमें समाए हुए हैं। इनके हल होने से जीवन की सभी गुत्थियाँ स्वयं ही सुलझ जाती हैं। हालाँकि इनको सही ढंग से समझने के लिए इन सभी प्रश्नों पर एक-एक करके विचार करने की जरूरत है।
  
🔷 इनमें से सबसे पहला सवाल है पिण्ड क्या है? सामान्यतया यह सभी जानते हैं कि पिण्ड देह को कहते हैं। देह की अनुभूति सभी को होती है। विशेषज्ञ इसकी रचना, क्रिया, विकृतियों एवं इसके समाधान को जानते हैं। चिकित्सा विशेषज्ञ वर्षों तक लगातार इसे पढ़ते हैं-इसके बारे में अनुसन्धान करते हैं। हालाँकि इस अथक परिश्रम के बावजूद कबूल करते हैं कि उनके शोध प्रयास अभी अधूरे हैं। इस देह ज्ञान से अलग पिण्ड का तत्त्वज्ञान अलग है। पिण्ड चिकित्सा विज्ञान का शब्द न होकर योग विज्ञान का शब्द है। इसे योग की दृष्टि से ही सोचा और जाना जाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 142

👉 आज का सद्चिंतन 24 April 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 April 2018

👉 बाँस का पेड़

🔶 एक संत अपने शिष्य के साथ जंगल में जा रहे थे। ढलान पर से गुजरते अचानक शिष्य का पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की ओर लुढ़कने लगा। वह खाई में गिरने ही वाला था कि तभी उसके हाथ में बांस का एक पौधा आ गया। उसने बांस के पौधे को मजबूती से पकड़ लिया और वह खाई में गिरने से बच गया।

🔷 बांस धनुष की तरह मुड़ गया लेकिन न तो वह जमीन से उखड़ा और न ही टूटा. वह बांस को मजबूती से पकड़कर लटका रहा। थोड़ी देर बाद उसके गुरू पहुंचे।उन्होंने हाथ का सहारा देकर शिष्य को ऊपर खींच लिया। दोनों अपने रास्ते पर आगे बढ़ चले।

🔶 राह में संत ने शिष्य से कहा- जान बचाने वाले बांस ने तुमसे कुछ कहा, तुमने सुना क्या?  शिष्य ने कहा- नहीं गुरुजी, शायद प्राण संकट में थे इसलिए मैंने ध्यान नहीं दिया और मुझे तो पेड-पौधों की भाषा भी नहीं आती. आप ही बता दीजिए उसका संदेश।

🔷 गुरु मुस्कुराए- खाई में गिरते समय तुमने जिस बांस को पकड़ लिया था, वह पूरी तरह मुड़ गया था।फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और जान बची ली। संत ने बात आगे बढ़ाई- बांस ने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया वह मैं तुम्हें दिखाता हूं।

🔶 गुरू ने रास्ते में खड़े बांस के एक पौधे को खींचा औऱ फिर छोड़ दिया। बांस लचककर अपनी जगह पर वापस लौट गया।

🔷 हमें बांस की इसी लचीलेपन की खूबी को अपनाना चाहिए। तेज हवाएं बांसों के झुरमुट को झकझोर कर उखाड़ने की कोशिश करती हैं लेकिन वह आगे-पीछे डोलता मजबूती से धरती में जमा रहता है।

🔶 बांस ने तुम्हारे लिए यही संदेश भेजा है कि जीवन में जब भी मुश्किल दौर आए तो थोड़ा झुककर विनम्र बन जाना लेकिन टूटना नहीं क्योंकि बुरा दौर निकलते ही पुन: अपनी स्थिति में दोबारा पहुंच सकते हो।

🔷 शिष्य बड़े गौर से सुनता रहा। गुरु ने आगे कहा- बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है बल्कि यह उस तनाव को अपनी शक्ति बना लेता है और दुगनी गति से ऊपर उठता है। बांस ने कहा कि तुम अपने जीवन में इसी तरह लचीले बने रहना।

🔶 गुरू ने शिष्य को कहा- पुत्र पेड़-पौधों की भाषा मुझे भी नहीं आती।

🔷 बेजुबान प्राणी हमें अपने आचरण से बहुत कुछ सिखाते हैं। जरा सोचिए कितनी बड़ी बात है। हमें सीखने के सबसे ज्यादा अवसर उनसे मिलते हैं जो अपने प्रवचन से नहीं बल्कि कर्म से हमें लाख टके की बात सिखाते हैं।

👉 हम नहीं पहचान पाते, तो यह कमी हमारी है।

👉 आदर्शवादिता का पुट घोले रहने की आदत

🔶 हमें अपने आपको एक प्रकाश यंत्र के रूप में, प्रचार तंत्र के रूप में विकसित करना चाहिए। भले ही लेख लिखना, भाषण देना न आये पर सामान्य वार्तालाप में आदर्शवादिता का पुट घोले रहने की आदत डाले रह सकते हैं और इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में नवनिर्माण विचारधारा के लिए गहरा स्थान बना सकने में सफल हो सकते हैं  इसके लिए न अलग से समय निकालने की आवश्यकता  है, न अतिरिक्त कार्यक्रम बनाने की। साधारण दैनिक वार्तालाप में आदर्शवादी परामर्श एवं प्रेरणा देते रहने की अपनी आदत बनानी पड़ती है और यह परमार्थ प्रयोजन सहज ही, अनायास ही स्वसंचालित रीति से अपना काम करता है।

🔷 यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि किसी व्यक्ति को उसकी गलती सुनना मंजूर नहीं। गलती बताने वाले को अपना अपमानकर्ता समझता है और अपने पूर्वाग्रह को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसी का समर्थन करने में अपनी मान रक्षा समझता है। इसलिए जनमानस की अति दु:खद दुर्बलता को हमें ध्यान में रखना होगा और जो बात कहनी है, सीधे आदेश देने या सीधी गलती बताने की अपेक्षा उसे घुमाकर कहना चाहिए। यदि इतनी कुशलता सीख ली गई तो फिर बिना विरोध का सामना किए अपना तीर निशाने पर लगा रहेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (१.५४)

👉 Everything with a little bit of idealism

🔶 We should develop ourselves into devices that illuminate and into systems that disseminate. We may not know how to write articles, we may not be orators. We can, however, infuse our sincere ideals into our day to day conversations, making every interaction a tiny and solid step in the direction of spreading the tenets of our thought revolution movement. No special provisions need to be made for this effort, it is a brilliant yet natural way to be consistently at work via honest, sincere, and inspiring social interactions.

🔷 It is of utmost importance to remember that we do like to be criticized. We are prone to view the criticism as an assault that only propels us into the self-defending pattern of sticking strongly to our position. The best way to get our point across, therefore, is to be mindful that criticism is not an effective vehicle of communicating ideals. The way to successful dissemination of ideals is communication that is compassionate, respectful, and positive.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (1.54)

👉 गुरुगीता (भाग 93)

👉 सद्गुरु को तत्त्व से जान लेने का मर्म
🔶 गुरुगीता के महामन्त्रों में भक्ति रहस्य के साथ तत्त्व रहस्य भी समाया है। दृष्टि में यथार्थता आ सके, तो अनुभव होता है कि भक्ति एवं तत्त्व ज्ञान दोनों आपस में गुँथे हैं। साधक के अन्तःकरण में गुरुभक्ति का उदय उसमें आध्यात्मिक प्रकाश की पहली किरण की तरह होता है। गुरुभक्ति की प्रगाढ़ता के साथ साधक की अन्तर्चेतना सूक्ष्म होती जाती है। इसी के साथ उसके अनुभवों की सीमाएँ व्यापक हो जाती हैं। इनके स्तर एवं स्थिति में भी बदलाव आता है। इस प्रक्रिया के क्रमिक रूप में साधक की सत्य एवं तत्त्व की झलक मिलती है। हालाँकि यह सम्पूर्ण आयोजन दीर्घकालीन है; परन्तु भक्ति से तत्त्वज्ञान के परिणाम सुनिश्चित हैं। जो शिष्य-साधक इस डगर पर संकल्पित होकर चल देते हैं- उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मिलना निश्चित हो जाता है।

🔷 गुरुगीता की भक्तिकथा में इस सत्य के कई आयाम प्रकट हो चुके हैं। पिछले मंत्र में ध्यान की नयी प्रक्रिया सुझायी गयी है। इसमें भगवान् सदाशिव के कथन को उजागर करते हुए बताया गया है कि हृदय में चिन्मय आत्मज्योति के अंगुष्ठ मात्र स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। इस ध्यान की गहनता एवं प्रगाढ़ता में साधक को अगम-अगोचर ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति होती है। जिस तरह से सुगन्धित पदार्थों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध व्याप्त है, उसी तरह से परमात्मा सर्वव्यापी है। अपनी आत्मचेतना में ध्यान करते रहने से कीट-भ्रमर न्याय की भाँति यह जीवात्मा आत्मतत्त्व का अनुभव करते हुए ब्रह्मतत्त्व में विलीन हो जाता है। ध्यान के इस शिखर में साधक को यह अनुभव होता है कि अपने सद्गुरु निराकार स्वरूप ही ब्राह्मी चेतना हैं। जो सद्गुरु को तत्त्व से जान लेता है, वह सही मायने में तत्त्ववेत्ता हो जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 140

👉 Chanakaya

🔶 From the very beginning, Chanakaya constantly strived to make his country, religion and its culture more and more glorious. When Alexender attacked India, he was teaching in Takshashila. He advised Chandragupta, a student of his, to enroll himself in the army of Alexender so as to learn the foreign art of artillery and fighting techniques.
  
🔷 On the other hand Padmanand, the then rules of Magadha was callous and used to torture the hoi polloi. Therefore, Chanakya diplomatically managed to make Chandragupta the King of Magadha. Though Chanakya was a great scholar, he lived in a hut throught his life and remained a celibate. In fact, the whole kingdom was ruled  as per his instructions and guidance. But he never craved for money or formal position. The life of Chanakya was an epitome of discipline and true scholarship.

📖 From Akhand Jyoti

👉 बाद में पछताना नहीं पड़े

🔶 मित्रो ! इन दिनों जागृत आत्माओं की पीठ पर उदबोधनों के चाबुक इसीलिए जमाए जा रहे हैं कि अवसर को टालने के लिए वे वास्तविक,अवास्तविक बहानों की आड़ न लें। समय किसी की प्रतीक्षा करने वाला नहीं है। अवसर चूकने वाले यों सदा ही पछताते हैं, पर यह अलभ्य अवसर ऐसा है जिससे मात्र जागृतात्माओं को ही पछताना पड़ेगा। अनगढ़, प्रसुप्त, अबोध, असमर्थ, अपंग, असहाय तो करुणा के पात्र होने के कारण क्षम्य भी समझे जाते हैं, किंतु समर्थ और प्रखर व्यक्ति जब आपत्तिकाल आने पर भी मुँह छिपाते दुम दबाते हैं तो स्थिति दूसरी ही होती है। युग धर्म के निर्वाह में हर किसी को बाधित नहीं किया जा सकता किंतु जागृत आत्माएँ तो एक प्रकार से अनिवार्य बाधित हैं।
  
🔷 भीतर के महान को जगाना चाहिए और अपने विवेक के सहारे अपने पैरों पर चलने के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖  सेवा ही पुरुषार्थ पृष्ठ नं-२१

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...