चलते रहो-चलते रहो, इसका तात्पर्य विस्तृत है। इसका एक अर्थ यह भी है कि कुछ न कुछ कार्य करते रहो। आलस्य में निष्क्रिय जीवन व्यतीत न करो। एक कार्य के पश्चात् दूसरा कोई नवीन कार्य आरंभ करो। मानसिक कार्य के पश्चात् शारीरिक, शारीरिक श्रम के पश्चात् मानसिक कार्य-यह क्रम रखने से मनुष्य निरन्तर कार्यशीलता का जीवन व्यतीत कर सकता है। आलसी व्यक्ति परिवार तथा समाज का शत्रु है।
सुसंस्कार किसी पूजा-पाठ या कर्मकाण्ड से नहीं जम सकते। कथा-कीर्तन से लेकर तीर्थयात्रा तक के क्रिया-कृत्यों से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। योगाभ्यास और तप-साधना की शारीरिक, मानसिक कसरतें भी उस आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं। इन समस्त आचरणों का मूल उद्देश्य एक ही है-उच्च स्तरीय आस्थाओं, आकाँक्षाओं, आदर्शों की अंतःकरण में इतनी सघन स्थापना जिसकी प्रेरणा से अपनी गतिविधियाँ केवल श्रेष्ठ सत्कर्मों की दिशा में ही गतिशील रह सकें।
खेद का विषय है कि हम नित्य प्रति के जीवन में विचार शक्ति का बड़ा अपव्यय करते हैं। जितनी शक्ति फिजूद बर्बाद होती है उसके थोड़े से भाग को यदि उचित रीति से इस्तेमाल करें तो स्वभाव तथा आदतें आसानी से बदली जा सकती है। जिस समय विचारधारा नीचे से ऊपर को चढ़ती है तो मनुष्य स्वयं अपना मित्र बन जाता है। जब विचारधारा ऊपर से नीचे को गिरती है तो वह अपने आप ही अपना शत्रु बन जाता है।
सुसंस्कार किसी पूजा-पाठ या कर्मकाण्ड से नहीं जम सकते। कथा-कीर्तन से लेकर तीर्थयात्रा तक के क्रिया-कृत्यों से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। योगाभ्यास और तप-साधना की शारीरिक, मानसिक कसरतें भी उस आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं। इन समस्त आचरणों का मूल उद्देश्य एक ही है-उच्च स्तरीय आस्थाओं, आकाँक्षाओं, आदर्शों की अंतःकरण में इतनी सघन स्थापना जिसकी प्रेरणा से अपनी गतिविधियाँ केवल श्रेष्ठ सत्कर्मों की दिशा में ही गतिशील रह सकें।
खेद का विषय है कि हम नित्य प्रति के जीवन में विचार शक्ति का बड़ा अपव्यय करते हैं। जितनी शक्ति फिजूद बर्बाद होती है उसके थोड़े से भाग को यदि उचित रीति से इस्तेमाल करें तो स्वभाव तथा आदतें आसानी से बदली जा सकती है। जिस समय विचारधारा नीचे से ऊपर को चढ़ती है तो मनुष्य स्वयं अपना मित्र बन जाता है। जब विचारधारा ऊपर से नीचे को गिरती है तो वह अपने आप ही अपना शत्रु बन जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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