बुधवार, 4 सितंबर 2019

👉 "मर्द"..आज के..

आज हमेंशा की तरह ट्रेन में कम भीड़ थी,पुष्पा ने खाली जगह पर अपना ऑफिस बैग रखा और खुद बगल में बैठ गई। पूरे डिब्बे में कुछ मर्दों के अलावा सिर्फ पुष्पा ही थी। रात का समय था सब उनींदे से सीट पर टेक लगाये या तो बतिया रहे थे या ऊंघ रहे थे।

अचानक डिब्बे में 3-4 तृतीय लिंगी तालियां बजाते हुए पहुंचे और मर्दों से 5-10 रूपये वसूलने लगे कुछ ने चुपचाप दे दिए और कुछ उनींदे से बड़बड़ाने लगे- क्या मौसी रात को तो छोड़ दिया करो ये हफ्ता वसूली... वह सभी पुष्पा की तरफ रुख न करते हुए सीधा आगे बढ़ गए, फिर ट्रेन कुछ देर रुकी और कुछ लड़के चढ़े, फिर दौड़ ली आगे की ओर।

पुष्पा की मंजिल अभी 1 घंटे के फासले पर थी वे 4-5 लड़के पुष्पा के नजदीक खड़े हो गए और उनमे से एक ने नीचे से उपर तक पुष्पा को ललचाई नजरो से देखा और बोला -मैडम अपना ये बैग तो उठा लो सीट बैठने के लिए है, सामान रखने के लिए नहीं।

साथी लड़कों ने वीभत्स हंसी से उसका साथ दिया, पुष्पा ने अपना बैग उठाया और सीट पर सिमट कर बैठ गई। वे सारे लड़के पुष्पा के बगल में आकर बैठ गए।

पुष्पा ने कातर नजरों से सामने बैठे 2-3 पुरुषों की ओर देखा पर वे ऐसा जाहिर करने लगे मानो पुष्पा का कोई अस्तित्व ही ना हो। तभी पास बैठे लड़के ने पुष्पा की बांह पर अपनी ऊंगली फेरी तो बाकी लड़कों ने फिर उसी वीभत्स हंसी से उसका उत्साहवर्धन किया।

ओ मिस्टर थोड़ा तमीज में रहिये- पुष्पा सीट से उठ खड़ी हुई और ऊंची आवाज में बोली। डिब्बे के सभी मर्द अब भी अपनी अपनी मोबाइल में विचरण कर रहे थे। किसी के मुंह से कुछ नहीं निकला।

अरे..अरे मैडम तो गुस्सा हो गईं,अरे बैठ जाइये मैडम आपकी और हमारी मंजिल अभी दूर है तब तक हम आपका मनोरंजन करते रहेंगे,कत्थई दांतों वाला लड़का पुष्पा का हाथ पकड़कर बोला।

डिब्बे की सारीं सीटों पर मानो पत्थर की मूर्तियां विराजमान थी। तभी...अरे तूं क्या मनोरंजन करेगा? हम करतें हैं तेरा मनोरंजन।

शबाना उठा रे लहंगा, ले इस चिकने को लहंगे में बड़ी जवानी चढ़ी है इसे। आय हाय मुंह तो देखो सुअरों का,कुतिया भी ना चाटे। इनके बदन में बड़ी मस्ती चढ़ी है,अरे वो जूली उतारो इनके कपड़े,पूरी मस्ती निकालते हैं इन कमीनों की।

जूली नाम का भयंकर डीलडौल वाला तृतीय लिंगी जब उन लड़कों की तरफ बढ़ा तो सभी लड़के डिब्बे के दरवाजे की ओर भाग निकले और धीमे चलती ट्रेन से बाहर कूद पड़े।
पुष्पा की भीगी आंखों ने अपनी सुरक्षा करने के लिए सिर झुकाकर उन सभी तृतीय लिगिंयों का अभिवादन किया और फिर नजर जब डिब्बे के कथित मर्दों की तरफ पड़ी जो अपनी आंखे झुकाएं अपनी मोबाइल में व्यस्त थे।

और असली मर्द तालियां बजाते आगे की ओर बढ़ गये।
कौन है असली मर्द??

👉 स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता (भाग ३)

एक वकालत में ही नहीं, किसी भी विषय अथवा क्षेत्र में अध्ययन-शीलता एवं अध्ययन-हीनता का परिणाम एक जैसा ही होता है। इसमें चिर, नवीन अवस्था का कोई आपेक्ष नहीं होता। यह एक वैज्ञानिक सत्य है जिसमें अपवाद के लिए कोई गुँजाइश नहीं है।

धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र ले लीजिये कोई अमुक नित्य चार-चार बार पूजा करता, तीन-तीन घण्टे आसन लगाता, जाप करता अथवा कीर्तन में मग्न रहता। व्रत-उपवास रखता, दान-दक्षिणा देता है, किन्तु शास्त्रों अथवा सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, उनके विचारों का चिन्तन-मनन नहीं करता। सोच लेता है जब मैं इतना क्रिया-काण्ड करता हूँ तो इसके बाद अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आत्म-ज्ञान अथवा परमात्म अनुभूति करा देने के लिए इतना ही पर्याप्त है तो निश्चय ही वह भ्रम में है। आत्मा का क्षेत्र वैचारिक क्षेत्र है, सूक्ष्म भावनाओं एवं मनन-चिन्तन का क्षेत्र हैं।

अध्ययन के अभाव में इस आत्म-जगत् में गति कठिन है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान अथवा परमात्मा के अस्तित्व का परिचय प्राप्त हुए बिना उनसे संपर्क किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है? इस अविगत का ज्ञान तो उन महान् मनीषियों का अनुभव अध्ययन करने से ही प्राप्त हो सकना सम्भव है, जो अवतार रूप में संसार को वेदों का ज्ञान देने के लिए परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं। आसन ध्यान, पूजा-पाठ तो प्रधान रूप से बुद्धि को परिष्कृत और आचरण को उज्ज्वल बनाने के लिये, इस हेतु करना आवश्यक है कि अध्यात्म के दैविक तत्त्व को समझने और ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो सके। इसके विपरीत यदि एक बार पूजा-पाठ को स्थगित भी रखा जाये और एकाग्रता एवं आस्थापूर्वक स्वाध्याय और उसका चिन्तन मनन भी किया जाये तो बहुत कुछ उस दिशा में बढ़ा जा सकता है। स्वाध्याय स्वयं ही एक तप, आसन और निदिप्यास के समान है। इसका नियम निर्वाह से आप ही आप अनेक नियम, संयमों का अभ्यास हो जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 4 Sep 2019




👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prerak Prasang 4 Sep 2019



👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ६२)

👉 अति विलक्षण स्वाध्याय चिकित्सा

पाण्डिचेरी आश्रम महर्षि श्री अरविन्द के शिष्य नलिनीकान्त गुप्त ने स्वाध्याय के बारे में अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कई मर्मिक बातें कही हैं। यहाँ ध्यान दिलाना आवश्यक है कि नलिनीकान्त अपनी सोलह वर्ष की आयु से लगातार श्री अरविन्द के पास रहे। श्री अरविन्द उन्हें अपनी अन्तरात्मा का साथी- सहचर बताते थे। वह लिखते हैं कि आश्रम में आने पर अन्यों की तरह मैं भी बहुत पढ़ा करता है। अनेक तरह के शास्त्र एवं अनेक तरह की पुस्तकें पढ़ना स्वभाव बन गया था। एक दिन श्री अरविन्द ने बुलाकर उनसे पूछा- इतना सब किसलिए पढ़ता था। उनके इस प्रश्र का सहसा कोई जवाब नलिनीकान्त को न सूझा। वह बस मौन रहे।

वातावरण की इस चुप्पी को तोड़ते हुए श्री अरविन्द बोले- देख पढ़ना बुरा नहीं है। पर यह पढ़ना दो तरह का होता है- एक बौद्धिक विकास के लिए, दूसरा मन- प्राण को स्वस्थ करने के लिए। इस दूसरे को स्वाध्याय कहते हैं और पहले को अध्ययन। तुम इतना अध्ययन करते हो सो ठीक है, पर स्वाध्याय भी किया करो। इसके लिए अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप किसी मन्त्र या विचार का चयन करो। और फिर उसके अनुरूप स्वयं को ढालने की साधना करो। नलिनीकान्त लिखते हैं, यह बात उस समय की है, जब श्री अरविन्द सावित्री पूरा कर रहे थे। मैंने इसी को अपने स्वाध्याय की चिकित्सा की औषधि बना लिया।

फिर मेरा नित्य का क्रम बन गया। सावित्री के एक पद को नींद से जगते ही प्रातःकाल पढ़ना और सोते समय तक प्रतिपल- प्रतिक्षण उस पर मनन करना। उसी के अनुसार साधना की दिशा- धारा तय करना। इसके बाद इस तय क्रम के अनुसार जीवन शैली- साधना शैली विकसित कर लेना। उनका यह स्वाध्याय क्रम इतना प्रगाढ़ हुआ कि बाद के दिनों में जब श्री अरविन्द से किसी ने पूछा- कि आपके और माताजी के बाद यहाँ साधना की दृष्टि से कौन है? तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- नलिनी। इतना कहकर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, ‘नलिनी इज़ इम्बॉडीमेण्ट ऑफ प्यूरिटी’ यानि कि नलिनी पवित्रता की मूर्ति है। नलिनी ने वह सब कुछ पा लिया है जो मैंने या माता जी ने पाया है। ऐसी उपलब्धियाँ हुई थीं स्वाध्याय चिकित्सा से नलिनीकान्त को। हालांकि वह कहा करते थे कि स्वस्थ जीवन के लिए शुरूआत अपनी स्थिति के अनुसार मन के स्थान पर तन से भी की जा सकती है। इसके लिए हठयोग की विधियाँ श्रेष्ठ हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८५

👉 आत्मचिंतन के क्षण 4 Sep 2019

★ मानसिक रोगों का एक कारण मनोविज्ञानी आत्म केन्द्रित होना बताते हैं। व्यक्ति जितना आत्म केन्द्रित होगा उतनी ही मानस रोग एवं शारीरिक रोग की संभावना उसमें बढ़ जाएगी। संभवत: इस तथ्य से हमारे प्राचीन ऋषि परिचित रहे होंगे । इसलिए "आत्मवत सर्वभूतेषु" और "वसुधैव कुटुम्बकम्" जैसे सिद्धान्त-वाक्यों के पीछे उनका एक भाव व्यक्ति और सामाज को आत्मकेन्द्रित होने से बचाना भी होगा, ताकि स्वरुप मन और स्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति और समाज की रचना की जा सके। 
 
□ पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से संसार में स्वार्थपरता की वृद्धि के साथ ही ईश्वर से विमुखता का भाव भी जोर पकड रहा था। अब कई बार ठोकरें खाने के बाद संसार को विशेष रुप से सबसे धनी और ऐश्वर्यशाली देशों को फिर से ईश्वर की याद आ रही है। केवल धन से ही सुख तथा शान्ति नहीं मिलती। इसके लिए चित्त की शुद्धता बिना विवेक के संभव नहीं और विवेक धर्म तथा ईश्वर के ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।
 
◆ मनुष्य चाहे समाज की दृष्टि से बचकर चुपचाप कोई पाप कर डाले, जंगल में छिपकर किसी की हत्या कर डाले, रात के घनघोर अन्धकार में पाप कर ले, लेकिन सर्वव्यापक परमात्मा की दिनरात, भीतर बाहर सब ओर देखने वाली असंख्य दृष्टियों से नहीं बच सकता। घर, बाहर, जंगल, समुद्र, आकाश, व्यवहार, व्यापार सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर है। आप की अलग कोई सत्ता नहीं है। आप स्वयं ही अपने अन्दर परमात्मा को बसाये हुए हैं।

◇ जिस प्रकार शरीर के रोग हैं उसी प्रकार मन के रोग भी हैं और वे मनुष्य की कल्पना से ही जन्म लेते हैं। जब मन में क्रोध होता है तो किसी से बदला लेने की इच्छा होती है। ईर्ष्या होती है तो मन अशान्त हो जाता है और मन दु:खी रहता है। अनेक लोग दुसरों को झूठ-मूँठ शत्रु अथवा प्रतियोगी समझकर दुख पाते हैं। जिस मनुष्य ने अपने जीवन में अनेक अत्याचार किये हैं वह भी मरने के समय उनकी स्मृति से अत्यन्त दु:ख को प्राप्त होता है। चुगलखोर के मन में एक प्रकार की खुजलाहट बनी रहती है जो उसके मन को सदैव अशान्त रखती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...