👉 प्राक्कथन
भारतीय इतिहास-पुराणों में ऐसे अगणित उपाख्यान है, जिनसे मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समास्याओं के समाधान विघमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया है,जो युग समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरुप योगदान दे सकें।
सर्ववदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन-प्रतिपादन उन्हीं के गले उतरते है,जिनकी सुविकसित मनोभूमि है, परंतु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध, नर-नारी, शिक्षित अशिक्षित सभी की समझ में आते है और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहूँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
कथा साहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल १८ पुराण लिखे गए। उनसे भी कान न चला तो १८ उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर १०,०००,००० श्लोक है,जबकी चारों वेदों में मात्र बीस हजार मंत्र है। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के एक पलड़े पर रखा जाय और अन्य साहित्य को दूसरे पर तो कथाएँ ही भरी पड़ेगी। फिल्मों की लोकप्रियता का कारण भी उनके कथानक ही है।
समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियों मान्यताएँ, प्रथाएँ,समस्याएँ एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती है। तदनुरुप ही उसके समाधान खोजने पड़ते है। इस शाश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है। जिसमें प्रस्तुत प्रसंगों से उपयुक्त प्रकाश एवं मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनुकानेक मन:स्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरुप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस ग्रंथ के सृजन का प्रयास किया गया है।
भविष्य का हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा ही सक्रिया रहेगा, हाथ भले ही किन्हीं के भी हों । यदि अवसर मिल सका, तो और भी अनेकों खण्ड प्रकाशित होते चले जायेंगे। कामना तो यह है कि युग पुराण के प्रज्ञा-पुराणों के भी पुरातन १८ पुराणों की तरह १८ खण्डों का सृजन बन पड़े।
संस्कृत श्लोकों तथा उसके अथों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इस पुराण में किया गया है। वस्तुत; इसमें युग दर्शन का मर्म निहित है। सिद्धांतों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृत नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी व्याख्या पढ़ लेने से भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिन तथ्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन निजी स्वाध्याय के रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक सत्संग के रूप में भी। रात्रि के समय पारिवारिक लोक शिक्षण की दृष्टि से भी इसका उपयोग हो सकता है। बच्चे कथाऐं सुनने को उत्सुक रहते हैं। बड़ों को धर्म परम्पराऐं समझने की इच्छा रहती है। इनकी पूर्ति भी घर में इस आधार पर कथा क्रम और समय निर्धारित करके की जा सकती है।
प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उद्भूत आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है । भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप से अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है एवं अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है ।
✍🏻 प्रज्ञा पुराण (भाग १)
📖 श्रीराम शर्मा आचार्य
Sansaar Me Sabhi Tarah Ke Log Hai
Dr Chinmay Pandya
👇👇👇
https://youtu.be/pZ3oeh9CPp0
भारतीय इतिहास-पुराणों में ऐसे अगणित उपाख्यान है, जिनसे मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समास्याओं के समाधान विघमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया है,जो युग समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरुप योगदान दे सकें।
सर्ववदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन-प्रतिपादन उन्हीं के गले उतरते है,जिनकी सुविकसित मनोभूमि है, परंतु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध, नर-नारी, शिक्षित अशिक्षित सभी की समझ में आते है और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहूँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
कथा साहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल १८ पुराण लिखे गए। उनसे भी कान न चला तो १८ उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर १०,०००,००० श्लोक है,जबकी चारों वेदों में मात्र बीस हजार मंत्र है। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के एक पलड़े पर रखा जाय और अन्य साहित्य को दूसरे पर तो कथाएँ ही भरी पड़ेगी। फिल्मों की लोकप्रियता का कारण भी उनके कथानक ही है।
समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियों मान्यताएँ, प्रथाएँ,समस्याएँ एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती है। तदनुरुप ही उसके समाधान खोजने पड़ते है। इस शाश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है। जिसमें प्रस्तुत प्रसंगों से उपयुक्त प्रकाश एवं मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनुकानेक मन:स्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरुप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस ग्रंथ के सृजन का प्रयास किया गया है।
भविष्य का हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा ही सक्रिया रहेगा, हाथ भले ही किन्हीं के भी हों । यदि अवसर मिल सका, तो और भी अनेकों खण्ड प्रकाशित होते चले जायेंगे। कामना तो यह है कि युग पुराण के प्रज्ञा-पुराणों के भी पुरातन १८ पुराणों की तरह १८ खण्डों का सृजन बन पड़े।
संस्कृत श्लोकों तथा उसके अथों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इस पुराण में किया गया है। वस्तुत; इसमें युग दर्शन का मर्म निहित है। सिद्धांतों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृत नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी व्याख्या पढ़ लेने से भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिन तथ्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन निजी स्वाध्याय के रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक सत्संग के रूप में भी। रात्रि के समय पारिवारिक लोक शिक्षण की दृष्टि से भी इसका उपयोग हो सकता है। बच्चे कथाऐं सुनने को उत्सुक रहते हैं। बड़ों को धर्म परम्पराऐं समझने की इच्छा रहती है। इनकी पूर्ति भी घर में इस आधार पर कथा क्रम और समय निर्धारित करके की जा सकती है।
प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उद्भूत आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है । भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप से अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है एवं अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है ।
✍🏻 प्रज्ञा पुराण (भाग १)
📖 श्रीराम शर्मा आचार्य
Sansaar Me Sabhi Tarah Ke Log Hai
Dr Chinmay Pandya
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