बुधवार, 12 फ़रवरी 2020
👉 मन
भर्तृहरि सम्राट् थे। उन्होंने सब छोड़ दिया, छोड़-छाड़ जंगल चले गए। मन को यह बात जंची न होगी। मन को यह बात कभी नहीं जंचती। जंगल में बैठे हैं, वर्षों बीत गए हैं। धीरे-धीरे धीरे-धीरे तरंगें शांत होती जा रही हैं। एक दिन सुबह ही आंख खोली, सुबह का सूरज निकला है, सामने ही राह जाती है--जिस चट्टान पर बैठे हैं, उसी के सामने से राह जाती है। उस राह पर एक बड़ा हीरा पड़ा है! बांध-बूंध के वर्षों में मन को किसी तरह बिठाया था--और मन दौड़ गया! और मन जब दौड़ता है तो कोई सूचना भी नहीं देता कि सावधान कि अब जाता हूं। वह तो चला ही जाता है तब पता चलता है। वह तो इतनी त्वरा से जाता है, इतनी तीव्रता से जाता है कि दुनिया में किसी और चीज की इतनी गति नहीं है जितनी मन की गति है। तुम्हें पता चले, चले, चले, तब तक तो वह काफी दूर निकल गया होता है।
शरीर तो वहीं बैठा रहा, लेकिन मन पहुंच गया हीरे के पास। मन ने तो हीरा उठा भी लिया। मन तो हीरे के साथ खेलने भी लगा। तुमने कहानियां तो पढ़ी हैं न शेखचिल्लियों की, वे सब कहानियां मन की कहानियां हैं। मन शेखचिल्ली है। और इस के पहले कि मन शरीर को भी उठा दे, दो घुड़सवार दोनों तरफ से आए, उन्होंने तलवारें खींच लीं। दोनों को हीरा दिखाई पड़ा, दोनों ने तलवारें हीरे के पास टेक दीं और कहा, हीरा पहले मुझे दिखाई पड़ा। भर्तृहरि का मन तो कहने लगा कि यह बात गलत है, हीरा पहले मुझे दिखाई पड़ा। मगर यह अभी मन में ही चल रहा है। और इसके पहले भर्तृहरि कुछ बोलें, वे तो तलवारें खिंच गईं। राजपूत थे। तलवारें एक-दूसरे की छाती में घुस गईं। दोनों लाशें गिर पड़ीं। हीरा अपनी जगह पड़ा है सो अपनी जगह पड़ा है।
लोग आते हैं और चले जाते हैं, हीरे अपनी जगह पड़े हैं अपनी ही जगह पड़े रह जाते हैं। लाशों का गिर जाना, लहू के फव्वारे फूट जाना, चारों तरफ खून बिखर जाना, हीरे का अपनी जगह ही पड़े रहना--होश आया भर्तृहरि को कि मैं यह क्या कर रहा था! वर्षों की साधना मिट्टी हो गई? मेरा मन तो भाग ही गया था, मैं तो खुद भी दावेदार हो गया था। मैं तो कहने ही जानेवाला था कि चुप, हीरे को पहले मैंने देखा है! तुम दोनों पीछे आए हो। हीरा मेरा है!
मगर इसके पहले कि कुछ कहते, उसके पहले ही यह घटना घट गई--दो लाशें गिर गईं। भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा कि हद हो गई, कितने हीरे घर छोड़ आया हूं जो इससे बड़े-बड़े थे! इस साधारण-से हीरे के लिए फिर लालच में आ गया। कुछ हुआ नहीं, बाहर कोई कृत्य नहीं उठा, लेकिन मन के भीतर तो सब यात्रा हो गई।
जरूरी नहीं है कि तुम बाहर कुछ करो, मन तो भीतर ही सब कर लेता है। यह हो भी सकता है कि बाहर से कोई हिमालय गुफा में बैठा हो और मन सारे संसार की यात्राएं करता रहे। बाहर की गुफाओं से धोखे में मत पड़ जाना। असली सवाल मन का है। और यह भी हो सकता है कि कोई राजमहल में बैठा हो और मन कहीं न जाता हो।
बात बाहर की नहीं है; बात भीतर की है, बात मन की है। और मन बड़ा लोभी है। मन हर चीज में लोभ लगा लेता है। मन कहता है सब मेरा हो जाए। और यह लोभ उसका ऐसा है कि ज़रा-ज़रा से स्वाद के पीछे जहर भी गटक जाता है।
शरीर तो वहीं बैठा रहा, लेकिन मन पहुंच गया हीरे के पास। मन ने तो हीरा उठा भी लिया। मन तो हीरे के साथ खेलने भी लगा। तुमने कहानियां तो पढ़ी हैं न शेखचिल्लियों की, वे सब कहानियां मन की कहानियां हैं। मन शेखचिल्ली है। और इस के पहले कि मन शरीर को भी उठा दे, दो घुड़सवार दोनों तरफ से आए, उन्होंने तलवारें खींच लीं। दोनों को हीरा दिखाई पड़ा, दोनों ने तलवारें हीरे के पास टेक दीं और कहा, हीरा पहले मुझे दिखाई पड़ा। भर्तृहरि का मन तो कहने लगा कि यह बात गलत है, हीरा पहले मुझे दिखाई पड़ा। मगर यह अभी मन में ही चल रहा है। और इसके पहले भर्तृहरि कुछ बोलें, वे तो तलवारें खिंच गईं। राजपूत थे। तलवारें एक-दूसरे की छाती में घुस गईं। दोनों लाशें गिर पड़ीं। हीरा अपनी जगह पड़ा है सो अपनी जगह पड़ा है।
लोग आते हैं और चले जाते हैं, हीरे अपनी जगह पड़े हैं अपनी ही जगह पड़े रह जाते हैं। लाशों का गिर जाना, लहू के फव्वारे फूट जाना, चारों तरफ खून बिखर जाना, हीरे का अपनी जगह ही पड़े रहना--होश आया भर्तृहरि को कि मैं यह क्या कर रहा था! वर्षों की साधना मिट्टी हो गई? मेरा मन तो भाग ही गया था, मैं तो खुद भी दावेदार हो गया था। मैं तो कहने ही जानेवाला था कि चुप, हीरे को पहले मैंने देखा है! तुम दोनों पीछे आए हो। हीरा मेरा है!
मगर इसके पहले कि कुछ कहते, उसके पहले ही यह घटना घट गई--दो लाशें गिर गईं। भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा कि हद हो गई, कितने हीरे घर छोड़ आया हूं जो इससे बड़े-बड़े थे! इस साधारण-से हीरे के लिए फिर लालच में आ गया। कुछ हुआ नहीं, बाहर कोई कृत्य नहीं उठा, लेकिन मन के भीतर तो सब यात्रा हो गई।
जरूरी नहीं है कि तुम बाहर कुछ करो, मन तो भीतर ही सब कर लेता है। यह हो भी सकता है कि बाहर से कोई हिमालय गुफा में बैठा हो और मन सारे संसार की यात्राएं करता रहे। बाहर की गुफाओं से धोखे में मत पड़ जाना। असली सवाल मन का है। और यह भी हो सकता है कि कोई राजमहल में बैठा हो और मन कहीं न जाता हो।
बात बाहर की नहीं है; बात भीतर की है, बात मन की है। और मन बड़ा लोभी है। मन हर चीज में लोभ लगा लेता है। मन कहता है सब मेरा हो जाए। और यह लोभ उसका ऐसा है कि ज़रा-ज़रा से स्वाद के पीछे जहर भी गटक जाता है।
👉 QUERIES ABOUT ANUSTHANS (Part 5)
Q.10. What is the significance of Havan (Yagya) in an Anusthan?
Ans. Jap and Havan are basic ingredients of an Anusthan. After initiation (Dikcha) the worshipper (Sadhak) makes a total surrender to Gayatri and Yagya (his spiritual parents), which are inseparable. Invocation of both is done through specified procedures during the Anusthan.
Q.11. What are the number of ‘Ahutis’ prescribed for various types of Anusthans?
Ans. In ancient times, it was convenient to oblate one tenth of the total number of Japs in the Havan in an Anusthan. In the present circumstances, it is sufficient to offer one hundredth number of ‘Ahutis’. The number thus amounts to :-
(a) Small Anusthan - 240 Ahutis.
(b) Medium Anusthan - 1250 Ahutis.
(c) Big Anusthan - 24000 Ahutis. The number may however, be varied depending on circumstances.
Q.12. How are the number of Ahutis distributed during the Yagya (Havan) in course of Anusthans?
Ans. Havan may either be performed each day or on the last day of the Anusthan. Oblations required each day are equal to the number of ‘malas’, (cycles of rosary) whereas on the last day the number of ‘Ahutis’ should be equal to one hundredth of the total number of Japs (recitation of Mantras).
When more than one person participates in the Havan, the cumulative number (number of persons multiplied by number of Ahutis) is counted. (e.g. 100 Ahutis by 5 persons will be considered as 500 Ahutis; for 240 Ahutis 6 persons may offer together 40 ‘Ahutis’ each etc.).
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 76
Ans. Jap and Havan are basic ingredients of an Anusthan. After initiation (Dikcha) the worshipper (Sadhak) makes a total surrender to Gayatri and Yagya (his spiritual parents), which are inseparable. Invocation of both is done through specified procedures during the Anusthan.
Q.11. What are the number of ‘Ahutis’ prescribed for various types of Anusthans?
Ans. In ancient times, it was convenient to oblate one tenth of the total number of Japs in the Havan in an Anusthan. In the present circumstances, it is sufficient to offer one hundredth number of ‘Ahutis’. The number thus amounts to :-
(a) Small Anusthan - 240 Ahutis.
(b) Medium Anusthan - 1250 Ahutis.
(c) Big Anusthan - 24000 Ahutis. The number may however, be varied depending on circumstances.
Q.12. How are the number of Ahutis distributed during the Yagya (Havan) in course of Anusthans?
Ans. Havan may either be performed each day or on the last day of the Anusthan. Oblations required each day are equal to the number of ‘malas’, (cycles of rosary) whereas on the last day the number of ‘Ahutis’ should be equal to one hundredth of the total number of Japs (recitation of Mantras).
When more than one person participates in the Havan, the cumulative number (number of persons multiplied by number of Ahutis) is counted. (e.g. 100 Ahutis by 5 persons will be considered as 500 Ahutis; for 240 Ahutis 6 persons may offer together 40 ‘Ahutis’ each etc.).
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 76
👉 सहनशक्ति
आज लोगों में सहनशक्ति बहुत कम होती जा रही है। आप भी ऐसा अनुभव करते होंगे, कि आज से 25/30 वर्ष पहले लोगों में जितनी सहनशक्ति, आपस में प्रेम, सहानुभूति, सेवा, आदर सम्मान की भावना, त्याग तपस्या आदि थी, आज ये सब गुण उतने नहीं रहे। सबसे अधिक तो सहनशक्ति कम हुई है, जिसके बहुत से दुष्परिणाम लोगों को भोगने पड़ रहे हैं। छोटी-छोटी बात पर लोग गुस्सा करते हैं, लड़ाई झगड़ा करते हैं, अभिमान करते हैं, नाराज हो जाते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि आपसी संबंध टूट जाते हैं। यह सब क्यों हो रहा है? संबंधों को ठीक से निभाना नहीं जानते।
और यह नहीं जानते कि कोई भी संबंध अच्छा तभी चल पाएगा, जब संबंध रखने वालों में परस्पर एक दूसरे के प्रति सद्भावना सहानुभूति तथा सहनशक्ति हो।
लोगों को देखिए, उनको समझिए, उनसे मिलिए, उनके गुण कर्म को जानने का प्रयास कीजिए, और सहानुभूति प्रेम सद्भावना पूर्वक उनके साथ संबंध निभाने की सहनशक्ति भी रखिए। तभी आप संबंधों की रक्षा कर पाएंगे और आपके जीवन की भी सुरक्षा हो पाएगी।
और यह नहीं जानते कि कोई भी संबंध अच्छा तभी चल पाएगा, जब संबंध रखने वालों में परस्पर एक दूसरे के प्रति सद्भावना सहानुभूति तथा सहनशक्ति हो।
लोगों को देखिए, उनको समझिए, उनसे मिलिए, उनके गुण कर्म को जानने का प्रयास कीजिए, और सहानुभूति प्रेम सद्भावना पूर्वक उनके साथ संबंध निभाने की सहनशक्ति भी रखिए। तभी आप संबंधों की रक्षा कर पाएंगे और आपके जीवन की भी सुरक्षा हो पाएगी।
👉 राष्ट्र धर्म
राष्ट्र हममें से हर एक के सम्मिलित अस्तित्त्व का नाम है। इसमें जो कुछ आज हम हैं, कल थे और आने वाले कल में होंगे, सभी कुछ शामिल है। हम और हममे से हर एक के हमारेपन की सीमाएँ चाहे जितनी भी विस्तृत क्यों न हों? राष्ट्र की व्यापकता में स्वयं ही समा जाती हैं। इसकी असीम व्यापकता में देश की धरती, गगन, नदियाँ, पर्वत, झर-झर कर बहते निर्झर, विशालतम सागर और लघुतम सरोवर, सघन वन, सुरभित उद्यान, इनमें विचरण करने वाले पशु, आकाश विहार करने वाले पक्षी सभी तरह के वृक्ष व वनस्पतियाँ समाहित हैं। प्रान्त, शहर, जातियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ यहाँ तक कि रीति, रिवाज, धर्म, मजहब, आस्थाएँ, परम्पराएँ, राष्ट्र के ही अंग अवयव हैं।
राष्ट्र से बड़ा अन्य कुछ भी नहीं है। भारतवासियों की एक ही पहचान है भारत देश, भारत मातरम्। हममें से हर एक का एक ही परिचय है- राष्ट्र ध्वज, अपना प्यारा तिरंगा। इस तिरंगे की शान में ही अपनी शान है। इसके गुणगान में ही अपने गुणों का गान है। हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परम्पराएँ, यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक सार्थक और औचित्यपूर्ण हैं, जहाँ तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती हैं। जहाँ तक कि ये राष्ट्र धर्म का पालन करने में, राष्ट्र के उत्थान में सहायक हैं। राष्ट्र की अखण्डता, एकजुटता और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता को न्यौछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्त्तव्य है।
राष्ट्रधर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। यह हिन्दू के लिए भी उतना ही अनिवार्य है जितना कि सिख, मुस्लिम या ईसाई के लिए। यह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब या तमिल, तैलंगाना की सीमाओं से कहीं अधिक है। इसका क्षेत्र तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वत्र व्याप्त है। राष्ट्र धर्म के पालन का अर्थ है, राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना, सजग होना, कर्त्तव्यनिष्ठ होना, राष्ट्रीय हितों के लिए, सुरक्षा व स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत् बलिदान करते रहना।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १८८
राष्ट्र से बड़ा अन्य कुछ भी नहीं है। भारतवासियों की एक ही पहचान है भारत देश, भारत मातरम्। हममें से हर एक का एक ही परिचय है- राष्ट्र ध्वज, अपना प्यारा तिरंगा। इस तिरंगे की शान में ही अपनी शान है। इसके गुणगान में ही अपने गुणों का गान है। हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परम्पराएँ, यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक सार्थक और औचित्यपूर्ण हैं, जहाँ तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती हैं। जहाँ तक कि ये राष्ट्र धर्म का पालन करने में, राष्ट्र के उत्थान में सहायक हैं। राष्ट्र की अखण्डता, एकजुटता और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता को न्यौछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्त्तव्य है।
राष्ट्रधर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। यह हिन्दू के लिए भी उतना ही अनिवार्य है जितना कि सिख, मुस्लिम या ईसाई के लिए। यह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब या तमिल, तैलंगाना की सीमाओं से कहीं अधिक है। इसका क्षेत्र तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वत्र व्याप्त है। राष्ट्र धर्म के पालन का अर्थ है, राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना, सजग होना, कर्त्तव्यनिष्ठ होना, राष्ट्रीय हितों के लिए, सुरक्षा व स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत् बलिदान करते रहना।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १८८
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