शनिवार, 7 सितंबर 2019
👉 सत्य की जीत
एक राज्य में एक अत्यंत न्यायप्रिय राजा था। वह अपने राज्य में सभी का ध्यान रखता था। वह वेष बदल कर अपने राज्य में भ्रमण करता था ,और अपने राज्य संचालन में निरन्तर सुधार का प्रयत्न करता रहता था। कई दिन उसने अपने राज्य में परेशानियां देखी। कुछ दिन बाद उसने अपने राज्य में एक कानून पारित किया कि -'यदि बाजार में किसी का सामान बेचने के बाद रह जाता है, और वह नही बिकता तो उसे राजा खरीद लेंगे।'
एक दिन की बात थी, एक चित्रकार की चित्र नही बिक रही थी। उस पर शनि देव की चित्र बनी थी। वह राजा के पास गया और राजा ने उसे खरीद लिया। उसने अपने राज महल में शनि देव की स्थापन करवाई। स्थापना के अगले दिन ही राजा के स्वप्न में लक्ष्मी जी आई। लक्ष्मी जी ने कहा -"राजन,आपने अपने महल में शनि देव की स्थापन करवाई है, मैं अब यहां नही रुक सकती, मैं अब यह से जा रही हूँ। अगले दिन स्वप्न में धर्म आया उसने भी यही कहा और वहां से चल दिया। राजा मन ही मन परेशान हो गया उसके समझ में नही आ रहा था वह क्या करे?
अगले दिन पुनः उसके स्वप्न में सत्य आया उसने भी यही बात कही और जाने लगा, राजा ने अपने कथनानुसार सत्य जा पालन किया था। राजा ने उत्तर में कहा-'देव मैंने अपने कथनानुसार सत्य का पालन किया है, आप का जाना न्याय सांगत नही होगा।' राजा की यह बात यथार्थ थी और सत्य नही गया। कुछ दिनों बाद लक्ष्मी जी और धर्म पुनः वापस आ गए।
दोस्तों, आज के समय में सत्य बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है की आप के कहे गए वाक्यो को, आपको याद करने की आवश्यकता नही होती। सत्य हमे आत्मसम्मान दिलाता है, हमे अपनी ही दृष्टि में उच्च बनाता है।रात को जब हम निद्रा के लिए जाते है, तो अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है। दोस्तों, सत्य का प्रयोग करके देखे उत्तर आप के सामने स्वतः ही आ जायेगा।
एक दिन की बात थी, एक चित्रकार की चित्र नही बिक रही थी। उस पर शनि देव की चित्र बनी थी। वह राजा के पास गया और राजा ने उसे खरीद लिया। उसने अपने राज महल में शनि देव की स्थापन करवाई। स्थापना के अगले दिन ही राजा के स्वप्न में लक्ष्मी जी आई। लक्ष्मी जी ने कहा -"राजन,आपने अपने महल में शनि देव की स्थापन करवाई है, मैं अब यहां नही रुक सकती, मैं अब यह से जा रही हूँ। अगले दिन स्वप्न में धर्म आया उसने भी यही कहा और वहां से चल दिया। राजा मन ही मन परेशान हो गया उसके समझ में नही आ रहा था वह क्या करे?
अगले दिन पुनः उसके स्वप्न में सत्य आया उसने भी यही बात कही और जाने लगा, राजा ने अपने कथनानुसार सत्य जा पालन किया था। राजा ने उत्तर में कहा-'देव मैंने अपने कथनानुसार सत्य का पालन किया है, आप का जाना न्याय सांगत नही होगा।' राजा की यह बात यथार्थ थी और सत्य नही गया। कुछ दिनों बाद लक्ष्मी जी और धर्म पुनः वापस आ गए।
दोस्तों, आज के समय में सत्य बोलने का सबसे बड़ा फायदा यह है की आप के कहे गए वाक्यो को, आपको याद करने की आवश्यकता नही होती। सत्य हमे आत्मसम्मान दिलाता है, हमे अपनी ही दृष्टि में उच्च बनाता है।रात को जब हम निद्रा के लिए जाते है, तो अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है। दोस्तों, सत्य का प्रयोग करके देखे उत्तर आप के सामने स्वतः ही आ जायेगा।
👉 कर्मफल हाथों-हाथ
अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाये। रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियाँ पुरानी पड़ गयीं। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सिकन्दर, नैपोलियन जैसे नर-संहारकों को किस प्रकार दुर्दिन देखने पड़े, उनके अन्त कितने भयंकर हुए, यह भी अब अतीत की गाथाओं में जा मिले हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैमानिक फ्रेड ओलीपी और हिरोशिमा के विलेन (खलनायक) मेजर ईथरली का अन्त कितना बुरा हुआ, यह देखकर सुनकर सैंकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने वाला न रहता होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल, हंसी खुशी दिखाई दे रही है, वह कभी की नष्ट हो चुकी होती।
इन पंक्तियों में लिखी जा रही कहानी एक ऐसे खलनायक की है जिसने अपने दुष्कर्मों का बुरा अन्त अभी-अभी कुछ दिन पहले ही भोगा है। जलियावाला हत्याकाँड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।
पंजाब में जन्मे, वहीं के अन्न और जल से पोषण पा कर अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सिख धर्म में दीक्षित होकर भी जनरल डायर ने हजारों आत्माओं को निर्दोष पिसवा दिया था, उसे कौन नहीं जानता। इंग्लैंड उसकी कितनी ही प्रशंसा करता पर वह भगवान के दण्ड-विधान से उसी प्रकार नहीं बच सकता था, जैसे संसार का कोई भी व्यक्ति अपने किये हुए का फल भोगने से वंचित नहीं रहता। भगवान की हजार आँखें, हजार हाथ और कराल दाढ़ से छिपकर बचकर कोई जा नहीं सकता। जो जैसा करेगा, उसे वैसा भरना ही पड़ेगा। यह सनातन ईश्वरीय नीति कभी परिवर्तित न होगी।
हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो वह है, जो यह बताता है कि करने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।
सन 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। उसके संरक्षक माइकेल ओडायर की हत्या कर दी गई। उसे तो चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे-
‘मनुष्य को परमात्मा ने यह जो जीवन दिया है, उसे बहुत सोच-समझ कर बिताने वाले ही व्यक्ति बुद्धिमान होते हैं, पर जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’
इन पंक्तियों में लिखी जा रही कहानी एक ऐसे खलनायक की है जिसने अपने दुष्कर्मों का बुरा अन्त अभी-अभी कुछ दिन पहले ही भोगा है। जलियावाला हत्याकाँड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।
पंजाब में जन्मे, वहीं के अन्न और जल से पोषण पा कर अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सिख धर्म में दीक्षित होकर भी जनरल डायर ने हजारों आत्माओं को निर्दोष पिसवा दिया था, उसे कौन नहीं जानता। इंग्लैंड उसकी कितनी ही प्रशंसा करता पर वह भगवान के दण्ड-विधान से उसी प्रकार नहीं बच सकता था, जैसे संसार का कोई भी व्यक्ति अपने किये हुए का फल भोगने से वंचित नहीं रहता। भगवान की हजार आँखें, हजार हाथ और कराल दाढ़ से छिपकर बचकर कोई जा नहीं सकता। जो जैसा करेगा, उसे वैसा भरना ही पड़ेगा। यह सनातन ईश्वरीय नीति कभी परिवर्तित न होगी।
हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो वह है, जो यह बताता है कि करने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।
सन 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। उसके संरक्षक माइकेल ओडायर की हत्या कर दी गई। उसे तो चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे-
‘मनुष्य को परमात्मा ने यह जो जीवन दिया है, उसे बहुत सोच-समझ कर बिताने वाले ही व्यक्ति बुद्धिमान होते हैं, पर जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ६४)
👉 आसन, प्राणायाम, बंध एवं मुद्राओं से उपचार
शारीरिक दृष्टि से देखें तो आसनों से शरीर की सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तःस्रावी ग्रन्थि प्रणाली नियंत्रित एवं सुव्यवस्थित होती है। परिणामतः सभी ग्रन्थियों से उचित मात्रा में रस का स्राव होने लगता है। ध्यान देने की बात यह भी हे कि मांसपेशियां, हड्डियाँ, स्नायु मण्डल, ग्रन्थिप्रणाली, श्वसन प्रणाली, उत्सर्जन प्रणाली, रक्त संचरण प्रणाली सभी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। वे एक दूसरे के सहयोगी हैं। आसन के अनेक प्रकार शरीर को लचीला तथा परिवर्तित वातावरण के अनुकूल बनाने के योग्य बनाते हैं। इनके प्रभाव से पाचन क्रिया तीव्र हो जाती है। उचित मात्रा में पाचक रस तैयार होता है। अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तंत्रिका प्रणाली में सन्तुलन आ जाता है। फलस्वरूप इनके द्वारा बाहरी और आन्तरिक अंगों के कार्य ठीक ढंग से होने लगते हैं।
शरीर के साथ आसनों की क्रियाएँ मन को भी समर्थ व शक्तिशाली बनाती हैं। इनके प्रभाव से दृढ़ता व एकाग्रता की शक्ति विकसित होती है। यहां तक कि कठिनाइयाँ मानसिक शक्तियों के विकास का माध्यम बन जाती हैं। व्यक्ति में आत्मविश्वास आता है और वह औरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो आसनों के प्रभाव से शरीर शुद्ध होकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं के लिए तैयार हो जाता है। यहाँ इस सच्चाई को स्वीकारने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं कि आसनों से कोई आध्यात्मिक अनुभव तो नहीं होते पर ये आध्यात्मिक अनुभवों को पाने में सहायक जरूर हैं।
प्राणायाम आसनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म विधि है। यूं तो इसकी सारी प्रक्रियाएँ श्वसन के आरोह- अवरोह एवं इसके स्वैच्छिक नियंत्रण पर टिकी हैं। पर यथार्थ में यह विश्व व्यापी प्राण ऊर्जा से अपना सामञ्जस्य स्थापित करने की विधि है। आमतौर पर लोग इसे केवल अधिक आक्सीजन प्राप्त करने की प्रणाली के रूप में जानते हैं। किन्तु सत्य इससे भिन्न है। श्वसन के माध्यम से इसके द्वारा नाड़ियों, प्राण नलिकाओं एवं प्राण के प्रवाह पर व्यापक असर होता है। परिणामतः नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है तथा मौलिक और मानसिक स्थिरता प्राप्ति होती है। इसमें की जाने वाली कुम्भक प्रक्रिया द्वारा न केवल प्राण का नियंत्रण होता है, बल्कि मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८८
शारीरिक दृष्टि से देखें तो आसनों से शरीर की सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तःस्रावी ग्रन्थि प्रणाली नियंत्रित एवं सुव्यवस्थित होती है। परिणामतः सभी ग्रन्थियों से उचित मात्रा में रस का स्राव होने लगता है। ध्यान देने की बात यह भी हे कि मांसपेशियां, हड्डियाँ, स्नायु मण्डल, ग्रन्थिप्रणाली, श्वसन प्रणाली, उत्सर्जन प्रणाली, रक्त संचरण प्रणाली सभी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। वे एक दूसरे के सहयोगी हैं। आसन के अनेक प्रकार शरीर को लचीला तथा परिवर्तित वातावरण के अनुकूल बनाने के योग्य बनाते हैं। इनके प्रभाव से पाचन क्रिया तीव्र हो जाती है। उचित मात्रा में पाचक रस तैयार होता है। अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तंत्रिका प्रणाली में सन्तुलन आ जाता है। फलस्वरूप इनके द्वारा बाहरी और आन्तरिक अंगों के कार्य ठीक ढंग से होने लगते हैं।
शरीर के साथ आसनों की क्रियाएँ मन को भी समर्थ व शक्तिशाली बनाती हैं। इनके प्रभाव से दृढ़ता व एकाग्रता की शक्ति विकसित होती है। यहां तक कि कठिनाइयाँ मानसिक शक्तियों के विकास का माध्यम बन जाती हैं। व्यक्ति में आत्मविश्वास आता है और वह औरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो आसनों के प्रभाव से शरीर शुद्ध होकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं के लिए तैयार हो जाता है। यहाँ इस सच्चाई को स्वीकारने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं कि आसनों से कोई आध्यात्मिक अनुभव तो नहीं होते पर ये आध्यात्मिक अनुभवों को पाने में सहायक जरूर हैं।
प्राणायाम आसनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म विधि है। यूं तो इसकी सारी प्रक्रियाएँ श्वसन के आरोह- अवरोह एवं इसके स्वैच्छिक नियंत्रण पर टिकी हैं। पर यथार्थ में यह विश्व व्यापी प्राण ऊर्जा से अपना सामञ्जस्य स्थापित करने की विधि है। आमतौर पर लोग इसे केवल अधिक आक्सीजन प्राप्त करने की प्रणाली के रूप में जानते हैं। किन्तु सत्य इससे भिन्न है। श्वसन के माध्यम से इसके द्वारा नाड़ियों, प्राण नलिकाओं एवं प्राण के प्रवाह पर व्यापक असर होता है। परिणामतः नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है तथा मौलिक और मानसिक स्थिरता प्राप्ति होती है। इसमें की जाने वाली कुम्भक प्रक्रिया द्वारा न केवल प्राण का नियंत्रण होता है, बल्कि मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८८
👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 Sep 2019
★ गायत्री मंत्र में सम्स्त संसार को धारण, पोषण और अभिवर्द्धन करने वाले परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। श्रद्धा-विश्वासपूर्वक की गई यह उपासना साधक की अंतश्चेतना में, उसके मन, अन्त:करण, मस्तिष्क, विचारों और भावनाओं में सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भरती है। साधक जब इस महामंत्र के अर्थ पर विचार करता है तो वह समझ जाता है कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बडी सफलता सद्बुद्धि को प्राप्त करना है।
□ ज्ञानवान, विवेकवान, और विद्वान बनने का साधन पुस्तकावलोकन ही है। पेट से कोई ज्ञानी नहीं होता वरन् परिस्थिति संगति एवं वातावरण में रहकर तदनुसार मनोभूमि का निर्माण होता है। जिस दिशा में हमें मस्तिष्क उन्नत करना है, उस दिशा में आगे बढे़ हुए विद्वानों का सत्संग उनकी पुस्तकों द्वारा ही हो सकता है। अत: स्वाध्याय की आदत डालिये।
◆ सच्ची नीति का नियम यह है कि हम जिस मार्ग को जाते हैं उसे ही ग्रहण करके न रह जायें। किन्तु जो मार्ग सच्चा है फिर चाहे हम उससे परिचित हों या न हों उसे ग्रहण करना ही चाहिए। मतलब यह है कि जब हम यह जान जायें कि फलाँ मार्ग सच्चा है तब हमें उस पर जाने के लिए निर्भय होकर जी तोड परिश्रम करना चाहिए। जब इस प्रकार नीति का पालन किया जा सकें तभी हम आगे बढ़ सकते हैं।
◇ हिन्दू धर्म आध्यात्म प्रधान रहा है। आध्यात्मिक जीवन उसका प्राण है। अध्यात्म के प्रति उत्सर्ग करना ही सर्वोपरि नहीं है, बल्कि पूर्ण शक्ति का उद्भव और उत्सर्ग दोनों की ही आध्यात्मिक जीवन में आवश्यकता है। कर्म करना और कर्म को चैतन्य के साथ मिला देना ही यज्ञमय जीवन है। यह यज्ञ जिस संस्कृति का आधार होगा, वह संस्कृति और संस्कृति को मानने वाली जाति हमेशा अमर रहेगी ।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
□ ज्ञानवान, विवेकवान, और विद्वान बनने का साधन पुस्तकावलोकन ही है। पेट से कोई ज्ञानी नहीं होता वरन् परिस्थिति संगति एवं वातावरण में रहकर तदनुसार मनोभूमि का निर्माण होता है। जिस दिशा में हमें मस्तिष्क उन्नत करना है, उस दिशा में आगे बढे़ हुए विद्वानों का सत्संग उनकी पुस्तकों द्वारा ही हो सकता है। अत: स्वाध्याय की आदत डालिये।
◆ सच्ची नीति का नियम यह है कि हम जिस मार्ग को जाते हैं उसे ही ग्रहण करके न रह जायें। किन्तु जो मार्ग सच्चा है फिर चाहे हम उससे परिचित हों या न हों उसे ग्रहण करना ही चाहिए। मतलब यह है कि जब हम यह जान जायें कि फलाँ मार्ग सच्चा है तब हमें उस पर जाने के लिए निर्भय होकर जी तोड परिश्रम करना चाहिए। जब इस प्रकार नीति का पालन किया जा सकें तभी हम आगे बढ़ सकते हैं।
◇ हिन्दू धर्म आध्यात्म प्रधान रहा है। आध्यात्मिक जीवन उसका प्राण है। अध्यात्म के प्रति उत्सर्ग करना ही सर्वोपरि नहीं है, बल्कि पूर्ण शक्ति का उद्भव और उत्सर्ग दोनों की ही आध्यात्मिक जीवन में आवश्यकता है। कर्म करना और कर्म को चैतन्य के साथ मिला देना ही यज्ञमय जीवन है। यह यज्ञ जिस संस्कृति का आधार होगा, वह संस्कृति और संस्कृति को मानने वाली जाति हमेशा अमर रहेगी ।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Jan 2025
👉 शांतिकुंज हरिद्वार के Youtube Channel `Shantikunj Rishi Chintan` को आज ही Subscribe करें। ➡️ https://bit.ly/2KISkiz 👉 शान्तिकुं...
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