तीसरा चरण जो अपना रह जाता है, वह संघर्ष का है। संघर्ष के बिना अवांछनीय तत्त्वों को हटाया नहीं जा सकता है। कुछ निहित स्वार्थ ऐसे होते हैं, उनकी दाढ़ में ऐसा कुछ लग जाता है अथवा किसी अपनी बेवकूफी को ऐसा प्रेस्टीज प्वाइंट बना लेते हैं कि उससे पीछे हटना ही नहीं चाहते हैं। अपनी बुद्घिमानी, अपनी अक्लमंदी और अपना अहंकार-अपने घमंड को इतना ज्यादा बढ़ा लेते हैं कि अपने साथ जुड़े हुए जो विचार हैं उनका ही समर्थन करते हैं।
मान लीजिए कोई बूढ़ा आदमी है, और उसने कोई गलती की, चार धाम की यात्रा करके आया और सारा पैसा फूँक करके घर में आ गया। अब उसकी गलती को बताओ तो कोई मानेगा नहीं और दूसरे गाँव वालों को भी कहेगा-हम तो मुक्ति ले आए, तुम भी मुक्ति ले आओ। उसे समझाओ तो मानता ही नहीं।
कुछ आदमी इस तरह के होते हैं, जिनको जड़ कहते हैं और अपनी गलती को ही प्रेष्टीज प्वांइट बना लेते हैं। ब्याह शादी का मामला है, नाक का प्रश्न बना लेते हैं। कहते हैं कि साहब हमारे बाप-दादे के समय ऐसी शादी होती थी। ठीक है आप जो कहते हैं वो तो सही कहते हैं। आपकी बात भी सही है, ठीक माननी चाहिए। पर हम क्या कर सकते हैं? हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है।
इस तरीके से रूढ़िवादियों से लेकर के जिनके स्वार्थ जुड़े हैं , जागीरदारों से लेकर के ताल्लुकेदारों तक और पण्डे-पुजारियों से लेकर के दूसरे अवांछनीय तत्त्वों तक जिनके दाढ़ में हराम के पैसों का, हराम की आमदनी का, बेकार की बातों का चस्का लग गया है, रिश्वतखोरी का चस्का लग गया, वो सीधे तरीके से मान जाएँगें क्या? नहीं। हम जब समझाएगें, हाँ, हाँ, हाँ करेंगे। कहेंगे कि आपने बिलकुल सही कहा, ऐसा ही होना चाहिए। फिर भ्रष्टाचार विरोधी समिति के प्रेसीडेन्ट बन जाएँगे और करेंगे पूरा भ्रष्टाचार। इस तरीके से इस तरह के लोग ही अधिकांश हैं। उनसे निपटा कैसे जाए? समझाते हैं उनको तो हमसे भी ज्यादा वो दूसरों को समझाते हैं । ऐसे लोगों को समझाने से क्या बात बनेगी ? ऐसे जड़ लोग बातों से समझ नहीं सकते।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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