शनिवार, 1 जुलाई 2023

👉 तीसरा चरण संघर्ष का है

तीसरा चरण जो अपना रह जाता है, वह संघर्ष का है। संघर्ष के बिना अवांछनीय तत्त्वों को हटाया नहीं जा सकता है। कुछ निहित स्वार्थ ऐसे होते हैं, उनकी दाढ़ में ऐसा कुछ लग जाता है अथवा किसी अपनी बेवकूफी को ऐसा प्रेस्टीज प्वाइंट बना लेते हैं कि उससे पीछे हटना ही नहीं चाहते हैं। अपनी बुद्घिमानी, अपनी अक्लमंदी और अपना अहंकार-अपने घमंड को इतना ज्यादा बढ़ा लेते हैं कि अपने साथ जुड़े हुए जो विचार हैं उनका ही समर्थन करते हैं।

मान लीजिए कोई बूढ़ा आदमी है, और उसने कोई गलती की, चार धाम की यात्रा करके आया और सारा पैसा फूँक करके घर में आ गया। अब उसकी गलती को बताओ तो कोई मानेगा नहीं और  दूसरे गाँव वालों को भी कहेगा-हम तो मुक्ति ले आए, तुम भी मुक्ति ले आओ। उसे समझाओ तो मानता ही नहीं। 

कुछ आदमी इस तरह के होते हैं, जिनको जड़ कहते हैं और अपनी गलती को ही प्रेष्टीज प्वांइट बना लेते हैं। ब्याह शादी का मामला है, नाक का प्रश्न बना लेते हैं। कहते हैं कि साहब हमारे बाप-दादे के समय ऐसी शादी होती थी। ठीक है आप जो कहते हैं वो तो सही कहते हैं। आपकी बात भी सही है, ठीक माननी चाहिए। पर हम क्या कर सकते हैं? हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है। 

इस तरीके से रूढ़िवादियों से लेकर के जिनके स्वार्थ जुड़े हैं , जागीरदारों से लेकर के ताल्लुकेदारों तक और पण्डे-पुजारियों से लेकर के दूसरे अवांछनीय तत्त्वों तक जिनके दाढ़ में हराम के पैसों का, हराम की आमदनी का, बेकार की बातों का चस्का लग गया है, रिश्वतखोरी का चस्का लग गया, वो सीधे तरीके से मान जाएँगें क्या? नहीं। हम जब समझाएगें, हाँ, हाँ, हाँ करेंगे। कहेंगे कि आपने बिलकुल सही कहा, ऐसा ही होना चाहिए। फिर भ्रष्टाचार विरोधी समिति के प्रेसीडेन्ट बन जाएँगे और करेंगे पूरा भ्रष्टाचार। इस तरीके से इस तरह के लोग ही अधिकांश हैं। उनसे निपटा कैसे जाए? समझाते हैं उनको तो हमसे भी ज्यादा वो दूसरों को समझाते हैं । ऐसे लोगों को समझाने से क्या बात बनेगी ? ऐसे जड़ लोग बातों से समझ नहीं सकते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों। (अंतिम भाग)

किन्हीं विगतमान चीजों के प्रति दुःख होने का कारण यह है कि व्यामोह के वशीभूत मनुष्य उससे अपना आत्मभाव स्थापित कर लेता है। सोचने की बात है कि जब यह संसार ही हमारा नहीं है, यह शरीर तक हमारा नहीं है तो यहाँ की किसी चीज के साथ आत्मभाव स्थापित कर लेने में क्या बुद्धिमत्ता है। एक दिन जब मनुष्य खुद ही सब को छोड़कर चला जाता है तो यदि कोई चीज उसे छोड़कर चली जाती है तो इसमें दुःख की क्या बात है? यह संसार और उसकी दृश्यमान अथवा अदृश्यमान सारी चीजें एकमात्र परमानन्द की हैं। उसके सिवाय किसी भी व्यक्ति का यहाँ की किसी चीज पर अधिकार नहीं है। जिसे जो कुछ मिलता है, वह सब परमात्मा का दिया होता है।

मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह इस सत्य को स्वीकार करे और इस बात के लिये सदैव तैयार रहना चाहिये कि परिवर्तन के नियम के अन्तर्गत उससे कोई भी चीज किसी भी समय ली जा सकती है। इस सत्य में विश्वास रखने वाले को व्यामोह का कोई दोष नहीं लगने पाता और वह सम्पत्ति तथा विपत्ति में सदा समभाव रहता है।

इसी व्यामोह के जाल से बचने के लिए ही गीता में भगवान् ने अनासक्तिपूर्वक जीवन−चक्र चलाने का निर्देश किया है। उत्साहपूर्वक अपना कर्तव्य करते हुए इस बात के लिए सदा तैयार रहना चाहिये कि इस परिवर्तनशील जगत् में कुछ भी अपना नहीं है। सम्पन्नता अथवा विपन्नता जो भी प्राप्त हो रही है, किसी समय भी बदल सकती है। यह अनासक्त भाव मानव−जीवन में सुख−शाँति का बड़ा महत्वपूर्ण विधायक है। मानव−जीवन आनन्द रूप है। दुःखों सन्तापों तथा आवेगों से इसे अशान्त करना अन्याय है। ऊर्ध्व स्थिति से अधोस्थिति में आकर अथवा विपन्नता से सम्पन्नता में पहुँचकर किन्हीं अतिरिक्त अथवा अन्यथा भाव से आन्दोलित नहीं होना चाहिये। सम्पन्नता की स्थिति में अभिभूत रहना और विपन्नता में दुखी होना, दोनों भाव ही जीवन में अशाँति का कारण हैं।

विगत वैभव के प्रति व्यामोह के कारण वर्तमान जीवन तो अशान्त रहता है, साथ ही मलीन चिन्तन के कारण भविष्य भी प्रभावित होता है। अनासक्त भाव से, परिवर्तन में विश्वास रखते हुए उत्साहपूर्वक अपना कर्तव्य करते हुए जो स्थिति प्राप्त हो, उसे मित्र की भाँति स्वीकार करने से जीवन में अशाँति और असुख की सम्भावना नहीं रहती।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 58


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