गुरुवार, 26 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७३)

बहुत बड़ी है आततायी विघ्नों की फौज
    
महर्षि कहते हैं कि दुःख, निराशा, कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन बीमार मन के लक्षण है। यानि कि यदि मन बीमार है, तो ये पाँचों अनुभूतियाँ किसी न किसी तरह से होती रहेंगी। इन लक्षणों में प्रत्येक लक्षण मन की बीमार दशा का बयान करता है। उदाहरण के लिए दुःख- इसका मतलब है कि मन तनाव से भरा है, बँटा-बिखरा है। और यह बँटा-बिखरा मन निराश ही होगा और जो सतत उदास-निराश होता है उसकी जैविक ऊर्जा का परिपथ हमेशा गड़बड़ होता है। ऐसे व्यक्तियों के शरीर में बहने वाली जैव विद्युत् कभी भी ठीक-ठीक नहीं बहती और देह में एक सूक्ष्म कंपकंपी शुरू हो जाती है। और जब प्राण ही कंपायमान है, तो भला श्वास नियमित कैसे होगा? अब यदि इन सभी लक्षणों को दूर करना है तो उपाय एक ही है कि मन स्वस्थ हो जाय। मन की बीमारी समाप्त हो जाय।
    
इसके लिए उपाय एक ही है- मंत्र जप। मन यदि मंत्र के स्पर्श में आए अथवा मन में यदि मंत्र स्पन्दित होने लगे तो समझो कि मन की बीमारी ज्यादा देर तक टिकने वाली नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में बड़ी अद्भुत बात कहते थे। उनका कहना था कि- बेटा, मंत्र मन का इन्जेक्शन है। देह की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक देह में इन्जेक्शन लगाते हैं। इस इन्जेक्शन की भी दो विधियाँ हैं- १. मांस पेशियों में लगाया जाने वाला इन्जेक्शन, २. रक्तवाहिनी नलिकाओं में लगाया जाने वाला इन्जेक्शन। चिकित्सक कहते हैं कि पहले की तुलना में दूसरी तरह से लगाया जाने वाला इन्जेक्शन जल्दी असर करता है।
    
परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि मंत्र ऐसा इन्जेक्शन है, जो मन में लगाया जाता है। इस इन्जेक्शन का प्रयोग मंत्रविद्या के मर्मज्ञ या आध्यात्मिक चिकित्सक करते हैं। इसके प्रयोग के तीन तरीके हैं। १. स्थूल वाणी के द्वारा, २. सूक्ष्म वाणी के द्वारा एवं ३. मानसिक स्पन्दनों के द्वारा। इसमें से पहला तरीका सबसे कम असर कारक है। यदि कोई बोल-बोल कर जप करे, तो असर देर से होता है। इसकी तुलना में दूसरा तरीका ज्यादा असरकारक है। यानि कि जप यदि अस्फुट स्वर में उपांशु ढंग से मानसिक एकाग्रता के साथ किया जाय, तो असर ज्यादा गहरा होता है। इन दोनों तरीकों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है मंत्र जप का तीसरा तरीका कि वाणी पर सम्पूर्णता शान्त रहे और मंत्र मानसिक स्पन्दनों में स्पन्दित होता रहे। इसका असर व प्रभाव बहुत गहरा होता है।
    
इस अन्तिम तरीके की खास बात यह है कि मंत्र का इन्जेक्शन सीधा मन में ही लग रहा है। मन के विचारों के साथ मंत्र के विचार-स्पन्दन घुल रहे हैं। यदि मंत्र गायत्री है, तो फिर यह असर हजारों-लाखों गुना ज्यादा हो जाता है। इसके प्रभाव के पहले चरण में मन की टूटी-बिखरी लय फिर से सुसम्बद्ध होने लगती है। मन में मंत्र के अनुरूप एक समस्वरता पनपती है। मानसिक चेतना में मंत्र नए प्राणों का संचार करता है। इसकी शिथिलता-निस्तेजता समाप्त होती है। एक नयी ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। यह प्रक्रिया अपने अगले चरण से प्राणों की खोयी हुई लय वापस लाती है। जैव विद्युत् का परिपथ फिर से सुचारु होता है। और प्राणों की अनियमितता समाप्त हो जाती है।
    
इस सूत्र की व्याख्या में गुरुदेव कहते थे कि दुःख और निराशा मन के तल पर पनपते हैं। कंपकंपी एवं अनियमित श्वसन प्राणों के तल पर उपजता है। मंत्र जप करने वाले साधक की सबसे पहले मानसिक संरचना में परिवर्तन आते हैं। उसका मन नए सिरे से रूपान्तरित, परिवर्तित होता है। इस रूपान्तरण में दुःख प्रसन्नता में बदलता है और निराशा उत्साह में परिवर्तित होती है। प्रक्रिया के अगले चरण में प्राण बल बढ़ने से कंपकंपी दृढ़ता एवं बल में बदल जाती है। और श्वास की गति धीमी व सम होने लगती है। ये ऐसे दिखाई देने वाले अनुभव हैं- जिन्हें गायत्री मंत्र का कोई भी साधक छहः महीनों के अन्दर कर सकता है। शर्त बस यही है कि गायत्री मंत्र का जप गायत्री महाविज्ञान में दी गई बारह तपस्याओं का अनुशासन मानकर किया जाय। यह हो सका, तो अन्तर्यात्रा मार्ग पर प्रगति का चक्र और तीव्र हो जाएगा।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १२४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 परिपूर्ण कोई नहीं

किसी व्यक्ति में या किसी वस्तु में थोड़ा सा भी अवगुण देखकर कई व्यक्ति आग−बबूला हो उठते हैं और उसकी उस छोटी सी बुराई को ही बढ़ा-चढ़ाकर कल्पित करते हुए ऐसा मान बैठते हैं मानों यही सबसे खराब हो। अपनी एक बात किसी ने नहीं मानी तो उसे अपना पूरा शत्रु ही समझ बैठते हैं। जीवन में अनेकों सुविधाऐं रहते हुए भी यदि कोई एक असुविधा है तो उन सुविधाओं की प्रसन्नता अनुभव न करते हुए सदा उस अभाव का ही चिंतन करके खिन्न बने रहते हैं। ऐसे लोगों को सदा संताप और क्रोध की आग में ही झुलसते रहना पड़ेगा। इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें कोई दोष-दुर्गुण नहीं और न ही कोई वस्तु ऐसी है जो सब प्रकार हमारे अनुकूल ही हो। सब व्यक्ति सदा वही आचरण करें जो हमें पसंद है ऐसा हो नहीं सकता। 

सदा मनचाही परिस्थितियाँ किसे मिली हैं? किसी को समझौता करके जो मिला है उस पर सन्तोष करते हुए यथासंभव सुधार करते चलने की नीति अपनानी पड़ी है तभी वह सुखी रह सकता है। जिसने कुछ नहीं, या सब कुछ की माँग की है उसे क्षोभ के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है। अपनी धर्मपत्नी में कई अवगुण भी हो सकते हैं यदि उन अवगुणों पर ही ध्यान रखा जाय तो वह बहुत दुखदायक प्रतीत होगी। किन्तु यदि उसके त्याग, आत्म-समर्पण, वफादारी, सेवा-बुद्धि, उपयोगिता, उदारता एवं निस्वार्थता की कितनी ही विशेषताओं का देर तक चिन्तन करें तो लगेगा कि वह साक्षात् देवी के रूप में हमारे घर अवतरित हुई है। उसी प्रकार पिता−माता के एक कटुवाक्य पर क्षुब्ध हो उठने उपकार, वात्सल्य एवं सहायता की लम्बी शृंखला पर विचार करें तो उत्तेजनावश कह दिया गया एक कटु शब्द बहुत ही तुच्छ प्रतीत होगा। मन को बुराई के बीच अच्छाई ढूँढ़ निकालने की आदत डालकर ही हम अपनी प्रसन्नता को कायम रख सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

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