शनिवार, 10 जून 2017
👉 सुकरात और आईना
🔴 दार्शनिक सुकरात दिखने में कुरुप थे। वह एक दिन अकेले बैठे हुए आईना हाथ मे लिए अपना चेहरा देख रहे थे।
🔵 तभी उनका एक शिष्य कमरे मे आया ; सुकरात को आईना देखते हुए देख उसे कुछ अजीब लगा । वह कुछ बोला नही सिर्फ मुस्कराने लगा। विद्वान सुकरात शिष्य की मुस्कराहट देख कर सब समझ गए और कुछ देर बाद बोले ,”मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझ रहा हूँ…….शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरुप आदमी आईना क्यों देख रहा है ?”
🔴 शिष्य कुछ नहीं बोला , उसका सिर शर्म से झुक गया।
🔵 सुकरात ने फिर बोलना शुरु किया , “शायद तुम नहीं जानते कि मैं आईना क्यों देखता हूँ”
🔴 “नहीं ” , शिष्य बोला।
🔵 गुरु जी ने कहा “मैं कुरूप हूं इसलिए रोजाना आईना देखता हूं”। आईना देख कर मुझे अपनी कुरुपता का भान हो जाता है। मैं अपने रूप को जानता हूं। इसलिए मैं हर रोज कोशिश करता हूं कि अच्छे काम करुं ताकि मेरी यह कुरुपता ढक जाए।
🔴 शिष्य को ये बहुत शिक्षाप्रद लगी। परंतु उसने एक शंका प्रकट की- ” तब गुरू जी, इस तर्क के अनुसार सुंदर लोगों को तो आईना नही देखना चाहिए?”
🔵 “ऐसी बात नही!” सुकरात समझाते हुए बोले,” उन्हे भी आईना अवश्य देखना चाहिए”! इसलिए ताकि उन्हे ध्यॉन रहे कि वे जितने सुंदर दीखते हैं उतने ही सुंदर काम करें, कहीं बुरे काम उनकी सुंदरता को ढक ना ले और परिणामवश उन्हें कुरूप ना बना दे।
🔴 शिष्य को गुरु जी की बात का रहस्य मालूम हो गया। वह गुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
🔵 मित्रो, कहने का भाव यह है कि सुन्दरता मन व् भावों से दिखती है। शरीर की सुन्दरता तात्कालिक है जब कि मन और विचारों की सुन्दरता की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है।
🔵 तभी उनका एक शिष्य कमरे मे आया ; सुकरात को आईना देखते हुए देख उसे कुछ अजीब लगा । वह कुछ बोला नही सिर्फ मुस्कराने लगा। विद्वान सुकरात शिष्य की मुस्कराहट देख कर सब समझ गए और कुछ देर बाद बोले ,”मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझ रहा हूँ…….शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरुप आदमी आईना क्यों देख रहा है ?”
🔴 शिष्य कुछ नहीं बोला , उसका सिर शर्म से झुक गया।
🔵 सुकरात ने फिर बोलना शुरु किया , “शायद तुम नहीं जानते कि मैं आईना क्यों देखता हूँ”
🔴 “नहीं ” , शिष्य बोला।
🔵 गुरु जी ने कहा “मैं कुरूप हूं इसलिए रोजाना आईना देखता हूं”। आईना देख कर मुझे अपनी कुरुपता का भान हो जाता है। मैं अपने रूप को जानता हूं। इसलिए मैं हर रोज कोशिश करता हूं कि अच्छे काम करुं ताकि मेरी यह कुरुपता ढक जाए।
🔴 शिष्य को ये बहुत शिक्षाप्रद लगी। परंतु उसने एक शंका प्रकट की- ” तब गुरू जी, इस तर्क के अनुसार सुंदर लोगों को तो आईना नही देखना चाहिए?”
🔵 “ऐसी बात नही!” सुकरात समझाते हुए बोले,” उन्हे भी आईना अवश्य देखना चाहिए”! इसलिए ताकि उन्हे ध्यॉन रहे कि वे जितने सुंदर दीखते हैं उतने ही सुंदर काम करें, कहीं बुरे काम उनकी सुंदरता को ढक ना ले और परिणामवश उन्हें कुरूप ना बना दे।
🔴 शिष्य को गुरु जी की बात का रहस्य मालूम हो गया। वह गुरु के आगे नतमस्तक हो गया।
🔵 मित्रो, कहने का भाव यह है कि सुन्दरता मन व् भावों से दिखती है। शरीर की सुन्दरता तात्कालिक है जब कि मन और विचारों की सुन्दरता की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है।
👉 शाश्वत और सर्वस्व की प्राप्ति है धर्म
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🔵 उनकी इस सकपकाहट को एक फकीर बैठा देख रहा था। वह हँस पड़ा। लोगों ने उसकी हँसी का कारण पूछा। तो उसने कहा, कुछ नहीं, बस यूँ ही बचपन की एक घटना याद आ गई। बचपन में मैं कुछ लोगों के साथ नदी तट पर वनभोज को गया था। नदी तो छोटी थी, पर रेत बहुत थी और रेत में चमकीले रंगों भरे पत्थर बहुत थे। मैंने तो जैसे खजाना पा लिया था। साँझ तक इतने पत्थर बीन लिए कि उन्हें साथ ले जाना असंभव था। चलते क्षण जब उन्हें छोड़ना पड़ा, तो आँखें भीग गईं। साथ के लोगों की उन पत्थरों की ओर विरक्ति देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उस दिन वे मुझे बड़े त्यागी लगे थे, पर आज जब सोचता हूँ, तो समझ आता है कि पत्थरों को पत्थर जान लेने पर त्याग का कोई प्रश्न ही नहीं है। अज्ञान भोग है। ज्ञान त्याग है। त्याग क्रिया नहीं है। वह करना नहीं होता है। वह हो जाता है। वह ज्ञान का सहज परिणाम है। भोग भी यांत्रिक है। वह भी कोई करता नहीं। वह अज्ञान की सहज परिणति है।
🔴 फिर त्याग के कठिन और कठोर होने की बात व्यर्थ है। उसके लिए घबराने-परेशान होने का भी कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि वह कोई क्रिया नहीं है। क्रियाएँ ही कठिन और कठोर मालूम पड़ती हैं। वह तो परिणाम है, फिर उसमें जो छूटता मालूम होता है, वह निर्मूल्य होता है और जो पाया जाता है, वह अमूल्य होता है।
🔵 सच तो यह है कि हम केवल बंधनों को छोड़ते हैं और पाते हैं मुक्ति। छोड़ते हैं कौड़ियाँ और पाते हैं हीरे। छोड़ते हैं मृत्यु और पाते हैं अमृत। छोड़ते हैं अँधेरा और पा लेते हैं प्रकाश। छोड़ते हैं अपनी क्षुद्रता और पा लेते हैं शाश्वत और अनंत। छोड़ते हैं दुःखों को, पीड़ाओं को और पा लेते हैं असीम आनंद। इसलिए त्याग कहाँ है? न कुछ को छोड़कर सब कुछ को पा लेना त्याग नहीं है। शाश्वत और सर्वस्व की प्राप्ति है धर्म।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 88
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