शुक्रवार, 16 मार्च 2018

👉 औकात का पता

🔶 एक राजा के दरबार मे एक अजनबी इंसान नौकरी मांगने के लिए आया।

🔷 उससे उसकी क़ाबलियत पूछी गई, तो वो बोला, "मैं आदमी हो चाहे जानवर, शक्ल देख कर उसके बारे में बता सकता हूँ।

🔶 राजा ने उसे अपने खास "घोड़ों के अस्तबल का इंचार्ज" बना दिया। चंद दिनों बाद राजा ने उससे अपने सब से महंगे और मनपसन्द घोड़े के बारे में पूछा, उसने कहा, "नस्ली नही  हैं।"

🔷 राजा को हैरानी हुई, उसने जंगल से घोड़े वाले को बुला कर पूछा.. उसने बताया, घोड़ा नस्ली तो हैं, पर इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है। राजा ने अपने नौकर को बुलाया और पूछा तुम को कैसे पता चला के घोड़ा नस्ली नहीं हैं ?"

🔶 "उसने कहा "जब ये घास खाता है तो गायों की तरह सर नीचे करके, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुह में लेकर सर उठा लेता हैं।😊

🔷 राजा उसकी काबलियत से बहुत खुश हुआ, उसने नौकर के घर अनाज ,घी, मुर्गे, और अंडे बतौर इनाम भिजवा दिए।

🔶 और उसे रानी के महल में तैनात कर दिया। चंद दिनो बाद , राजा ने उस से रानी के बारे में राय मांगी, उसने कहा, "तौर तरीके तो रानी जैसे हैं लेकिन पैदाइशी नहीं हैं।”

🔷 राजा के पैरों तले जमीन निकल गई, उसने अपनी सास को बुलाया, मामला उसको बताया, सास ने कहा "हक़ीक़त ये हैं,  कि आपके पिताजी ने मेरे पति से हमारी बेटी की पैदाइश पर ही रिश्ता मांग लिया था, लेकिन हमारी बेटी 6 माह में ही मर गई थी, लिहाज़ा हम ने आपके रजवाड़े से करीबी रखने के लिए किसी और की बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।"

🔶 राजा ने फिर अपने नौकर से पूछा "तुम को कैसे पता चला ?" ""उसने कहा, " रानी साहिबा का नौकरो के साथ सुलूक गंवारों से भी बुरा हैं। एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने का एक तरीका होता हैं, जो रानी साहिबा में बिल्कुल नही।

🔷 राजा फिर उसकी पारखी नज़रों से खुश हुआ और बहुत से अनाज, भेड़ बकरियां बतौर इनाम दीं साथ ही उसे अपने दरबार मे तैनात कर दिया।

🔶 कुछ वक्त गुज़रा, राजा ने फिर नौकर को बुलाया,और अपने बारे में पूछा। नौकर ने कहा "जान की सलामती हो तो कहूँ।”

🔷 राजा ने वादा किया। उसने कहा, "न तो आप राजा के बेटे हो और न ही आपका चलन राजाओं वाला है।" राजा को बहुत गुस्सा आया, मगर जान की सलामती का वचन दे चुका था, राजा सीधा अपनी मां के महल पहुंचा।

🔶 मां ने कहा, "ये सच है, तुम एक चरवाहे के बेटे हो, हमारी औलाद नहीं थी तो तुम्हे गोद लेकर हम ने पाला।”

🔷 राजा ने नौकर को बुलाया और पूछा , बता, "तुझे कैसे पता चला ?” उसने कहा " जब राजा किसी को "इनाम दिया करते हैं, तो हीरे मोती और जवाहरात की शक्ल में देते हैं....लेकिन आप भेड़, बकरियां, खाने पीने की चीजें दिया करते हैं...ये रवैया किसी राजाओं का नही,  किसी चरवाहे के बेटे का ही हो सकता है।"

🔶 किसी इंसान के पास कितनी धन दौलत, सुख समृद्धि, रुतबा, इल्म, बाहुबल हैं ये सब बाहरी दिखावा हैं।

🔷 इंसान की असलियत की पहचान उसके व्यवहार और उसकी नियत से होती हैं...

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 March 2018


👉 आज का सद्चिंतन 17 March 2018


👉 नारी को विकसित किया जाना आवश्यक है। (भाग 1)

🔶 सर्वांगीण प्रगति को ही प्रगति कहा जा सकता है। यदि शरीर के किसी एक अंग की उन्नति हो और शेष अंग अवनत पड़े रहें तो उससे कोई सन्तोषजनक परिणाम नहीं निकल सकता। पेट खूब मोटा हो जाए और हाथ पैर पतले रहें तो इससे कुरूपता और असुविधा ही बढ़ेगी। फील पाँव रोग में एक पैर मोटा हो जाता है और शेष सब अंग स्वाभाविक रहते हैं तो वह एक पैर का मोटा होना किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं बढ़ा सकता। इसी प्रकार यदि हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी रहे और जीवन की अन्य दिशाएं अविकसित रहें तो वह आर्थिक उन्नति सुखदायक न होकर मोटे पैर वाले व्यक्ति की तरह कष्ट कारक ही होगी।

🔷 माना कि धन बहुत है। पर उसकी उपयोगिता तभी है जब उसका सदुपयोग होने की व्यवस्था हो, यदि उसका दुरुपयोग होने लगा तो वह अमीरी वस्तुतः गरीबी से भी अधिक कष्टदायक एवं विपत्ति उत्पन्न करने वाली होती है। उपार्जित धन को अकेला कमाने वाला ही खर्च नहीं करता उसका लाभ वह अकेला ही नहीं उठाता वरन् परिवार के सब लोग मिलजुल कर ही उसका उपयोग करते हैं। घर के अन्य सदस्य यदि बुद्धि वाले हों तो संग्रहित धन ही उनके लिये आपस में लड़ मरने या तरह-तरह के दुरुपयोग करके अन्ततः रोग, अपकीर्ति, कलह, पाप एवं दण्ड के भोगने का कारण बनता है।

🔶 आज धन उपार्जन को प्रवृत्ति बड़े प्रबल वेग से हर मनुष्य के मस्तिष्क में काम कर रही है। व्यक्ति का एक ही लक्ष्य मालूम पड़ता है, अधिकाधिक धन उपार्जन करना और उसकी होली जलाकर तमाशा देखना। आमतौर से यही प्रधान आकाँक्षा है, यह दूसरी बात है कि सफलता किसे कितनी मात्रा में मिले। धन को महत्व देना उचित है और आवश्यक भी। पर उसे इतना महत्व मिलना नहीं चाहिये कि जीवन की अन्य महत्वपूर्ण दिशाएं उपेक्षित ही पड़ी रहें।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 26

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.26

👉 The Last Meeting with Buddha

🔶 Buddha was lying on his death bed. He was not meeting anyone. A rich man, Subhadra arrived and requested Anand ,"These are the last moments of Lord Buddha. I need to urgently discuss some important future plans, please allow me to meet Him". Anand expressed his inability to do so. Lord Buddha heard the discussion.

🔷 He called Subhadra in a feeble voice and said, "Although I am gravely ill, yet in my last moments if I cannot meet a person who has come to seek my advice on the future plans for social awakening, I will consider my life wasted". This last meeting changed the entire course of life for Subhadra. He dedicated himself to the spreading of religious thoughts and established Buddhism far and wide.

📖 From Akhand Jyoti

👉 प्रायश्चित क्यों? कैसे? (भाग 6)

🔶 यही ईसाई धर्म में भी होता है। ईसाई धर्म में जब आदमी मरने को होता है, तो जीवन की सारी-की बातें, बुरी-से घटनाएँ पादरी के सामने कह देते हैं। पादरी प्रार्थना करता है—इन्होंने जी खोलकर कह दिया, पाप हल्का हुआ भगवान तुम्हारे मन को शान्ति दे। आप भी जो यहाँ कल्प-साधना शिविर में आये हैं, तो अपने भीतर के संचित किये हुए पाप-कर्मों को जी खोलकर कह दें—एक तो काम यह हुआ। दूसरा, आपने जो पाप-कर्म किये थे, भविष्य में वह न करें, इसके लिए ऐसा दबाव डालिए, ताकि आपको यह ख्याल रहे कि हमने गलती की थी और अब गलती नहीं करेंगे। इसके लिए यदि मन पर दबाव नहीं डालेंगे, तो फिर आप ऐसे ही हो जाएँगे, जो पहले करते रहे हैं, फिर वैसा ही करने लगेंगे।

🔷 जब आपको नफरत ही नहीं हुई, जब आपको कोई दुःख ही नहीं हुआ, जब कोई प्रायश्चित ही नहीं हुआ, तब फिर यह कैसे विश्वास करें कि भविष्य में आप ऐसा नहीं करेंगे। इसलिए भविष्य में न करने की दृष्टि से एक काम बहुत जरूरी है कि आप अपने आपको थोड़ा-सा कष्ट दें। चान्द्रायण व्रत इसी कष्ट का नाम है। आपको भी यहाँ तपश्चर्या कराई जा रही है। तपश्चर्या का मतलब यही है कि आपको जो कष्ट मिले, उससे आपको याद बना रहे, कि हमने जिस पाप के प्रायश्चित के निमित्त कष्ट उठाया था, वह पाप आइन्दा नहीं करेंगे। आइन्दा नहीं करने के लिए कष्ट उठाना पड़ता है, आइन्दा याद बनी रहे, इसलिए तपश्चर्या की जाती है।

🔶 पिछला जो हो गया है, गलती हो गई है, वह स्वतः दूर हो जाएगी, यह वहम निकाल दीजिए। इसका तो एक ही उपाय है कि आपने जो गड्ढा खोदा है, उसको पूरा करना चाहिए। गड्ढे को अगर पूरा नहीं करेंगे, तो गड्ढा बना रहेगा, आप खाई में गिरेंगे, आपकी टाँग टूट जाएगी और दूसरों की टाँग टूटेगी। इसका कोई दूसरा उपाय है ही नहीं, सिवाय इसके कि आपने जो खाई खोदी है, उसको पूरा कीजिए, जो गड्ढा बना दिया है, उसमें मिट्टी डालिए, समतल बना दीजिए। यही तो प्रायश्चित है और क्या प्रायश्चित हो सकता है? इस प्रायश्चित को हमारे यहाँ इष्टापूर्ति कहते हैं, क्षतिपूर्ति भी कहते हैं।

🔷 आपने जो नुकसान किया है चुकाइए। बैंक से रुपया ले करके भाग गए हैं? हाँ, साहब पन्द्रह हजार रुपया ले करके भाग गए थे और हमारा वारण्ट है। आप ऐसा कीजिए बैंक वालों से मिलिए और खबर भेजिए। पन्द्रह हजार में से एक हजार रुपया हमने खर्च कर डाला है और चौदह हजार बचा। चौदह हजार रुपया उसको रिफण्ड कर दीजिए, बाकी एक हजार रुपयों की किस्तें कर लीजिए, फिर आप पर जो मुकदमा चलने वाला है, उससे आप बच जाएँगे। इसलिए क्या करना चाहिए कि आप उस खामियाजे को पूरा कीजिए। खामिखाजे को पूरा नहीं करेंगे, तब फिर बात कैसे बनेगी?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 66)

👉 श्री सद्गुरुः शरणं मम

🔶 गुरुगीता गुरुभक्ति की गंगोत्री है। यहाँ से प्रवाहित होने वाली गुरुभक्ति की गंगा जब शिष्यों के अन्तःकरण में प्रवेश करती है, तो उनके जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है। साठ हजार सगर पुत्रों की आत्मशक्ति की ही भाँति यह भक्ति गंगा भी असंख्य शिष्यों के त्रिविध तापों को शान्त करती है। यह भक्ति गंगा सब भाँति कल्मषहारी है। शिष्य-साधक के कषाय-कल्मष इसके भक्ति जल में धुलते हैं। शिष्यों का अन्तर्मन इसके जल में धुल कर धवल होता है। इसे वे सभी अनुभव करते हैं, जो अपने आपको सच्चा शिष्य सिद्ध करने के लिए प्राण-प्रण से बाजी लगाए हुए हैं। इनकी एक ही टेर रहती है कि प्राण भले ही जाए, पर किसी भी भाँति उनका शिष्यत्व कलंकित न होने पाए।

🔷 शिष्यत्व की कसौटी पर अपने आप को खरा साबित करने के लिए  इस गुरुभक्ति कथा के पूर्व मंत्र में बताया गया है कि गुरुदेव की भक्ति ही सार है। उनकी भक्ति से ज्ञान-विज्ञान सभी कुछ मिल जाता है। श्रुतियों में उन्हीं प्रभु की पराचेतना का निरूपण हुआ है। इसलिए मन और वाणी से उन्हीं सद्गुरुदेव की आराधना करते रहना चाहिए। गुरुसेवा को कमतर मानकर तप और विद्या को सब कुछ मानने वाले भले ही कुछ भी पा लें; लेकिन संसार चक्र से उनका छुटकारा नहीं हो पाता। इसीलिए सद्गुरु के शरणापन्न बने रहना ही साधना जीवन की सर्वोच्च कसौटी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 104

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...