स्वाध्याय क्रम के पैर जमते ही सभी प्रज्ञा संस्थानों को उपरोक्त कार्य पद्धति हाथ में लेनी चाहिए। उसके लिए साधन जुटाने चाहिए। हर प्रज्ञा संस्थान को स्वाध्याय शुभारंभ करके अग्रिम चरणों में सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेने होंगे, इसके लिए दस सूत्री योजना की चर्चा होती रही है, उनमें से चार तो ऐसे है जिन्हें छोटे प्रज्ञा संस्थान भी अपने न्यूनतम ३० सदस्यों की परिधि में कार्यान्वित कर सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कार शाला, व्यायाम शाला, खेलकूद, तुलसी आरोपण, हरीतिमा संवर्धन। शादियों में दहेज और धूमधाम का विरोध इन चार कार्यक्रमों में जन- जन को भागीदार बनाने का कार्य स्वाध्याय मंडलों को अपने तीस सदस्यों के परिवार से आरंभ करना चाहिए। इन कार्यक्रमों के सहारे यह छोटे संगठन भी अपनी गौरव गरिमा का परिचय देंगे। जन- जन का समर्थन सहयोग प्राप्त करेंगे और बीज से वृक्ष, चिनगारी से दावानल का नया उदाहरण बनेंगे।
स्वाध्याय के दो और सत्संग के चार चरण मिलकर छः बनते हैं। अगले दिनों हर मंडल को पर्व आयोजनों, नवरात्रि सत्रों और वार्षिकोत्सवों की व्यवस्था बनानी होगी। इन सब कार्यों के लिए, साधन जुटाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती रहेगी। इसका सरल और स्थायी रूप ज्ञानघट ही हो सकते हैं। प्रज्ञा परिवार को सदस्यता के लिए एक घण्टा समयदान और बीस पैसे की अंशदान नित्य नियमित रूप से करते रहने की शर्त है। ऐसे सच्चे प्रज्ञा परिवार विनिर्मित करने चाहिए जो बातों के बताशे ही न बनाते रहे, वरन् श्रद्धा का प्रमाण परिचय देने वाला भाव भरा अनुदान भी प्रस्तुत करें। बीस पैसे वाले ज्ञानघट पुरुषों के और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट महिलाओं के द्वारा चलें, तो प्रज्ञा संस्थानों को अगले दिनों जो कतिपय नये उपकरण खरीदने तथा नये कार्यक्रम चलाने होंगे, उनके लिए समयानुसार पैसा मिलता रहेगा। इस न्यूनतम अनिवार्य अंशदान के अतिरिक्त उदार मना परिजनों से कुछ अधिक खर्च करने की बात भी गले उतारनी चाहिए। ताकि स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान साहित्य पढ़ाने के प्रथम चरण तक ही न सीमित रहे। वर्ण माला और गिनती पहाड़ा ही न रटता रहे। अन्ततः इन छोटे संगठनों को विकसित होना है। हर सदस्य को एक से पाँच की विकास विस्तार प्रक्रिया को कार्यान्वित करना है। नवजात शिशु तो खिलौनों से खेलता और गोदी में चढ़ता रहता है, पर समय बीतने पर वह किशोर और प्रौढ़ भी तो बनता है। तदनुसार उसकी गतिविधियाँ भी भारी भरकम बनती चली जाती है।
स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थान की समर्थता पाँच साथियों का सहयोग प्राप्त करने और तीस का कार्यक्षेत्र बनाने की विधि व्यवस्था पर अवलम्बित माना गया है। किसी भी प्रतिभाशाली के लिए इतने संगठन और योजना चला सकना कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इतने पर भी यह हो सकता है कि कोई नितान्त व्यस्त, संकोची, रुग्ण, अविकसित, असमर्थ एवं महिलाओं की तरह प्रतिबंधित होने की स्थिति में संगठन क्रम न चला सके। उन्हें भी मन मसोस कर बैठने की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए एकाकी प्रयत्न से चल सकने वाली प्रज्ञा केन्द्र व्यवस्था का प्रावधान रखा गया है। इसमें संगठित प्रयत्न के बिना भी एकाकी प्रयास से काम चल सकता है। ऐसे लोग बीस पैसे के स्थान पर अपनी तथा कुटुम्बियों की ओर से चालीस पैसा प्रतिदिन की व्यवस्था करे। और उतने भर से हर महीने प्रकाशित होने वाली तीस फोल्डर पुस्तिकाएँ मँगाये और परिवार पड़ोस के बारह व्यक्तियों को उन्हें पढ़ाते सुनाते रहें। इस प्रकार भी प्रज्ञापीठ संस्थान वाली प्रक्रिया का एकाकी स्तर पर निर्वाह हो जाता है। इस आधार पर घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय बनता और बढ़ता रह सकता है।
स्मरण रहे प्रज्ञा संस्थानों और प्रज्ञा केन्द्र द्वारा पढ़ाने के लिए खरीदा गया साहित्य उन्हीं की पूँजी के रूप में उन्हीं के पास रहता है। कोई चाहे तो लागत से थोड़े कम मूल्य में किसी भी दिन कहीं भी बेच भी सकता है। अस्तु यह दान नहीं सम्पदा संचय है। ऐसी सम्पदा जिसे सोने चाँदी की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली कहा जा सकता है। हर विचारशील को अपने निजी परिवार को सुसंस्कारी बनाने के लिए इस संचय को करना ही चाहिए।
प्रज्ञा केन्द्र, प्रज्ञा संस्थान, प्रज्ञापीठ के गठन का कोई भी स्वरूप क्यों न हो, उसे चलाने वाले अनायास ही विचारशीलों के सम्पर्क में आते हैं, उनके साथ घनिष्ठता स्थापित करते, सहानुभूति अर्पित करते और मित्रता करते हैं। यह उपलब्धि आरंभ में तो कम महत्त्व की दीखती है, पर जब आने वाले समय में उन मित्रों के सहयोग से विपत्ति निवारण और प्रगति लाभ के सुयोग बनते है तब प्रतीत होता है कि इस सेवा साधना में जो श्रम समय एवं पैसा लगा, वह अनेक गुना होकर वापिस लौटने लगा। विचारशीलों की सद्भावना एवं घनिष्ठता उपलब्ध करने वाले प्रकारान्तर से सुखद वर्तमान एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करते और अनुदान का प्रतिदान हाथों हाथ प्राप्त करते हैं।
.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)