गुरुवार, 9 मार्च 2017
👉 तबादला स्थगित हुआ
🔴 सन् १९६५ से मैं अखण्ड ज्योति का सदस्य बना। इसके पश्चात् अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा से पहली बार परम पूज्य गुरु देव के हाथ का लिखा पत्र मिला, जिसमें गुरुदेव ने ‘‘मेरे आत्मस्वरूप’’ करके सम्बोधन किया था। इस पत्र में इतना अपनापन का भाव था कि मन भीग गया और १८ जून १९७१ को मथुरा में गुरुदेव से दीक्षा ले ली। घटना १९७५ की है। मैं रेलवे में सर्विस कर रहा था। मेरी पोस्टिंग लुधियाना में थी। मैं मेकेनिक सिग्नल इंस्पेक्टर के पद पर कार्य कर रहा था। इस सर्विस में तबादला हमेशा ही होता रहता है। इसी क्रम में मेरा तबादला कानपुर में हुआ, जहाँ आधुनिक पावर सिग्नल का काम शुरू करना था।
🔵 इसके लिए मैं सक्षम नहीं था। इस कार्य का मुझे कोई अनुभव नहीं था। मन बहुत डर रहा था। कहीं कोई गड़बड़ी हो तो नौकरी ही चली जाएगी। मैंने तबादला रुकवाने के लिए काफी प्रयास किया, लेकिन सारे प्रयास बेकार सिद्ध हुए। इसी बीच शान्तिकुञ्ज से जीवन साधना शिविर में सम्मिलित होने के लिए स्वीकृति पत्र मिला, जिसके लिए मैंने पहले ही आवेदन दे रखा था। पत्र मिलते ही निश्चित समय पर शिविर में शामिल होने के लिए मैं शान्तिकुञ्ज पहुँचा।
🔴 शिविर शुरू हो गया था। मैं नियमित दिनचर्या में सम्मिलित होता था। उन दिनों गुरुदेव दोपहर में स्वयं सभी परिजनों से मिलते थे। मैं भी गुरुदेव के पास पहुँचा। कमरे में प्रवेश करते ही गुरुदेव ने बुलाकर पास बिठाया और हाल समाचार पूछे। तबादले को लेकर मेरी दुश्चिन्ता उनसे छिपी नहीं रही। शायद उस समय भी मेरे मुख पर चिन्ता के भाव थे। मैंने स्वयं अपनी समस्या के बारे में नहीं बताया। गुरुदेव ने कहा- बेटा ‘‘तुम कुछ चिन्तित दिखते हो, क्या बात है?’’ मैंने बात टालने की कोशिश की। लेकिन गुरुदेव के बार- बार पूछने पर मैंने बताया कि गुरुदेव! मेरा तबादला कानपुर में हो रहा है। नई सिग्नलिंग पूरी तरह इलेक्ट्रिकल है और सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भी। इस कार्य को करने का कोई अनुभव भी मेरे पास नहीं है। मेरी बातों को सुनकर गुरुदेव मुस्कुराए और बड़े ही सहज भाव से बोले कि ‘‘यदि तुम वहाँ नहीं जाना चाहते हो, तो नहीं जाओगे। चिन्ता न करो। तुम शिविर करने आए हो, उसे मन लगाकर करो।’’
🔵 शिविर समाप्त कर जब लुधियाना पहुँचा तो देखा, वहाँ तबादले को लेकर काफी चर्चा छिड़ी हुई थी। मेरे ऑफिस पहुँचते ही साथियों ने सूचना दी कि आपका तबादला स्थगित हो गया है। मुझे विश्वास नहीं हुआ। फिर साथियों ने कहा कि स्वयं चीफ सिग्नल इंजीनियर ने तबादले की लिस्ट मँगाकर आपका नाम काट दिया है। ये शब्द सुनते ही मुझे गुरु देव का सहज भाव से दिया गया आश्वासन याद आया तभी मैंने जाना कि सरकारी मशीनरी भी उनकी इच्छा के ही अधीन है।
🌹 अनिरुद्ध प्र. श्रीवास्तव लखनऊ (उ.प्र.)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/kalis.1
👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 17)
🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं
🔴 एक सम्भावना यह है कि सञ्चित अनाचारों का विस्फोट इन्हीं दिनों हो सकता है। उसे रोका न गया, तो कोई महायुद्ध भड़क सकता है। बढ़ता हुआ प्रदूषण, भयावह बहुप्रजनन, बढ़ता हुआ अनाचार मिल-जुलकर महाप्रलय या खण्डप्रलय जैसी स्थिति-उत्पन्न कर सकते हैं। उसे रोकने के लिए सशक्त अवरोध चाहिए। ऐसा अवरोध, जो उफनती हुई नदियों पर बाँध बनाकर उस जल-सञ्चय को नहरों द्वारा खेत-खेत तक पहुँचा सके। वह साधारणों का नहीं असाधारणों का काम है।
🔵 ताजमहल, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पीसा की मीनार, स्वेज और पनामा नहर, हालैण्ड द्वारा समुद्र को पीछे धकेलकर उस स्थान पर सुरम्य औद्योगिक नगर बसा लेने जैसे अद्भुत सृजन-कार्य जहाँ-तहाँ विनिर्मित हुए दीख पड़ते हैं, वे आरम्भ में किन्हीं एकाध संकल्पवानों के ही मन-मानस में उभरे थे। बाद में सहयोगियों की मण्डली जुड़ती गई और असीम साधनों की व्यवस्था बनती चली गई। नवयुग का अवतरण भी इन सबमें बढ़ा-चढ़ा कार्य है, क्योंकि उसके साथ संसार के समूचे धरातल का, जन समुदाय का, सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार जुड़ता है। इतने बड़े परिवर्तन एवं प्रयास के लिए अग्रदूत कौन बने? अग्रिम पंक्ति में खड़ा कौन हो? आवश्यक क्षमता और सम्पदा कौन जुटाए? निश्चय ही यह नियोजन असाधारण एवं अभूतपूर्व है। इसे, बिना मनस्वी साथी-सहयोगियों के सम्पन्न नहीं किया जा सकता। विचारणीय है कि उतनी बड़ी व्यवस्था कैसे बने?
🔴 आरम्भिक दृष्टि से यह कार्य लगभग असम्भव जैसा लगता है, पर संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिसने असम्भव को सम्भव बनाया है। आल्पस पहाड़ को लाँघने की योजना बनाने वाले नेपोलियन से हर किसी ने यह कहा था कि जो कार्य सृष्टि में आदि से लेकर अब तक कोई नहीं कर सका, उसे आप कैसे कर लेंगे? उत्तर बड़ा शानदार था। असम्भव शब्द मूर्खों के कोश में लिखा मिलता है। यदि आल्पस ने राह न दी, तो उसे इन्हीं पैरों के नीचे रौंदकर रख दिया जाएगा। अमेरिका की खोज पर निकले कोलम्बस को भी लगभग ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा।
🔵 समुद्र से अण्डे वापस लेने में असफल होने पर जब टिटहरी ने अपनी चोंच में बालू भरकर समुद्र में डालने और उसे पाटकर समतल बनाने का सङ्कल्प घोषित किया और उसके लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए उद्यत हो गई, तो नियति ने संकल्पवानों का साथ दिया। अगस्त्य मुनि आए, उन्होंने समुद्र पी डाला और टिटहरी को अण्डे वापस मिल गए। फरहाद द्वारा पहाड़ काटकर ३२ मील लम्बी नहर निकालने का असम्भव समझे जाने वाला कार्य सम्भव करके दिखाया गया। इसे ही कहते हैं ‘‘प्रतिभा’’।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 एक सम्भावना यह है कि सञ्चित अनाचारों का विस्फोट इन्हीं दिनों हो सकता है। उसे रोका न गया, तो कोई महायुद्ध भड़क सकता है। बढ़ता हुआ प्रदूषण, भयावह बहुप्रजनन, बढ़ता हुआ अनाचार मिल-जुलकर महाप्रलय या खण्डप्रलय जैसी स्थिति-उत्पन्न कर सकते हैं। उसे रोकने के लिए सशक्त अवरोध चाहिए। ऐसा अवरोध, जो उफनती हुई नदियों पर बाँध बनाकर उस जल-सञ्चय को नहरों द्वारा खेत-खेत तक पहुँचा सके। वह साधारणों का नहीं असाधारणों का काम है।
🔵 ताजमहल, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पीसा की मीनार, स्वेज और पनामा नहर, हालैण्ड द्वारा समुद्र को पीछे धकेलकर उस स्थान पर सुरम्य औद्योगिक नगर बसा लेने जैसे अद्भुत सृजन-कार्य जहाँ-तहाँ विनिर्मित हुए दीख पड़ते हैं, वे आरम्भ में किन्हीं एकाध संकल्पवानों के ही मन-मानस में उभरे थे। बाद में सहयोगियों की मण्डली जुड़ती गई और असीम साधनों की व्यवस्था बनती चली गई। नवयुग का अवतरण भी इन सबमें बढ़ा-चढ़ा कार्य है, क्योंकि उसके साथ संसार के समूचे धरातल का, जन समुदाय का, सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार जुड़ता है। इतने बड़े परिवर्तन एवं प्रयास के लिए अग्रदूत कौन बने? अग्रिम पंक्ति में खड़ा कौन हो? आवश्यक क्षमता और सम्पदा कौन जुटाए? निश्चय ही यह नियोजन असाधारण एवं अभूतपूर्व है। इसे, बिना मनस्वी साथी-सहयोगियों के सम्पन्न नहीं किया जा सकता। विचारणीय है कि उतनी बड़ी व्यवस्था कैसे बने?
🔴 आरम्भिक दृष्टि से यह कार्य लगभग असम्भव जैसा लगता है, पर संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिसने असम्भव को सम्भव बनाया है। आल्पस पहाड़ को लाँघने की योजना बनाने वाले नेपोलियन से हर किसी ने यह कहा था कि जो कार्य सृष्टि में आदि से लेकर अब तक कोई नहीं कर सका, उसे आप कैसे कर लेंगे? उत्तर बड़ा शानदार था। असम्भव शब्द मूर्खों के कोश में लिखा मिलता है। यदि आल्पस ने राह न दी, तो उसे इन्हीं पैरों के नीचे रौंदकर रख दिया जाएगा। अमेरिका की खोज पर निकले कोलम्बस को भी लगभग ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा।
🔵 समुद्र से अण्डे वापस लेने में असफल होने पर जब टिटहरी ने अपनी चोंच में बालू भरकर समुद्र में डालने और उसे पाटकर समतल बनाने का सङ्कल्प घोषित किया और उसके लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए उद्यत हो गई, तो नियति ने संकल्पवानों का साथ दिया। अगस्त्य मुनि आए, उन्होंने समुद्र पी डाला और टिटहरी को अण्डे वापस मिल गए। फरहाद द्वारा पहाड़ काटकर ३२ मील लम्बी नहर निकालने का असम्भव समझे जाने वाला कार्य सम्भव करके दिखाया गया। इसे ही कहते हैं ‘‘प्रतिभा’’।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 अपनी तृप्ति को धर्म मत बनाओ
🔵 धर्म का एक निश्चित विश्वास है, पारलौकिक जीवन की सुख-शांति और बंधन, मुक्ति। पर उस विश्वास की पुष्टि कैसे हो, इसके लिए धर्म की एक कसौटी है और वह यह है कि व्यक्ति का प्रस्तुत जीवन भी शांत-बंधनमुक्त, कलह, अज्ञान और अभाव मुक्त होना चाहिए।
🔴 धर्म का पालक बनें किंतु वह विशेषताएँ परिलक्षित न हों तो यह मानना चाहिये, वहाँ धर्म नहीं, अपनी तृप्ति का कोई खिलवाड या षड्यंत्र चल रहा है। आज सर्वत्र ऐसे ही भोंडे धर्म के दर्शन होते हैं। विचारशील व्यक्ति ऐसे धर्म को कभी भी स्वीकार नहीं करते, चाहे उसके लिए कितना ही दबाव पडे़, दुराग्रह हो या भयभीत किया जाए।
🔵 प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है, जब उन्होंने जीवन का संकट मोल लेकर भी इस तरह के अंध-विश्वास का प्रतिवाद किया।
🔴 एक बार नगर के एक देव मंदिर में कोई उत्सव था। नगरवासी प्लेटो को उसमें सम्मिलित होने के लिए सम्मानपूर्वक ले आए। नगरवासियों के प्रेम और आग्रह को प्लेटो ठुकरा न सके उत्सव मे सम्मिलित हुए। वैसे उनका विचार यह था कि इस तरह के उत्सव आयोजनों में किया जाने वाला व्यय मनुष्य के कल्याण में लगना चाहिए। बाहरी टीमराम, दिखावे या प्रदर्शनबाजी में नहीं।
🔵 मंदिर में जाकर एक नया ही दृश्य देखने को मिला। नगरवासी देव प्रतिमा के सामने अनेक पशुओं की बलि चढ़ाने लगे। जो भी आता, एक पशु अपने साथ लाता। देव प्रतिमा के सामने खडा़ कर उस पर तेज अस्त्र से प्रहार किया जाता है। दूसरे क्षण वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते-इठलाते और नृत्य करते।
🔴 जीव मात्र की अंतर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने पहली बार धर्म के नाम पर नृशंस आचरण के दर्शन किए। वहाँ दया, करुणा, संवेदना और आत्म-परायणता का कोई स्थान न था।
🔵 वे उठकर चलने लगे। उनका हृदय अंतर्नाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा- 'मान्य अतिथि आज तो आपको भी बलि चढा़नी होगी, तभी देव प्रतिमा प्रसन्न होगी। लीजिये यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु। वार कीजिए और देव प्रतिमा को अर्ध्यदान दीजिए।''
🔴 प्लेटो ने शांतिपूर्वक थोड़ा पानी लिया। मिट्टी गीली की उसी का छोटा सा जानवर बनाया। देव प्रतिमा के सामने तलवार चलाई और उसे काट दिया और फिर चल पडे घर ओर।
🔵 अंध-श्रद्धालु इस पर प्लेटो से बहस करने लगे- 'क्या यही आपका बलिदान है।'
🔴 हाँ प्लेटो ने शांति से कहा- ''आपका देवता निर्जीव है, निर्जीव भेंट उपयुक्त थी-सो चढा़ दी, वह खा-पी सकता इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा नहीं।
🔵 उन धर्मधारियों ने प्रतिवाद किया और कहा कि जिन लोगों यह प्रथा चलाई "क्या वे मूर्ख थे, क्या आपका अभिप्राय यह कि हमारा यह कृत्य मूर्खतापूर्ण है ?"
🔴 प्लेटो मुस्कराए, पर उनका अंतर कराह रहा था। जीवन मात्र के प्रति दर्द का भाव अब स्पष्ट ही हो गया। उन्होंने निर्भीक भाव से कहा- ''आप हों या पूर्वज, जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई-पशुओं का नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है। कृपया देवता को कलंकित करो, न धर्म को। धर्म, दया और विवेक पर्याय है, हिंसा और अंध विश्वास का पोषक नहीं हो सकता।''
🔵 इस प्रश्न का जबाव किसी के पास न था। नगरवासी सिर सुकाए खडे रहे। प्लेटो उनके बीच से चले आए। ऐसे ही धर्म को स्वार्थ-साधन बनाने वालों के पास से परमात्मा भाग जाते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 73, 74
🔴 धर्म का पालक बनें किंतु वह विशेषताएँ परिलक्षित न हों तो यह मानना चाहिये, वहाँ धर्म नहीं, अपनी तृप्ति का कोई खिलवाड या षड्यंत्र चल रहा है। आज सर्वत्र ऐसे ही भोंडे धर्म के दर्शन होते हैं। विचारशील व्यक्ति ऐसे धर्म को कभी भी स्वीकार नहीं करते, चाहे उसके लिए कितना ही दबाव पडे़, दुराग्रह हो या भयभीत किया जाए।
🔵 प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना है, जब उन्होंने जीवन का संकट मोल लेकर भी इस तरह के अंध-विश्वास का प्रतिवाद किया।
🔴 एक बार नगर के एक देव मंदिर में कोई उत्सव था। नगरवासी प्लेटो को उसमें सम्मिलित होने के लिए सम्मानपूर्वक ले आए। नगरवासियों के प्रेम और आग्रह को प्लेटो ठुकरा न सके उत्सव मे सम्मिलित हुए। वैसे उनका विचार यह था कि इस तरह के उत्सव आयोजनों में किया जाने वाला व्यय मनुष्य के कल्याण में लगना चाहिए। बाहरी टीमराम, दिखावे या प्रदर्शनबाजी में नहीं।
🔵 मंदिर में जाकर एक नया ही दृश्य देखने को मिला। नगरवासी देव प्रतिमा के सामने अनेक पशुओं की बलि चढ़ाने लगे। जो भी आता, एक पशु अपने साथ लाता। देव प्रतिमा के सामने खडा़ कर उस पर तेज अस्त्र से प्रहार किया जाता है। दूसरे क्षण वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते-इठलाते और नृत्य करते।
🔴 जीव मात्र की अंतर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो से यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने पहली बार धर्म के नाम पर नृशंस आचरण के दर्शन किए। वहाँ दया, करुणा, संवेदना और आत्म-परायणता का कोई स्थान न था।
🔵 वे उठकर चलने लगे। उनका हृदय अंतर्नाद कर रहा था। तभी एक सज्जन ने उनका हाथ पकड़कर कहा- 'मान्य अतिथि आज तो आपको भी बलि चढा़नी होगी, तभी देव प्रतिमा प्रसन्न होगी। लीजिये यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु। वार कीजिए और देव प्रतिमा को अर्ध्यदान दीजिए।''
🔴 प्लेटो ने शांतिपूर्वक थोड़ा पानी लिया। मिट्टी गीली की उसी का छोटा सा जानवर बनाया। देव प्रतिमा के सामने तलवार चलाई और उसे काट दिया और फिर चल पडे घर ओर।
🔵 अंध-श्रद्धालु इस पर प्लेटो से बहस करने लगे- 'क्या यही आपका बलिदान है।'
🔴 हाँ प्लेटो ने शांति से कहा- ''आपका देवता निर्जीव है, निर्जीव भेंट उपयुक्त थी-सो चढा़ दी, वह खा-पी सकता इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा नहीं।
🔵 उन धर्मधारियों ने प्रतिवाद किया और कहा कि जिन लोगों यह प्रथा चलाई "क्या वे मूर्ख थे, क्या आपका अभिप्राय यह कि हमारा यह कृत्य मूर्खतापूर्ण है ?"
🔴 प्लेटो मुस्कराए, पर उनका अंतर कराह रहा था। जीवन मात्र के प्रति दर्द का भाव अब स्पष्ट ही हो गया। उन्होंने निर्भीक भाव से कहा- ''आप हों या पूर्वज, जिन्होंने भी यह प्रथा चलाई-पशुओं का नहीं, मानवीय करुणा की हत्या का प्रचलन किया है। कृपया देवता को कलंकित करो, न धर्म को। धर्म, दया और विवेक पर्याय है, हिंसा और अंध विश्वास का पोषक नहीं हो सकता।''
🔵 इस प्रश्न का जबाव किसी के पास न था। नगरवासी सिर सुकाए खडे रहे। प्लेटो उनके बीच से चले आए। ऐसे ही धर्म को स्वार्थ-साधन बनाने वालों के पास से परमात्मा भाग जाते हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 73, 74
👉 आत्मचिंतन के क्षण 10 March
🔴 महाकवि शेक्सपीयर ने लिखा है- ”दृश्य और अदृश्य का ज्ञान विचारों से होता है, संसार में अच्छा या बुरा जो कुछ भी है, वह विचारों की ही देन है।” इससे दो बातें समझ में आती हैं। एक तो यह कि संसार का यथार्थ ज्ञान पैदा करने के लिए विचार शक्ति चाहिये। दूसरे, अच्छी परिस्थितियाँ, सुखी जीवन और सुसंस्कृत समाज की रचना के लिये स्वस्थ और नवोदित विचार चाहिये। यह जो रचना हम करते रहते हैं, उसकी एक काल्पनिक छाया हमारे मस्तिष्क में आती रहती है, उसी को क्रियात्मक रूप दे देने से अच्छे-बुरे परिणाम सामने आते हैं।
🔵 मनुष्य जब तक साँसारिक अभिमान में भूला रहता है तब तक उसकी शक्ति और सामर्थ्य बिल्कुल तुच्छ और नगण्य होती है। जीवन के सारे अधिकार जब ईश्वर के हाथ सौंप देते हैं तो पूर्ण निश्चिन्तता आ जाती है। कोई भय नहीं, कोई आकाँक्षा नहीं। न कुछ दुःख और न ही किसी प्रकार का सुख शेष रहता है। पूर्ण तृप्ति और अलौकिक आनन्द की अनुभूति तब होती है जब जीवन की बागडोर परमात्मा को सौंप देते हैं। तब उसे बुलाना भी नहीं पड़ता। वह स्वयं ही आकर पहरेदारी करते हैं। भक्त के प्रत्येक अवयव में स्थित होकर अपना कार्य करने लगते हैं। इस स्थिति को ही पूर्ण समर्पण कहते हैं।
🔴 सत्कर्म दिखावे के लिये ही न करें। उनके प्रति हमारी गहन निष्ठा भी होनी चाहिये। ईश्वर के प्रति जितना अधिक विश्वास होगा उतना ही अधिक सत्कर्मों में प्रीति बनी रहेगी। जब भी कभी उसे भूल जाते हैं तभी दुष्कर्म बन पड़ते हैं। ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखेंगे तभी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्कर्म और कर्त्तव्य-पालन से विचलित न होंगे। प्रलोभनों में वही फँसते हैं जिनका ईश्वर-विश्वास डगमगाता रहता है, पर जिसने चिन्तन-मनन और विचार द्वारा हृदय-आत्मा से ईश्वरीय स्थिति को स्वीकार कर लिया है उससे भूलकर भी कोई ऐसा कार्य न होगा जिससे किसी को कष्ट पहुँचता हो।
🔵 मनुष्य जब तक साँसारिक अभिमान में भूला रहता है तब तक उसकी शक्ति और सामर्थ्य बिल्कुल तुच्छ और नगण्य होती है। जीवन के सारे अधिकार जब ईश्वर के हाथ सौंप देते हैं तो पूर्ण निश्चिन्तता आ जाती है। कोई भय नहीं, कोई आकाँक्षा नहीं। न कुछ दुःख और न ही किसी प्रकार का सुख शेष रहता है। पूर्ण तृप्ति और अलौकिक आनन्द की अनुभूति तब होती है जब जीवन की बागडोर परमात्मा को सौंप देते हैं। तब उसे बुलाना भी नहीं पड़ता। वह स्वयं ही आकर पहरेदारी करते हैं। भक्त के प्रत्येक अवयव में स्थित होकर अपना कार्य करने लगते हैं। इस स्थिति को ही पूर्ण समर्पण कहते हैं।
🔴 सत्कर्म दिखावे के लिये ही न करें। उनके प्रति हमारी गहन निष्ठा भी होनी चाहिये। ईश्वर के प्रति जितना अधिक विश्वास होगा उतना ही अधिक सत्कर्मों में प्रीति बनी रहेगी। जब भी कभी उसे भूल जाते हैं तभी दुष्कर्म बन पड़ते हैं। ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखेंगे तभी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्कर्म और कर्त्तव्य-पालन से विचलित न होंगे। प्रलोभनों में वही फँसते हैं जिनका ईश्वर-विश्वास डगमगाता रहता है, पर जिसने चिन्तन-मनन और विचार द्वारा हृदय-आत्मा से ईश्वरीय स्थिति को स्वीकार कर लिया है उससे भूलकर भी कोई ऐसा कार्य न होगा जिससे किसी को कष्ट पहुँचता हो।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 33)
🌹 विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं
🔴 धर्म-कर्म और विरक्ति भाव में रुचि होने पर भी भोग वासनायें उनका साथ नहीं छोड़ पातीं। विचार जब तक संस्कार नहीं बन जाते मानव-वृत्तियों में परिवर्तन नहीं ला सकते। संस्कार रूप भोग वासनाओं से छूट सकना तभी सम्भव होता है जब अखण्ड प्रयत्न द्वारा पूर्व संस्कारों को धूमिल बनाया जाये और वांछनीय विचारों का भावनात्मक अनुभूति के साथ, चिन्तन-मनन और विश्वास के द्वारा संस्कार रूप में प्रौढ़ और परिपुष्ट किया जाय। पुराने संस्कारों की रचना परमावश्यक है।
🔵 चरित्र मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। यही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख-शान्ति और मान-सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख-दारिद्रय तथा अशान्ति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। जिसने अपने चरित्र का निर्माण आदर्श रूप में कर लिया उसने मानो लौकिक सफलताओं के साथ पारलौकिक सुख-शान्ति की सम्भावनायें स्थिर कर लीं और जिसने अन्य नश्वर सम्पदाओं के माया-मोह में पकड़कर अपनी चारित्रिक सम्पदा की उपेक्षा कर दी उसने मानो लोक से लेकर परलोक तक के जीवन पथ में अपने लिए नारकीय प्रभाव प्रबन्ध कर लिया।
🔴 यदि सुख की इच्छा है तो चरित्र का निर्माण करिये। धन की कामना है तो आचरण ऊंचा करिये, स्वर्ग की वांछा है तो भी चरित्र को देवोपम बनाइये और यदि आत्मा, परमात्मा अथवा मोक्ष मुक्ति की जिज्ञासा है तो भी चरित्र को आदर्श एवं उदात्त बनाना होगा। जहां चरित्र है वहां सब कुछ है, जहां चरित्र नहीं वहां कुछ भी नहीं। भले ही देखने-सुनने के लिए भण्डार के भण्डार क्यों न भरे पड़े हों।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 धर्म-कर्म और विरक्ति भाव में रुचि होने पर भी भोग वासनायें उनका साथ नहीं छोड़ पातीं। विचार जब तक संस्कार नहीं बन जाते मानव-वृत्तियों में परिवर्तन नहीं ला सकते। संस्कार रूप भोग वासनाओं से छूट सकना तभी सम्भव होता है जब अखण्ड प्रयत्न द्वारा पूर्व संस्कारों को धूमिल बनाया जाये और वांछनीय विचारों का भावनात्मक अनुभूति के साथ, चिन्तन-मनन और विश्वास के द्वारा संस्कार रूप में प्रौढ़ और परिपुष्ट किया जाय। पुराने संस्कारों की रचना परमावश्यक है।
🔵 चरित्र मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। यही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख-शान्ति और मान-सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख-दारिद्रय तथा अशान्ति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। जिसने अपने चरित्र का निर्माण आदर्श रूप में कर लिया उसने मानो लौकिक सफलताओं के साथ पारलौकिक सुख-शान्ति की सम्भावनायें स्थिर कर लीं और जिसने अन्य नश्वर सम्पदाओं के माया-मोह में पकड़कर अपनी चारित्रिक सम्पदा की उपेक्षा कर दी उसने मानो लोक से लेकर परलोक तक के जीवन पथ में अपने लिए नारकीय प्रभाव प्रबन्ध कर लिया।
🔴 यदि सुख की इच्छा है तो चरित्र का निर्माण करिये। धन की कामना है तो आचरण ऊंचा करिये, स्वर्ग की वांछा है तो भी चरित्र को देवोपम बनाइये और यदि आत्मा, परमात्मा अथवा मोक्ष मुक्ति की जिज्ञासा है तो भी चरित्र को आदर्श एवं उदात्त बनाना होगा। जहां चरित्र है वहां सब कुछ है, जहां चरित्र नहीं वहां कुछ भी नहीं। भले ही देखने-सुनने के लिए भण्डार के भण्डार क्यों न भरे पड़े हों।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 11)
🌹 अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि
🔵 भ्रांतियों का स्वरूप समझ लेने के उपरांत यह भी आवश्यक है कि उसका समाधान भी समझा जाए और यह जानने का प्रयत्न किया जाए कि वह वास्तविकता क्या है, जिसकी आड़ लेकर धुएँ का बादल बनाकर खड़ा कर दिया गया।
🔴 समझा जाना चाहिये कि संसार के दृश्यमान जड़-पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड को बनाने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है।
🔵 असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ी है। नकली चीजें सस्ती भी होती हैं। चलती भी अधिक हैं और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती है। नकली सोने के, नकली चाँदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे-मोती भी खूब बिकते हैं। नकली रेशम, नकली दाँत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएँ ऐसे चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पातीं। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 भ्रांतियों का स्वरूप समझ लेने के उपरांत यह भी आवश्यक है कि उसका समाधान भी समझा जाए और यह जानने का प्रयत्न किया जाए कि वह वास्तविकता क्या है, जिसकी आड़ लेकर धुएँ का बादल बनाकर खड़ा कर दिया गया।
🔴 समझा जाना चाहिये कि संसार के दृश्यमान जड़-पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड को बनाने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है।
🔵 असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ी है। नकली चीजें सस्ती भी होती हैं। चलती भी अधिक हैं और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती है। नकली सोने के, नकली चाँदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे-मोती भी खूब बिकते हैं। नकली रेशम, नकली दाँत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएँ ऐसे चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पातीं। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 15)
🌹 द्विज का अर्थ - मर्म समझें
🔴 कोई सामान्य मनुष्य ब्रह्मा कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य विष्णु कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य महेश कैसे हो सकता है? इतनी जो महत्ता और महिमा बताई गई है, वह अंतरंग में बैठे हुए उस भगवान् के लिए है। सद्गुरु शब्द केवल भगवान् के लिए काम आता है, मनुष्यों के लिए नहीं आता। गुरु तो जरूर मनुष्यों के लिए आता है, लेकिन सद्गुरु सम्बोधन कभी मनुष्य के लिए काम में नहीं आ सकता, वह सिर्फ भगवान् के लिए काम आयेगा। उस भगवान् के लिए जो हमारे अन्तरंग में बैठा हुआ प्रेरणा दिया करता है।
🔵 सद्गुरु के साथ अपनी जीवात्मा का सम्बन्ध जोड़ लेना- यही गुरु दीक्षा है। गुरु दीक्षा जब होती है, तो हमको गायत्री मंत्र दिया जाता है। ये सिम्बल है, ये सहारा है। पहाड़ पर चढ़ने के लिए हाथ में लाठी जिस तरीके से दी जाती है, उस तरीके से ये लाठी है- महानता के मार्ग पर चलने के लिए। गायत्री मंत्र की शिक्षाओं में कितना मूल्य भरा हुआ है। मनुष्य को सविता के समान तेजस्वी होना चाहिए और वरेण्य- श्रेष्ठ होना चाहिए, ऐसी कितनी विशेषता उसमें भरी पड़ी है। अंत में ये कहा गया है- धियो यो नः प्रचोदयात्। इनसान की इस दुनिया में अक्ल को बहकाने वाले बहुत साधन भरे पड़े हैं।
🔴 हमारे कुटुम्बी हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे खानदान वाले हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे लोग ही हमारी अक्ल को बहकाते हैं और समाज के लोग अक्ल को बहकाते हैं। जितनी भी दुनिया में चालाकियाँ और जाल भरे पड़े हैं, आदमी की अक्ल को बहकाते हैं। अक्ल को बहकाया नहीं जाना चाहिए। इस तरह का शिक्षण, इस तरह का इशारा, इस तरह का सिगनल और इस तरह का जिस मंत्र के द्वारा, जिस प्रेरणा के द्वारा, जिस प्रकाश के द्वारा, हमको मार्गदर्शन दिया गया है, उसका नाम गायत्री मंत्र है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/c
🔴 कोई सामान्य मनुष्य ब्रह्मा कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य विष्णु कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य महेश कैसे हो सकता है? इतनी जो महत्ता और महिमा बताई गई है, वह अंतरंग में बैठे हुए उस भगवान् के लिए है। सद्गुरु शब्द केवल भगवान् के लिए काम आता है, मनुष्यों के लिए नहीं आता। गुरु तो जरूर मनुष्यों के लिए आता है, लेकिन सद्गुरु सम्बोधन कभी मनुष्य के लिए काम में नहीं आ सकता, वह सिर्फ भगवान् के लिए काम आयेगा। उस भगवान् के लिए जो हमारे अन्तरंग में बैठा हुआ प्रेरणा दिया करता है।
🔵 सद्गुरु के साथ अपनी जीवात्मा का सम्बन्ध जोड़ लेना- यही गुरु दीक्षा है। गुरु दीक्षा जब होती है, तो हमको गायत्री मंत्र दिया जाता है। ये सिम्बल है, ये सहारा है। पहाड़ पर चढ़ने के लिए हाथ में लाठी जिस तरीके से दी जाती है, उस तरीके से ये लाठी है- महानता के मार्ग पर चलने के लिए। गायत्री मंत्र की शिक्षाओं में कितना मूल्य भरा हुआ है। मनुष्य को सविता के समान तेजस्वी होना चाहिए और वरेण्य- श्रेष्ठ होना चाहिए, ऐसी कितनी विशेषता उसमें भरी पड़ी है। अंत में ये कहा गया है- धियो यो नः प्रचोदयात्। इनसान की इस दुनिया में अक्ल को बहकाने वाले बहुत साधन भरे पड़े हैं।
🔴 हमारे कुटुम्बी हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे खानदान वाले हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे लोग ही हमारी अक्ल को बहकाते हैं और समाज के लोग अक्ल को बहकाते हैं। जितनी भी दुनिया में चालाकियाँ और जाल भरे पड़े हैं, आदमी की अक्ल को बहकाते हैं। अक्ल को बहकाया नहीं जाना चाहिए। इस तरह का शिक्षण, इस तरह का इशारा, इस तरह का सिगनल और इस तरह का जिस मंत्र के द्वारा, जिस प्रेरणा के द्वारा, जिस प्रकाश के द्वारा, हमको मार्गदर्शन दिया गया है, उसका नाम गायत्री मंत्र है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 72)
🌹 विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
🔴 मथुरा से ही उस विचार क्रान्ति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्र कुण्डीय यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अंदर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा सम्पन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।
🔵 मथुरा में ही नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए गाँव-गाँव आलोक वितरण करने एवं घर-घर अलख जगाने के लिए सर्वत्र गायत्री यज्ञ समेत युग निर्माण सम्मेलन के आयोजनों की एक व्यापक योजना बनाई गई। मथुरा के सहस्र कुण्डीय यज्ञ के अवसर पर जो प्राणवान व्यक्ति आए थे, उन्होंने अपने यहाँ एक शाखा संगठन खड़ा करने और एक ऐसा ही यज्ञ आयोजन का दायित्व अपने कंधों में लिया या कहें कि उस दिव्य वातावरण में अन्तःप्रेरणा ने उन्हें दायित्व सौंपा ताकि हर व्यक्ति न्यूनतम एक हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से ढूँढ़कर अपना सहयोगी बनाए।
🔴 आयोजन चार-चार दिन के रखे गए। इनमें तीन दिन तीन क्रान्तियों की विस्तृत रूपरेखा और कार्य पद्धति समझाने वाले संगीत और प्रवचन रखे गए। अंतिम चौथे दिन यज्ञाग्नि के सम्मुख उन लोगों से व्रत धारण करने को कहा गया, जो अवांछनीयता को छोड़ने और उचित परम्पराओं को अपनाने के लिए तैयार थे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav.3
🔴 मथुरा से ही उस विचार क्रान्ति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्र कुण्डीय यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अंदर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा सम्पन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।
🔵 मथुरा में ही नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए गाँव-गाँव आलोक वितरण करने एवं घर-घर अलख जगाने के लिए सर्वत्र गायत्री यज्ञ समेत युग निर्माण सम्मेलन के आयोजनों की एक व्यापक योजना बनाई गई। मथुरा के सहस्र कुण्डीय यज्ञ के अवसर पर जो प्राणवान व्यक्ति आए थे, उन्होंने अपने यहाँ एक शाखा संगठन खड़ा करने और एक ऐसा ही यज्ञ आयोजन का दायित्व अपने कंधों में लिया या कहें कि उस दिव्य वातावरण में अन्तःप्रेरणा ने उन्हें दायित्व सौंपा ताकि हर व्यक्ति न्यूनतम एक हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से ढूँढ़कर अपना सहयोगी बनाए।
🔴 आयोजन चार-चार दिन के रखे गए। इनमें तीन दिन तीन क्रान्तियों की विस्तृत रूपरेखा और कार्य पद्धति समझाने वाले संगीत और प्रवचन रखे गए। अंतिम चौथे दिन यज्ञाग्नि के सम्मुख उन लोगों से व्रत धारण करने को कहा गया, जो अवांछनीयता को छोड़ने और उचित परम्पराओं को अपनाने के लिए तैयार थे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 73)
🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
🔴 गायत्री माता का परम तेजस्वी प्रकाश सूक्ष्म शरीर में- अंत:करण में- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में प्रवेश करते और प्रकाशवान होते देखा तथा अनुभव किया कि ब्रह्मवर्चस अपने मन को उस भूमिका में घसीटे लिए जा रहा है जिसमें पाशविक इच्छा आकाँक्षाएँ विरत हो जाती हैं और दिव्यता परिप्लावित करने वाली आकांक्षाएँ सजग हो उठती हैं। बुद्धि निर्णय करती है कि क्षणिक आवेशों के लिए, तुच्छ प्रलोभनों के लिए मानव जीवन जैसी उपलब्धि विनष्ट नहीं की जा सकती। इसका एक- एक पल आदर्शों की प्रतिष्ठापना के लिए खर्च किया जाना चाहिए। चित्त में उच्च निष्ठाएँ जमानी और सत्यम्- शिवम् कि ओर बढ़ चलने की उमंगें उत्पन्न करनी हैं। सविता देवता का तेजस अपनी अन्त:भूमिका में प्रवेश करके "अहं'' को परिष्कृत करता है। मरणधर्मा जीवधारियों की स्थिति से योजनों ऊपर उड़ा ले जाकर ईश्वर के सर्व समर्थ, परम पवित्र और सच्चिदानन्द स्वरूप में अवस्थित कर देता है।
🔵 गायत्री पुरश्चरणों के समय केवल जप ही नहीं किया जाता रहा, साथ ही भाव तरंगों से मन भी हिलोरें लेता रहा। कारण शरीर भावभूमि का अन्त:स्थल के आत्मबोध, आत्म दर्शन, आत्मानुभूति और आत्म विस्तार की अनुभूति अन्तर्ज्योति के रूप में अनुभव किया जाता रहा। लगा अपनी आत्मा परम तेजस्वी सविता देवता के प्रकाश में पतंगों के दीपक पर समर्पित होने की तरह विलीन हो गयी। अपना अस्तित्व समाप्त, उसकी स्थान पूर्ति परम तेजस् व्दारा। मैं समाप्त- सत् का आधिपत्य्। आत्मा और परमात्मा के अव्दैत मिलने की अनुभूति में ऐसे ब्रह्मानन्द की सरसता की क्षण- क्षण अनुभूति होती रही जिस पर संसार भर का समवेत विषयानन्द निछावर किया जा सकता है।
🔴 जप के साथ स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में दिव्य प्रकाश की प्रतिष्ठापना का आरम्भ प्रयत्न पूर्वक धारण के रूप में की गई थी। पीछे वह स्वाभाविक प्रकृति बनी और अन्तत: प्रत्यक्ष अनुभूति बन गई। जितनी देर उपासना में बैठा गया- अपनी सत्ता के भीतर और बाहर परम तेजस्वी सविता की दिव्य ज्योति का सागर लहलहाता रहा और यही प्रतीत होता रहा कि हमारा अस्तित्व इस दिव्य ज्योति से ओतप्रोत हो रहा है। प्रकाश के अतिरिक्त अंतरंग और बहिरंग में और कुछ है ही नहीं। प्राण के हर स्फुरण में ज्योति स्फुल्लिंगों के अतिरिक्त कुछ बचा ही नहीं। इस अनुभूति ने कम से कम पूजा के समय की अनुभूति को दिव्य दर्शन अनुभव से ओतप्रोत बनाए ही रखा। साधना का प्राय: सारा समय इसी अनुभूति के साथ बीता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.3
🔴 गायत्री माता का परम तेजस्वी प्रकाश सूक्ष्म शरीर में- अंत:करण में- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में प्रवेश करते और प्रकाशवान होते देखा तथा अनुभव किया कि ब्रह्मवर्चस अपने मन को उस भूमिका में घसीटे लिए जा रहा है जिसमें पाशविक इच्छा आकाँक्षाएँ विरत हो जाती हैं और दिव्यता परिप्लावित करने वाली आकांक्षाएँ सजग हो उठती हैं। बुद्धि निर्णय करती है कि क्षणिक आवेशों के लिए, तुच्छ प्रलोभनों के लिए मानव जीवन जैसी उपलब्धि विनष्ट नहीं की जा सकती। इसका एक- एक पल आदर्शों की प्रतिष्ठापना के लिए खर्च किया जाना चाहिए। चित्त में उच्च निष्ठाएँ जमानी और सत्यम्- शिवम् कि ओर बढ़ चलने की उमंगें उत्पन्न करनी हैं। सविता देवता का तेजस अपनी अन्त:भूमिका में प्रवेश करके "अहं'' को परिष्कृत करता है। मरणधर्मा जीवधारियों की स्थिति से योजनों ऊपर उड़ा ले जाकर ईश्वर के सर्व समर्थ, परम पवित्र और सच्चिदानन्द स्वरूप में अवस्थित कर देता है।
🔵 गायत्री पुरश्चरणों के समय केवल जप ही नहीं किया जाता रहा, साथ ही भाव तरंगों से मन भी हिलोरें लेता रहा। कारण शरीर भावभूमि का अन्त:स्थल के आत्मबोध, आत्म दर्शन, आत्मानुभूति और आत्म विस्तार की अनुभूति अन्तर्ज्योति के रूप में अनुभव किया जाता रहा। लगा अपनी आत्मा परम तेजस्वी सविता देवता के प्रकाश में पतंगों के दीपक पर समर्पित होने की तरह विलीन हो गयी। अपना अस्तित्व समाप्त, उसकी स्थान पूर्ति परम तेजस् व्दारा। मैं समाप्त- सत् का आधिपत्य्। आत्मा और परमात्मा के अव्दैत मिलने की अनुभूति में ऐसे ब्रह्मानन्द की सरसता की क्षण- क्षण अनुभूति होती रही जिस पर संसार भर का समवेत विषयानन्द निछावर किया जा सकता है।
🔴 जप के साथ स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में दिव्य प्रकाश की प्रतिष्ठापना का आरम्भ प्रयत्न पूर्वक धारण के रूप में की गई थी। पीछे वह स्वाभाविक प्रकृति बनी और अन्तत: प्रत्यक्ष अनुभूति बन गई। जितनी देर उपासना में बैठा गया- अपनी सत्ता के भीतर और बाहर परम तेजस्वी सविता की दिव्य ज्योति का सागर लहलहाता रहा और यही प्रतीत होता रहा कि हमारा अस्तित्व इस दिव्य ज्योति से ओतप्रोत हो रहा है। प्रकाश के अतिरिक्त अंतरंग और बहिरंग में और कुछ है ही नहीं। प्राण के हर स्फुरण में ज्योति स्फुल्लिंगों के अतिरिक्त कुछ बचा ही नहीं। इस अनुभूति ने कम से कम पूजा के समय की अनुभूति को दिव्य दर्शन अनुभव से ओतप्रोत बनाए ही रखा। साधना का प्राय: सारा समय इसी अनुभूति के साथ बीता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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