सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ९

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।

त्याग में कितना मिठास है, इसे बेचारे स्वार्थ परायण और कंजूस भला क्या समझेंगे? जो इस के अमर मिठास का आस्वादन करना चाहते हैं उनकी नीति होनी चाहिये "आप लीजिए-मुझे नहीं चाहिए। '' यही नीति है जिसके आधार पर सुख और शांति का होना संभव है। "मैं लूँगा आपको न दूँगा की नीति को अपनाकर कैकेयी ने अयोध्या को नरक बना दिया था।
 
सारी नगरी विलाप कर रही थी। दशरथ ने तो प्राण ही दे दिए। राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो गया। राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा। किंतु जब '' आप लीजिए- मुझे नहीं चाहिए '' की नीति व्यवहार में आई तो दूसरे ही दृश्य हो गए। राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा-' बंधु ! तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए। ' सीता ने कहा- नाथ! यह राज्यभवन मुझे चाहिए मैं तो आपके साथ रहूँगी।'

सुमित्रा ने  लक्ष्मण से कहा-' ' अवध तुम्हार  काम कछु नाहीं। जो पै राम सिय बन जाहीं।। '' पुत्र! जहा राम रहे, वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो। कैसा स्वर्गीय प्रसंग है। भरत ने तो इस नीति को और भी सुंदर ढंग से चरितार्थ किया। उन्होंने राज-पाट में लात मारी और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। बोले-' भाई! मुझे नहीं चाहिए इसे तो आप ही लीजिए। ' राम कहते हैं-' भरत! मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है। राज्य सुख तुम भोगो। ' त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा हुआ है। एक परिवार के कुछ व्यक्तियो ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया। सारा अवध सतयुगी रंग में रंग गया। वहां के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मीकी  और तुलसीदास अघाते नहीं है।

प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि एक दूसरे को लूट खाए और आपस में रक्त की होली खेलें। परम पिता की इच्छा है कि लोग प्रेमपूर्वक भाई- भाई की तरह आपस में मिल-जुल कर रहें। यह तभी हो सकता है जब त्याग की नीति को प्रधानता दी जाए स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ का अधिक ध्यान रखा जाए।

आप किसी को कुछ दें या उसका किसी प्रकार का उपकार करें तो बदले में किसी प्रकार की आशा न रखें। जो कुछ आप देंगे वह हजार गुना होकर लौट आवेगा परंतु उसके लौटने की तिथि नहीं गिननी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए देते चलिए क्योंकि देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। ध्यानपूर्वक देखिए सारा विश्व आपको कुछ दे रहा है जितने आनंदादायक पदार्थ आपके पास हैं वे सब आपके ही बनाए हुए नहीं हैं वरन वे दूसरों के द्वारा आपको प्राप्त होते हैं फिर आप  दूसरों को देने में इतना संकोच क्यों करते हैं?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १४

👉 भक्तिगाथा (भाग १११)

प्रेम से होती है प्रभु की पहचान

भक्त चोखामेला की स्मृतियाँ महात्मा सत्यधृति के मन में सघन होती गयीं। स्मृतियों के ये सघन घन सत्यधृति के अन्तःकरण में बरसते गये और उन पवित्र महात्मा का अन्तःअस्तित्त्व भीगता गया। अन्तस में छलकते इन भावों के कारण महात्मा सत्यधृति की आखें छलक आयीं। वह देर तक चुप बैठे रहे और वहाँ उपस्थित सभी जन उन्हें उत्सुकता, अकुलाहट व आतुरता से देखते रहे। इन सबके भावों का तरल स्पर्श उन्हें भी मिला और फिर उनके मौन ने मुखरता अपना ली। वे कहने लगे- ‘‘सम्भवतः बोध, बुद्धि की सीमा में नहीं समाता। चोखामेला जो अनपढ़ था, जिसने शास्त्र नहीं पढ़े थे, जिसने महर्षियों के मुख से तत्त्वचिन्तन को नहीं सुना था- उसकी बातों ने मुझे अचरज में डाल दिया।

उसका भगवत्प्रेम अश्रुतपूर्व व अपूर्व था। मैंने उससे सहजता से पूछा था कि भगवान को तुमने किस विधि से और किस रूप में पहचाना? उत्तर में कुछ कहने के पूर्व जैसे वह भावसमाधि में डूब गया। देर तक मैं उसे ताकता रहा, निहारता रहा और वह शान्त, मौन बैठा रहा। फिर थोड़ी देर बाद उसने कहा- हे महाराज! प्रेम ने मुझे भगवान की पहचान करायी। प्रेम ने मुझे प्रभु से परिचित कराया। प्रेम ने ही मुझे सर्वत्र, सृष्टि के कण-कण में उनकी झलक दिखायी। विनम्र स्वर में कहे गए चोखामेला के इन शब्दों के साथ मैंने उनसे जानना चाहा कि भगवान उन्हें किस रूप में मिले? साकार रूप में अथवा निराकार रूप में?
    
इस प्रश्न पर वह बोला- कौन कहता है, भगवान साकार नहीं हैं। सभी आकार उन्हीं के तो हैं। वृक्ष में भगवान वृक्ष हैं, पक्षी में पक्षी हैं, झरने में झरना हैं, आदमी में आदमी हैं, पत्थर में पत्थर हैं, फूल में फूल हैं। इस सम्बन्ध में एक बात यह भी समझ लेनी चाहिए कि सभी आकार जिसके हैं, वह स्वयं निराकार ही हो सकता है। भले यह बात थोड़ी उल्टी लगे, परन्तु सीधी बात यही है कि सभी आकार जिसके हों, वह निराकार ही होगा।

चोखामेला अपने प्रवाह में कहता जा रहा था - अरे सभी नाम जिसके हैं, उसका अपना नाम कैसे होगा? जिसका अपना कोई नाम है उसके सभी नाम नहीं हो सकते। सभी रूपों में जिसकी झलक है, उसका अपना कोई रूप कैसे हो सकता है? जो सब जगह है, उसे किसी एक जगह खोजने की कोशिश बेकार है। सब जगह होने का एक ही ढंग है कि वे अनन्त व असीम हैं। इतना कहकर चोखामेला ने मेरी ओर देखते हुए कहा- महाराज! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, वह तो सभी के भीतर बहती जीवन की धार है। परमात्मा ऐसा नहीं है जैसा कि पत्थर है। परमात्मा आप जैसा भी नहीं है क्योंकि आप तो पुरुष हैं। वह पुरुष जैसा होगा तो फिर स्त्री में कौन होगा? यदि वह स्त्री जैसा हो तो फिर पुरुष उससे वंचित हो जायेंगे। यदि वह मनुष्य जैसा हो तो पशुओं में कौन होगा? और पशुओं जैसा हो तो फिर पौधों में कौन होगा?
    
अनपढ़ चोखामेला की इन बातों में पोथियों की रटन नहीं बल्कि अनुभव की छुअन थी। वह कह रहा था और मैं शान्त-मौन सुन रहा था- परमात्मा जीवन का अनन्त व्यापी सागर है। हम सब उसके रूप हैं, तरंगें हैं। हमारे हजार ढंग हैं। हमारे हजारों ढंगों में वह मौजूद है और सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे ढंग पर ही वह समाप्त नहीं है। वह और भी कोई नया ढंग ले सकता है। वह चाहे जितने नए-नए ढंग लेता रहे, पर वह समाप्त नहीं होगा। उसकी सम्भावना अनन्त है। आप ऐसी किसी स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते जहाँ परमात्मा पूरा का पूरा प्रगट हो गया हो। वह कहीं भी कितना भी प्रगट होता चला जाए, पर सदा-सदा उसके अनन्त रूप प्रगट होने से बचे रह जाते हैं।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१९

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