सोमवार, 14 सितंबर 2020

👉 सत्संग: -

एक बार एक युवक पुज्य कबीर साहिब जी के पास आया और कहने लगा,

‘गुरु महाराज! मैंने अपनी शिक्षा से पर्याप्त ज्ञान ग्रहण कर लिया है। मैं विवेकशील हूं और अपना अच्छा-बुरा भली-भांति समझता हूं, किंतु फिर भी मेरे माता-पिता मुझे निरंतर सत्संग की सलाह देते रहते हैं। जब मैं इतना ज्ञानवान और विवेकयुक्त हूं, तो मुझे रोज सत्संग की क्या जरूरत है?’

कबीर ने उसके प्रश्न का मौखिक उत्तर न देते हुए एक हथौड़ी उठाई और पास ही जमीन पर गड़े एक खूंटे पर मार दी। युवक अनमने भाव से चला गया।

अगले दिन वह फिर कबीर के पास आया और बोला,

 ‘मैंने आपसे कल एक प्रश्न पूछा था, किंतु आपने उत्तर नहीं दिया। क्या आज आप उत्तर देंगे?’

कबीर ने पुन: खूंटे के ऊपर हथौड़ी मार दी। किंतु बोले कुछ नहीं।

 युवक ने सोचा कि संत पुरुष हैं, शायद आज भी मौन में हैं।

वह तीसरे दिन फिर आया और अपना प्रश्न दोहराया।

कबीर ने फिर से खूंटे पर हथौड़ी चलाई। अब युवक परेशान होकर बोला,

‘आखिर आप मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं? मैं तीन दिन से आपसे प्रश्न पूछ रहा हूं।’

 तब कबीर ने कहा, ‘मैं तो तुम्हें रोज जवाब दे रहा हूं। मैं इस खूंटे पर हर दिन हथौड़ी मारकर जमीन में इसकी पकड़ को मजबूत कर रहा हूं। यदि मैं ऐसा नहीं करूंगा तो इससे बंधे पशुओं द्वारा खींचतान से या किसी की ठोकर लगने से अथवा जमीन में थोड़ी सी हलचल होने पर यह निकल जाएगा।"

 यही काम सत्संग हमारे लिए करता है। वह हमारे मनरूपी खूंटे पर निरंतर प्रहार करता है, ताकि हमारी पवित्र भावनाएं दृढ़ रहें।

युवक को कबीर ने सही दिशा-बोध करा दिया। सत्संग हर रोज नित्यप्रति हृदय में सत् को दृढ़ कर असत् को मिटाता है, इसलिए सत्संग हमारी दैनिक जीवन चर्या का अनिवार्य अंग होना चाहिए।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २५)

जानें, किस भ्रम में हैं हम

गुरुदेव कहते थे समाज और परिवार परम्पराओं, रूढ़ियों के नाम पर ऐसे असत् ज्ञान का विपर्यय का बोझ ढोए जा रहे हैं। समाज ही क्यों व्यक्ति के रूप में हमारी अपनी जीवन शैली भी विपर्यय से घिरी है। अनगिनत मिथ्या धारणाएँ हमें घेरे हैं। इनके कारण हमारी जीवन ऊर्जा बरबाद हो रही है। रस्सी को साँप समझकर हम डरे हुए हैं। रेगिस्तान की तपती रेत में पानी के भ्रम से भ्रमित होकर लोभ के कारण भाग रहे हैं। कहीं हमें भय सता रहा है, तो कहीं लोभ। जबकि दोनों ही औचित्यहीन हैं। मिथ्या धारणाओं से ग्रसित मन जो प्रक्षेपित करता है, उसी को सच समझ लेते हैं। हमारे पूर्वाग्रह, दुराग्रह से भरी हुई धारणाएँ हमारी जानने की शक्ति को ढके हुए हैं।
  
साधक वही है, जिसकी निगाहों में ताजगी हो। जो क्षण प्रतिक्षण मन-अन्तःकरण पर जमने वाली धूल-मिट्टी को हटाता रहे। अतीत के हर पल को मिटने दे और सच्चा सत्यान्वेषी हो। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार विपर्यय है तो मिथ्या ज्ञान। सामान्यतया इसे साधना के लिए बाधा ही समझा जाता है। पर यदि साधक समझदार हो, तो इसे भी अपनी साधना बना सकता है। भ्रम में समझदारी पैदा हो जाय। भ्रमित करने वाली वस्तु, विषय या विचार के प्रति जागृति हो जाय, तो भ्रम अपने आप ही टूट जाते हैं।
  
साधकों ने यदि गुरुदेव की पुस्तक ‘मैं क्या हूँ?’ पढ़ी होगी, तो इस तत्त्व को और गहराई से समझ सकते हैं। यदि किसी ने यह पुस्तक अब तक न पढ़ी हो, तो उसे अवश्य पढ़ना चाहिए। क्योंकि प्रकारान्तर से इसमें विपर्यय को साधना विधि बनाने की तकनीक है। और वह साधनाविधि विपर्यय के प्रति सचेत होना, जागरूक होना। उसे परत-दर-परत उद्घाटित करना मैं क्या हूँ? इस गहन जिज्ञासा के साथ ही विपर्यय की परतें उघड़ने लगती हैं। इस क्रम में पहले अपने को देह मानने का असत् ज्ञान टूटता है। फिर टूटता है अपने को प्राण मानने का परिचय। इसके बाद मन की मान्यता समाप्त होती है। फिर बुद्धि का तर्कजाल भी समाप्त होता है। अन्त में निदिध्यासन का यह क्रम भाव समाधि का स्वरूप लेता है और पता चलता है- आत्मा का परिचय। होता ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का प्रगाढ़ बोध। जीवन के सारे विपर्यय समाप्त होते हैं। असत् का अँधेरा मिटकर सत् का प्रकाश होता है।
  
यह सब होता है विपर्यय के सत्य और तत्त्व को सही तरह से जानने पर। क्षण-प्रतिक्षण अपने ऊपर से मिथ्या धारणाओं के आवरण को हटाने पर। इस तरह क्लिष्ट कही जाने वाली विपर्यय वृत्ति भी अक्लिष्ट हो सकती है। बस इसके लिए साधकों में समझदारी भरी साधना होना चाहिए। उन्हें बस अपने जीवन शैली और जीवन तत्त्व दोनों ही आयामों में छाई हुई विपर्यय घटाओं के प्रति जागरूक होना पड़ेगा। तो आज और अभी से प्रारम्भ करें अपनी यह जागरूकता की ध्यान साधना।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ४६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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