मंगलवार, 29 अगस्त 2017

👉 साधना उपासना

🔴 स्वामी विवेकानंद ने अपनी साधना उपासना छोड़ दी और कलकत्ता में फैले प्लेग के प्रकोप से लोगों को बचाने में जुए गए। एक भाई ने पूछा-महाराज आपकी उपासना साधना का क्या हुआ? स्वामीजी ने कहा- भगवान् के पुत्र दुःखी हों और मैं उनका नाम जप रहा होऊँ, क्या तुम इसे ही उपासना समझते हो?

🔵 पैसे की कमी के कारण जब वे रामकृष्ण आश्रम की जमीन बेचने को तैयार हो गए तो एक शिष्य ने पूछा-महाराज आप गुरु स्मारक बेचेंगे क्या? विवेकानंद ने उत्तर दिया-मठ-मंदिरों की स्थापना संसार की भलाई के लिए होती है। यदि उसका उपयोग भले काम में होता है, तो इसमें हानि क्या है?

👉 आत्मचिंतन के क्षण 29 Aug 2017

🔵 श्रद्धा, क्षणिक भावुकता या आवेश का नाम नहीं है वरन् यह साधना की कठिनाइयों को झेलने की कसौटी है। आवेशपूर्ण श्रद्धा से जीवन में कोई विशेष लाभ नहीं होता किन्तु जो लोग दृढ़तापूर्वक साधन की कठिनाइयों को सहन करते रहते हैं उनकी श्रद्धा और भी तेजस्वी बनती है और मन पर तथा इन्द्रियों पर संयम करना आसान हो जाता है।

🔴 भोगवादी व्यक्ति जिस तरह भोग की लालसा में अनुचित-उचित का विचार नहीं करता और उसी में सुख का अनुभव करता है उस तरह सदाचारी व्यक्ति भी अपने चारों ओर प्रसन्नता देखना चाहता है। अपनी प्रसन्नता का निश्चय श्रद्धा द्वारा ही होता है, क्योंकि अपनी यथार्थ शक्ति और सामर्थ्य का बोध श्रद्धा द्वारा ही होता है। भले ही उन अभूतपूर्व परिणामों की तत्काल उपलब्धि न हो किंतु श्रद्धा के साथ जो आशा का अविचल सम्बन्ध है, उससे मनोभूमि की निराशा तथा दुःखों का अन्त हो जाता है। ऊपर से देखने में दूसरे लोग भले ही यह अनुमान करें कि उसका जीवन शुष्क, रसहीन है किंतु उसके अन्तर में जो आनन्द का स्रोत उमड़ता रहता है उसे दूसरा समझ नहीं पाता, पर वह व्यक्ति अपनी आन्तरिक आनन्द की स्थिति से ही अपने चारों ओर प्रसन्नता का अनुभव कर लेता है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

🔴 मनुष्य को परमात्मा ने एक स्वतंत्र बुद्धि वाला चेतन प्राणी बनाया है। उसे हाथ-पाँव काम करने के लिए और विवेक काम के औचित्य-अनौचित्य समझने के लिए दिया है। उसकी इच्छा है कि मनुष्य अधिक से अधिक परिश्रमी, कर्मठ और धैर्यवान बनें, इसीलिए उसके सभी काम निर्विघ्नतापूर्वक नहीं होते चलते। यदि सारे काम बिना बाधा के सहज रूप में होते चलें तो कर्म-कौशल का महत्व ही समाप्त हो जाये। मेरा विश्वास है कि जिस काम को करने में मनुष्य को बाधायें नहीं आतीं, उसे अपनी कार्य-कुशलता का परिचय देने का अवसर नहीं रहता, वह काम मनुष्य के करने योग्य नहीं होता।

🌹 महामना मदनमोहन मालवीय

👉 विशिष्ट प्रयोजन के लिये, विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज (भाग 6)

🔵 ऐसे जागरुकों को युग प्रयोजनों के सही रुप में कर सकने की क्षमता एवं कुशलता विकसित करने की आवश्यकता अनुभव की गई। इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यकता थी। बिना ट्रेनिंग पाये कोई महत्वपूर्ण कार्य किसी से भी नहीं बन पड़ता। रेल, मोटर आदि वाहन कल कारखाने के संयंत्र यहाँ तक कि टाइप राइटर जैसे छोटे उपकरणों को चलाने के लिए ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। अध्यापक, सैनिक, शिल्पी, कलाकार बिना प्रशिक्षण पाये शक्ति सामर्थ्य होते हुए भी अपना कार्य सफलता पूर्वक नहीं कर सकते। फिर युग सृजन जैसा काम ही हर कोई कैसे कर लेता? युग शिक्षण के लिए आवश्यकता तंत्र खड़ा किया गया है। गायत्री तपोभूमि से युग साहित्य का सृजन हो रहा है और शान्ति कुँज में युगान्तरीय चेतना को क्रियात्मिक करने का समग्र शिक्षण विधिवत् चल रहा है। रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम सन्तोषजनक ढंग से चल रहे हैं और उनका गति चक्र निरन्तर दु्रतगामी बन रहा है।

🔴 इतने पर भी एक आवश्यकता यथावत् बनी हुई है देव आत्माओं में पायी जाने वाली विशिष्टता का अवतरण विशिष्ट समय पर ऐसी ही विशिष्ट आत्माओं का अवतरण होता है। वे जन्म जात रुप से ऐसी धातु से बने होते हैं कि उनका उपयोग विशेष प्रयोजनों के लिए संभव हो सके। अणु शक्ति उत्पन्न करने के लिए यूरेनियम जैसे रासायनिक पदाथों की जरुरत पड़ती है। सोने की अपनी मौलिक विशेषता है। र्स्वणकार उसे आभूषणों में गढ़ तो सकता है पर कृत्रिम सोना अभी तक बनाया नहीं जा सका। यों नकली नग ही जेवरों में प्रयुक्त होते हैं, पर उनका निर्माण भी बहुत होता है फिर भी असली मणि-मणिक अभी भी विशेषता के कारण अपना मूल्य और महत्व यथा स्थान बनाये हुए हैं। महामानवों की ढलाई, गढ़ाई के लिए शान्ति कुँज की फैक्टरी अनवरत तत्परता के साथ लगी हुई है। उसके उत्पादन का स्तर भी बढ़ रहा है और परिमाण भी। इस प्रगति को सन्तोषजनक रहते हुए भी उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता। उस विशिष्टता की मात्रा अभी भी कम ही दृष्टिगोचर हो रही है जिसे देव स्तर की प्रतिभा कहा जाय। जो महामानवों की भूमिका निभा सकने के लिए अभीष्ट सुसंस्कारिता की पूँजी अपने साथ लेकर जन्मी हो।
 
🔵 कृषि कार्य में किसान का पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है, उपयुक्त भूमि और सही बीज का भी उसकी सफलता में कम योगदान नहीं होता। शिल्पियों की कुशलता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हों उन्हें भी उपयुक्त उपकरण चाहिए। कच्चा माल सही न हो तो कारखाने में बढ़िया चीज कैसे बनायें ? बालू से कोई कुम्हार टिकाउ बर्तन नहीं बना सकता। चिकित्सकों के उपचार रोगी की जीवनी शक्ति के आधार पर सफल होते हैं। कच्चे लोहे की तलवार से मोर्चा जीतना बलिष्ठ योद्धा के लिए सम्भव नहीं होता। मौलिक विशिष्टता की अपनी आवश्यकता है। खरादा तो उसी को जा सकता है जिसमें अपनी कड़क हो। तेल तिली में से निकलता है, आग ईंधन के सहारे जलती है। तिली का प्रबन्ध न हो तो बालू से तेल निकालने में कोल्हू कैसे सफल हो ? पानी मथने के लिए कितना ही श्रम क्यों न किया जाय मक्खन निकालने में सफलता न मिलेगी। ईंधन के बिना आग की लपटों का दर्शन होने और अभीष्ट गर्मी उत्पन्न करने का प्रयोजन नहीं ही सध सकता।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1980 पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1980/February/v1.49

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 57)

🌹  परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे

🔴 सीधी- सादी विचारधारा को अपनाकर मनुष्य अपनी सर्वतोमुखी सुख- शांति को सुरक्षित रख सकता था और इस पृथ्वी पर स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता था, पर आँधी, टेढ़ी, अनुचित, अनुपयुक्त इच्छा, आकांक्षाएँ वह तो रखता ही है, उसके समीपवर्ती लोग भी चंदन के वृक्ष के समीप रहने वालों की तरह सुवासित होते रहते हैं। अपने मन का, अपने दृष्टिकोण का परिवर्तन भी क्या हमारे लिए कठिन है? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, पर अपने को क्यों नहीं सुधारा जा सकेगा? विचारों की पूँजी का अभाव ही सारी मानसिक कठिनाइयों का कारण है। विवेक का अंतःकरण में प्रादुर्भाव होते ही कुविचार कहाँ टिकेंगे और कुविचारों के हटते ही अपना पशु जीवन, देव जीवन में परिवर्तित क्यों न हो जाएगा?

🔵 कुछ मूढ़ताएँ, अंध परम्पराएँ, अनैतिकताएँ, संकीर्णताएँ हमारे सामूहिक जीवन में प्रवेश पा गई हैं। दुर्बल मन से सोचने पर वे बड़ी कठिन, बड़ी दुष्कर, बड़ी गहरी जमी हुई दीखती हैं, पर वस्तुतः वे कागज के बने रावण की तरह डरावनी होते हुए भी भीतर से खोखली हैं। हर विचारशील उनसे घृणा करता है, पर अपने को एकाकी अनुभव करके आस- पास घिरे लोगों की भावुकता को डरकर कुछ कर नहीं पाता। कठिनाई इतनी सी है। कुछ ही थोड़े से विवेकशील लोग यदि संगठित होकर उठ खड़े हों और जमकर विरोध करने लगें, तो इन कुरीतियों को मामूली से संघर्ष के बाद चकनाचूर कर सकते हैं। गोवा की जनता ने जिस प्रकार भारतीय फौजों का स्वागत किया, वैसा ही स्वागत इन कुरीतियों से सताई हुई जनता उनका करेगी, जो इन अंध- परम्पराओं को तोड़- मरोड़ कर रख देने के लिए कटिबद्ध सैनिकों की तरह मार्च करते हुए आगे बढ़ेंगे।
 
🔴 हत्यारा दहेज कागज के रावण की तरह बड़ा वीभत्स, नृशंस एवं डरावना लगता है। हर कोई भीतर ही भीतर उससे घृणा करता है, पर पास जाने से डरता है। कुछ साहसी लोग उसमें पलीता लगाने को दौड़ पड़ें तो उसका जड़ मूल से उन्मूलन होने में देर न लगेगी। दास- प्रथा देव- दासी प्रथा, बहु- विवाह जन्मते ही कन्या- वध भूत- पूजा पशु बलि आदि अनेक सामाजिक कुरीतियाँ किसी समय बड़ी प्रबल लगती थीं, अब देखते ही कुरीतियाँ, अनैतिकताएँ एवं संकीर्णताएँ मजबूती से जड़ जमाए दीखती हैं, विवेकशीलों के संगठित प्रतिरोध के सामने देर तक न ठहर सकेंगी। बालू की दीवार की तरह वे एक ही धक्के में भरभराकर गिर पड़ेंगी। विचारों की क्रांति का एक ही तूफान इस तिनकों के ढेर को उड़ाकर बात की बात में छितरा देगा। जिस नए समाज की रचना आज स्वप्न सी लगती है, विचारशीलता के जाग्रत होते ही यह मूर्तिमान होकर सामने खड़ी दीखेगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.79

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 134)

🌹  तपश्चर्या आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य

🔵 रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानन्द को सौंप दी थी तथा उनने कार्यक्षेत्र को सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य संभाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूल शरीर के सहारे नहीं कर पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेंस से अधिक वरदान देने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उनकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैंसर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋण मुक्त होकर विवेकानन्द के माध्यम से उस कार्य में जुट गए जिसे करने के लिए उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था।

🔴 प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गए। उनका अभाव खटका, शोक भी बना, पर हुआ वह जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के उपरांत उनकी सामर्थ्य हजार गुनी अधिक बढ़ गई। इसके सहारे उनने देश एवं विश्व में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन किया। जीवन काल में वे भक्तजनों को थोड़ा बहुत आशीर्वाद देते रहे और एक विवेकानन्द को अपना संग्रह सौंपने में समर्थ हुए, पर जब उन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर से काम करने का अवसर मिल गया, तो उनसे पूरे विश्व में इतना काम किया जा सका जिसका लेखा-जोखा ले सकना, सामान्य स्तर की जाँच पड़ताल से समझ सकना सम्भव नहीं।

🔵 ईसा की जीवनचर्या भी ऐसी ही थी। वे जीवन भर में बहुत दौड़-धूप के उपरांत मात्र १३ शिष्य बना सके। देखा कि स्थूल शरीर की क्षमता से उतना बड़ा काम न हो सकेगा, जितना कि वे चाहते हैं, ऐसी दशा में यही उपयुक्त समझा कि सूक्ष्म शरीर का अवलंबन ले कर संसार भर में ईसाई मिशन फैला दिया जाए। ऐसे परिवर्तनों के समय महापुरुष पिछला हिसाब-किताब साफ करने के लिए कष्ट साध्य मृत्यु का वरण करते हैं। ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण को तीर लगना, पाण्डवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगंदर होना यह बताता है कि अगले महान प्रयोजनों के लिए उन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अंत करते हैं, जिसे बलिदान स्तर का प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय का पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके। हमारे साथ भी यही हुआ है व आगे होना है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.151

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.19

👉 Dacoit changes after hearing story

🔴 A saint was explaining with intense feelings, the results of taking the shelter of God and consequences of performing bad karma. Among the audience was a decoit who had planned to rob the saint and other prosperous listeners after the lecture was over. But he got shaken from inside when he heard the life transforming stories of Ajamil, Ganika, Tulsidas and Bilva mangal.

🔵 The way the stories were narrated forced him to think over his own deeds and do self-introspection. After the lecture ended, the decoit fell into the feet of the saint and told him all his previous sins and asked how to correct his behavior and follow the right path. Those instructions changed his life. From then he started living a life centered on God, and the hole he had dug up with his sins, he started covering it with selfless social service.

🌹 From Pragya Puran

👉 Be like a Swan. (Part 1)

🔵 Here is given, different kinds of training associated with GAYATRI MATA. We are also engaged in intercession with GAYATRI. But you just forget on whose shoulder, GAYATRI rides and who makes GAYATRI dances to his tunes. You daily concentrate on photo of GAYATRI MATA. Have you seen her conveyance in the photo? The name of her conveyance is swan. GAYATRI MATA rides over swan. You may not get this point. Because a lady equal to the weight of a man, can sit on an animal but not on a bird. You can ride over a horse, donkey, elephant and camel and buffalo, but just tell me how a man will sit on a bird whose weight is also negligible?

🔴 Actually GAYATRI MATA, the supreme power has been metaphorically designed to make it easy for anyone to understand what GAYATRI basically means.  The metaphorically designed photo suggests that swan is the name of that person who knows how to distinguish between justified and unjustified. You too must differentiate between proper and improper. In spite of following blindly people’s path, you must stand by a side to observe what the proper way is, people may commit mistake, will you too? Today is the world of mistakes.  Is it any way that, you go along the water-flow like a straw? Is it any intelligence? You go on flying in the air like a weightless straw, is it any intelligence? You must be a man of gravity. You must take decisions on your life yourself. Your braveness must be your companion in deciding your own way.

🔵 Integrity and BHAGWAN both are such things, which help you can take even big decisions. Usually in the world, undesirable things are being done. People usually treat themselves as bodies and this leads them to go to any extent even committing wrongs to make their bodies happy. People are so senseless that they can see only today’s benefits but not tomorrow’s problems and in so hurry that they cannot wait for good results. What is there in social evils, you just tell me, today’s benefit, tomorrow’s loss? Will you do the same? No, then get out of the way of people’s path and with this, begin thinking in a new style as what is proper and what is not. I will call you a knowledgeable person once you begin to decide on your own what makes up your future and what does not.  You must have studied the chronicle of knowledgeable persons.

🌹 to be continue...
🌹 Pt Shriram Sharma Aachrya

👉 कुत्सा भड़काने वाली अश्लीलता को मिटाया जाय (भाग 2)

🔵 यौनाचार की पृष्ठभूमि उन अंगों के नग्न प्रदर्शन से बनती है। जिन्हें देखने या छूने का अधिकार परस्पर पति-पत्नि को ही है। छूने के साथ ही देखने की भी गणना होती है। यह आधार चित्रों तक चला गया है। निर्वस्त्र चित्र, जिनमें कामुकता भड़काने वाले अवयव दिखते हैं अश्लीलता की परिधि में आते हैं और उनका देखना, दिखाना, बेचना, खरीदना दण्डनीय अपराध माना जाता है। यह इसलिए कि इससे ऐसी कामुकता भड़कती है जो नर-नारी के पवित्र एवं वैध सम्बन्धों का उल्लंघन करने के लिए उत्तेजित करती है। यह उत्तेजन दृश्य साधनों से भी हो सकता है एवं श्रव्य साधनों से भी। इन दिनों दोनों ही समाज में खूब प्रचलित हैं। इनका खुला विरोध तो बहुत कम देखा जाता है, किन्तु मौन रूप में उन्हें सुनते-देखते अपनी कामुकता की वृत्ति को पोषण देते अनेकों देखे जा सकते हैं। पतनोन्मुख प्रवाह स्वाभाविक रूप से नीचे की ओर बढ़ता है और इस झोंके में बहुसंख्य व्यक्ति आ जाते हैं। सच्चे साहसी वे होते हैं जो इनसे अप्रभावित हो इनका खुला विरोध करते हैं। औरों को भी आदर्शों के प्रति सहमत करते व स्वयं आगे बढ़ते देखे जाते हैं।

🔴 सामान्यतया फिल्मी गीतों, शादी-ब्याह में गाये जाने वाले गानों, लोक गीतों में प्रयुक्त शब्दों की अनदेखी कर दी जाती है। इसी प्रकार कैलेंडरों में देवी-देवताओं के चित्रों में भाव-भंगिमाओं, वस्त्र परिधान आदि भी उत्तेजक बनाये जाते हैं। यह भी अनुचित है। यही कारण है कि अश्लीलता की व्यापक परिभाषा में उत्तेजना प्रदान करने वाले दृश्य एवं श्रव्य उपकरणों की भी गणना होती है।

🔵 इस संदर्भ में कई कदम आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसी साज सज्जा अथवा आकृति मुद्रा को क्या कहा जाय जो कामुकता की दृष्टि उत्पन्न करती है। इसका निरूपण करना हो तो किसी ऐसी सज्जा या मुद्रा में करनी चाहिए जो हमारी बहिन या पुत्री की हो। स्वभावतः हम चाहते हैं कि वे सौम्य हों। उनके वस्त्र अथवा अंगशील मर्यादा का पालन करते हों। उन पर अश्लीलता की उँगली न उठती हो। इस मर्यादा के टूटने पर हमारी आँखें नीची हो जाती हैं। जिसने वह चित्र मुद्रा अथवा सज्जा बनाई हो, उस पर क्रोध आता है। ऐसे निर्माण में यदि अपनी बहिन या पुत्री ने सहयोग दिया हो, उत्साह दिखाया हो, आग्रह किया हो तो उस पर भी क्रोध आता है। निकटवर्ती सगे सम्बन्ध होते हुए भी इसे चरित्रहीन कहने की मान्यता पनपती है और इच्छा होती है कि वह दृश्य जल्दी ही आँखों के सामने से हटा दिया जाये।

🌹 क्रमश जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1984 पृष्ठ 45
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/October/v1.45

👉 आज का सद्चिंतन 29 Aug 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 Aug 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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