शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 4 Feb 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 27) 4 Feb

🌹 व्यावहारिक साधना के चार पक्ष 

🔴 चौथा संयम है- विचारसंयम मस्तिष्क में हर घड़ी विचार उठते रहते हैं, कल्पनायें चलती रहती हैं। ये अनर्गल, अस्त-व्यस्त एवं अनैतिक स्तर के न हों, इसके लिये विवेक को एक चौकीदार की तरह नियुक्त कर देना चाहिये। उसका काम हो कुविचारों को सद्विचारों की टक्कर मारकर परास्त करना। अनगढ़ विचारों के स्थान पर रचनात्मक चिन्तन का सिलसिला चलाना। विचार मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय रचनात्मक विचारों का ही होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्चस्तरीय विचारों में ही संलग्न रखना चाहिये।                 

🔵 साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के चार पुरुषार्थों मेें जीवन की प्रगति एवं सफलता बन पड़ती है। इसलिये दिनचर्या में उन चारों के लिये समुचित स्थान रहे, उसकी जाँच-पड़ताल आत्मसमीक्षा के समय में निरन्तर करनी चाहिये। आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्म-निर्माण और आत्मविकास की चतुर्दिक् प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिये मध्यान्तर काल की मनन साधना करनी चाहिये। इसे आत्मदर्शन समझा जाना चाहिये जो थोड़ी विकसित अवस्था में ईश्वर दर्शन के रूप में फलित होता है।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 सबसे बड़ी पराजय का दिन

🔴 पेरिस संसार का सबसे खूबसूरत शहर माना जाता हैं-सौंदर्य या नग्न संस्कृति के लिए। और कुछ तो हम नहीं कह सकते, पर जिस दिन हम उस शहर की धरती पर उतरे थे, उससे मोहित हुए बिना न रह सके। जी भरकर उसे देखा। एक ही स्थान को कई बार देखा फिर भी आकर्षण कम न हुआ। हमारे अमेरिकन मित्र-टामसन रिचे जिनके साथ हम विशेष अध्ययन के लिए मिशगन जाते हुए यहाँ ठहरे थे, हमारे साथ ही थे। उन्होंने ही सारा शहर भली भॉति घुमाया। अंत मे उनका आभार मानते हुए कहना ही पडा-'मित्र! आखिर आपकी कृपा से विश्व के इस अद्वितीय सौंदय को समीप से देखने का सौभाग्य सफल हो गया।''

🔵 आशा की थी कि इस आभार-प्रदर्शन से मित्र महोदय प्रसन्न होंगे। हम इतने आदर्शवादी हो गये हैं कि बात-बात में प्रशंसा करने लगते हैं, इससे हमें झूठा आत्म-सतोष तो संभव है मिल जाए, पर अति आदर्शवाद का अर्थ है यथार्थता से विमुख होना। संसार में अनेक प्रकार की सुंदर से सुंदर वस्तुऐं है, पर हम किसी एक सौंदर्य पर ही इतना आसक्त हो जाते हैं कि सृष्टि की अन्य सुंदरताओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम समझते हैं आज का सपूर्ण भौतिकवादी समाज ज्ञान की इस संकीर्ण कोठरी मे बंद है। परमात्मा की सृष्टि कितनी विशाल! कितनी शोभायुक्त और दर्शनीय!!। उसका अवलोकन करने के लिए जिस बंधनमुक्त आत्मा की जरूरत है, उधर हमारा ध्यान ही नहीं जाता, क्योंकि हम आसक्त हैं, भौतिकता की चमक से चकाचौंध है।

🔴 हुआ प्रत्याशा से विरुद्ध। मित्र महोदय ने एक व्यंग भरी मुस्कान छोडते हुए कहा-''अनिल! काश तुम्हारे शब्दों का समर्थन कर पाता तो बडी प्रसन्नता होती, पर यह कहते हुए बडा दुख होता है जिन भारतीयों ने विश्व को अध्यात्म ज्ञान की गंगा से नहला कर स्वच्छ किया वही पाश्चात्य-दर्शन के गुण गाते हैं। वेद, गीता, रामायण, महाभारत का नाम भी अच्छी प्रकार नहीं जानते पर पैराडाइस लास्ट, हैमलेट या जूलियस सीजर पर अनेकों थीसिस लिख सकते हैं। भारतीय संगीत, कला की गंभीरता को भूलकर, पश्चिम की कला के पैर पूजते है। हिंदू होकर हिंदी नहीं जानते और अंग्रेजी का कोई क्षेत्र नहीं छोड़ते। भारतीयों को अपनी इस पराधीन स्थिति पर भले ही संकोच न होता हो, पर हम दुःख से नत हो जाते हैं कि यथार्थवादी सत्य-शिव-सुंदर का प्रतिपालक भारतीय तत्त्व-ज्ञान ही नष्ट हो गया तो इस विश्व का क्या होगा ?"

🔵 टामसन साहब उस समय साक्षात रुद्र की भाँति लग रहे थे। साँस लेकर पुन: बोले- 'मेरा मतव्य यही है कि सब अच्छी वस्तुएँ भारतवर्ष में ही है, वरन् जो विश्व में है वह भारत में अवश्य है। मैं १० वर्ष भारत में गाँव-गाँव घूमा हूँ। हिमालय का सा सौंदर्य इस तुच्छ पेरिस में कहाँ है। गंगोत्री, अमरनाथ, दार्जिलिंग, वृंदावन, मीनाक्षी, श्रीरंगपट्टम जैसा प्राकृतिक और आध्यात्मिक सौंदर्य दुनिया में कहाँ मिलेगा ? संस्कृत-सी देवभाषा की समता नादान अंग्रेजी कर सके, इतनी प्रौढ़ता उसमें कहाँ, मेरे मित्र! मुझे दुःख है कि आप श्रेष्ठता ढू़ँढने अमेरिका और पेरिस दौड़े आते हैं, धन्य है आपकी स्वतंत्रता और विचार-साधीनता!

🔴 सचमुच मेरी हिम्मत न हुई कि मैं टामसन रिचे के आगे मुँह उठा सकूँ लज्जा से धरती में गड़ा जा रहा था। भारतीय होकर भी अपनी अभारतीयता की स्थिति पर तब इतना क्षोभ हुआ, शायद उतना अपनी माँ की मृत्यु पर भी न हुआ हो। वास्तव मे वह मेरी सबसे बड़ी पराजय थी। उस दिन से मुझे भारतीय वेशभूषा पसंद है। वेद, गीता, रामायण आदि का स्वाध्याय कर लेता हूँ। इनमे जो भावनात्मक आनंद आता है, वह अंग्रेजी-उपन्यासों मैं कदापि नहीं मिला। अब विदेश घूमने की इच्छा कभी नहीं होती, वहाँ जाकर अपना आत्माभिमान क्यों बेचें ?

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (अंतिम भाग) 4 Feb

🌹 प्रातः सायं उपासना

🔴 इस प्रकार आत्म-कल्याण और आत्मोत्थान का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए की गई गायत्री साधना, अन्य साधनाओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली सिद्ध होती है। गायत्री साधना की विशेषता यह है कि उसके पीछे अगणित साधकों का तप बल छिपा हुआ है और साधक सूक्ष्म जगत के माध्यम से अनायास ही उनका सहयोग प्राप्त कर लेता है और सफलता की ओर अग्रसर होने लगता है। गायत्री साधना अपरा प्रकृति को पराप्रकृति में रूपांतरित करने के विज्ञान पर आधारित है। मनुष्य की पाशविक वृत्तियों के स्थान पर ईश्वरीय सत् शक्ति को प्रतिष्ठित करना ही अध्यात्म विज्ञान का कार्य है। तुच्छ को महान्, ससीम को असीम, अणु को विभु, बद्ध को मुक्त और पशु को देवत्व के स्तर तप पहुंचाना ही साधना का मुख्य उद्देश्य गायत्री के माध्यम से भली भांति निरापद ढंग से पूरा होता है।

🔵 पिछले जमाने में धार्मिक जगत में विकृतियों के बढ़ जाने तथा विज्ञान-जगत में नये-नये चमत्कार दृष्टिगोचर होने के कारण लोगों में अध्यात्म तथा ईश्वर पर अनास्था का भाव विशेष रूप से उत्पन्न हो गया था। कितने ही नव-शिक्षित व्यक्ति तो इसे मात्र अन्धविश्वास मानकर इसको देना बुद्धिहीनता का चिन्ह मानने लगे थे। पर अब विज्ञान के चरम सीमा पर पहुंच जाने के पश्चात् भी संसार की गतिविधियों में कोई आशाजनक कल्याणकारी लक्षण न देखकर उनकी विचारधारा बदलने लगी है। अब यह अनुमान किया जा रहा है कि संसार में केवल भौतिक-पक्ष ही सब कुछ नहीं है वरन् अध्यात्म-पक्ष को मान्यता मिलने से ही मनुष्य वास्तविक मानवता के समीप पहुंच सकेगा। गायत्री-साधना सर्वजनीन, सुगम, स्पष्ट और सरल है। इसका आश्रय लेकर हम अध्यात्म मार्ग में उल्लेखनीय प्रगति कर सकते हैं और मानवता के लक्ष्य को अपेक्षाकृत न्यून प्रयास से ही प्राप्त कर सकते हैं।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 7)

🌹 गरीबों द्वारा अमीरों का आडम्बर

🔵 अपव्ययों को रोकने पर, पेंदे में छेद वाले घड़े का सूराख बन्द कर देने की तरह पानी भरा रह सकता है और प्यासे मरने की शिकायत से बचा जा सकता है, किन्तु उस दुर्भाग्य को क्या कहा जाए, जो समय के साथ श्रम को जुड़ने ही नहीं देता? अमीरी प्रदर्शन के प्रेत पिशाच का उन्माद सिर से उतरने ही नहीं देता? इस मूर्छना के रहते उठने, आगे बढ़ने और उपलब्ध क्षमताओं के सदुपयोग का उत्साह उभर ही नहीं पाता। इस मानसिकता के रहते न दरिद्रता से पीछा छूटने वाला है, न अशिक्षा से। प्रगति के दूसरे भी अनेकानेक आधार हैं, पर वे हस्तगत कैसे हों, जबकि पिछड़ापन अपने गुण, कर्म, स्वभाव का अविच्छिन्न अंग बन गया हो?

🔴 अच्छा होता, हमें ऐसे उत्साहवर्धक प्रगतिशील वातावरण में रहने का अवसर मिला होता अथवा जहाँ ऐसी प्रेरणाएँ विद्यमान हैं, उनके साथ घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित किया गया होता। इर्द-गिर्द ऐसा उत्साह उभरता दीख नहीं पड़ता, नहीं तो अन्यत्र अथवा भूतकाल में सम्पन्न हुए उन पुरुषार्थों से अवगत, प्रभावित होने का प्रयत्न किया ही जा सकता है, जो अभी भी प्रगतिशीलों की यशगाथा के रूप में कहीं-कहीं तो विद्यमान हैं ही। ऐसी साक्षियाँ, इतिहास के पृष्ठों पर कम परिमाण में नहीं हैं।  

🔵 जिसे विपन्नता से उबर कर, प्रगतिशील सम्पन्नता की दिशा में अग्रसर होना है, उसे उस अभ्यस्त मानसिकता को निरस्त करना पड़ेगा, जो हमें अमीरी के मुखौटा पहन कर वस्तुत: गई-गुजरी परिस्थितियों में रहने के लिए बाधित किए हुए हैं।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 विधि नहीं, विधा समझें (अंतिम भाग)


👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 आप तो कर्मकाण्ड करते रहते हैं और ये विचार तक नहीं करते कि क्यों करते रहते हैं? वेदान्त का, फिलॉसफी का पहला वाला सूत्र है, क्या सूत्र है? ब्रह्म-जिज्ञासा। पहला काम ये है कि आप जानिए। ये क्या चक्कर है? गायत्री माता की मूर्ति हो, तो आप ये पूछिए कि क्या बात है साहब! हमने तो मूर्ति रख दी और दण्ड पेल रहे हैं। दण्ड पेलिये मत। पहला काम ये है कि समझो।

🔵 क्यों और क्या? पहले यहाँ से चल। भजन पीछे करना। ये क्या चक्कर है? पहले ये पूछना, फिर इसके बाद शुरू करना। ये आपकी क्या है? जिज्ञासा है। प्रत्येक कर्मकाण्ड देखने से खिलवाड़ मालूम पड़ते हैं। चावल चढ़ा दिया गणेश जी पर। काहे के लिए चढ़ा दिया गणेश जी पर। काटे के लिए चढ़ा दिया गणेश जी पर। गणेश जी चावल खाएँगे और ऐसा चावल खाएँगे, कच्चा चावल खाएँगे गणेश जी। आप भी खाइए कच्चा चावल। गणेश जी मरेंगे कि जिएँगे कच्चा चावल खाने से? कच्चा चावल खाएँगे। कच्चा चावल नहीं खा सकते गणेश जी। गणेश जी को चावल खिलाना है, तो पकाकर लाइए। पका कर लाए हैं? हाँ साहब! और चावल कितना चावल लाए हैं?

🔴 गणेश जी पर चढ़ा रहे थे—अक्षतान् समर्पयामि। दिखाइये चावल जरा। ये रहे छह दाने। छह दानों से क्या होगा? गणेश जी का पेट तो इतना बड़ा है? थैली भर चावल पकाकर लाइये। अगर आप यही मानते हैं कि चावल चढ़ाना है, तो मखौल मत कीजिए। मक्खनबाजी मत कीजिए। जो बात मुनासिब है, वो कीजिए। अगर हम आपके घर जाएँ और आप कहें—गुरु जी! लीजिए खाना खाइये। हाँ बेटे! हमने तो आज खाया भी नहीं है। ये लीजिए चावल खा लीजिए छह दाने। छह दाने चावल बेटे! कैसे खा लूँ? पकाए हैं ना? नहीं साहब! पकाने की क्या जरूरत है इसमें? थाली में रखकर ला। नहीं साहब! थाली में भी क्या करेंगे आप? क्या करेंगे?

🔵 यहीं पटक देंगे, ये छह चावल के दाने। बेटे! इसको हम क्या करें? खा लीजिए। ये तो मुश्किल है, छह चावल तो हमारी दाढ़ी में चिपके रह जाएँगे। पेट कैसे भरेगा? और गणेश जी का? गणेश जी को ‘अक्षतं समर्पयामि’, गणेश जी को अक्षत चढ़ाता ही जा रहा है। समझता नहीं कि क्या चक्कर है? समझता है कि नहीं? नहीं साहब! मुझे क्यों समझना है? अक्षत चढ़ाऊँगा। भाड़ चढ़ाएगा अक्षत। मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको ये करना पड़ेगा कि क्रिया के साथ-साथ में शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ आपको समझनी चाहिए और समझनी ही नहीं वरन् हृदयंगम भी करनी चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutravidhi_nahi_vidhya_samjhe

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 93)

🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना

🔴  (4) आदर्श विवाहों का अभिनन्दन— सामाजिक कुरीतियों को कुचलते हुए, प्रतिक्रियावादियों का उपहास व्यंग एवं विरोध सहते हुए जिन लोगों ने इस प्रकार का साहस प्रदर्शित किया है, लोगों की परवा न करते हुए विवेक को महत्व दिया है, निस्सन्देह वे साहसी, शूर, आदर्शवादी और नेतृत्व कर सकने की क्षमता सम्पन्न व्यक्ति हैं। उनकी प्रशंसा और प्रतिष्ठा होनी चाहिए। जहां वीर पूजा नहीं होती वह भूमि वीरविहीन हो जाती है। इसलिए प्रयत्न यह किया जाना चाहिए कि इन आदर्शवादी विवाहों को, उनके संयोजकों को विवेकशील लोगों का समर्थन, सहयोग, सद्भाव एवं आशीर्वाद प्राप्त हो।

🔵 ऐसे विवाहों के अवसर पर सम्भ्रान्त लोगों के पास स्वयं व्यक्तिगत अनुरोध एवं निवेदन लेकर जाना चाहिए और उन्हें अधिकाधिक संख्या में एकत्रित करना चाहिए। जितने अधिक लोग इस प्रकार के आयोजन को देखेंगे उतनी ही चर्चा फैलेगी और अपने उद्देश्य की पूर्ति सम्भव हो सकेगी। इसलिए काफी दिन पहले से यह निमन्त्रण देने आरम्भ करने चाहिए।

🔴 ऐसे उत्सवों उपस्थित जो सज्जन आशीर्वाद एवं समर्थन देने आयें उनमें से जो भाषण कर सकते हों वे खड़े होकर अपने विचार भी व्यक्त करें। फूल माला लेकर सभी आगन्तुक आवें और उन्हें दोनों ओर के अभिभावकों को पहनावें जिन्होंने यह साहस प्रदर्शित किया। छपे अभिनन्दन पत्र भेट करने की व्यवस्था हो सके तो और भी उत्तम हैं। उस नगर में या आस-पास जो सार्वजनिक संस्थायें हों वे भी अपनी ओर से अभिनन्दन करें। युग-निर्माण शाखाओं को तो विशेष उत्साहपूर्वक ऐसे आयोजनों का अभिनन्दन करना चाहिए। जहां जुलूस सम्भव हों वहां वह भी निकालें जांय और लाउडस्पीकरों से उस विवाह की विशेषता जनता को बताई जाय। आशीर्वाद देने आने वाले व्यक्ति भोजन स्वीकार न करें। इलाइची जैसा छोटा सत्कार ही पर्याप्त माना जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 41)

🌹 गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

🔴 यात्रा में जहाँ भी रात्रि बितानी पड़ी, वहाँ काले साँप रेंगते और मोटे अजगर फुफकारते बराबर मिलते रहे। छोटी जाति का सिंह उस क्षेत्र में अधिक होता है। उसमें फुर्ती बबर शेर की तुलना में अधिक होती है। आकार के हिसाब से ताकत उसमें कम होती है। इसलिए छोटे जानवरों पर हाथ डालता है, शाकाहारियों में आक्रमणकारी पहाड़ी रीछ होता है। शिवालिक की पहाड़ियों एवं हिमालय के निचले इलाके में इर्द-गिर्द जंगली हाथी भी रहते हैं। उन सभी की प्रकृति यह होती है कि आँखों से आँखें न मिलें, उन्हें छेड़े जाने का भय न हो, तो अपने रास्ते ही चले जाते हैं। अन्यथा तनिक भी भय या क्रोध का भाव मन में आने पर वे आक्रमण कर बैठते हैं।

🔵 अजगर, सर्प, बड़ी छिपकली (गोह), रीछ, तेंदुए, चीते, हाथी इनसे आए दिन यात्रियों को कई-कई बार पाला पड़ता है। समूह को देखकर वे रास्ता बचाकर निकल जाते हैं, पर जब कोई मनुष्य या पशु अकेला सामने से आता है, तो वे बचते नहीं। सीधे रास्ते चलते जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य को ही उनके लिए रास्ता छोड़ना पड़ता है। अन्यथा मुठभेड़ होने पर आक्रमण एक प्रकार से निश्चित ही समझना चाहिए।

🔴 ऐसा आमना-सामना दिन और रात में मिलाकर दस से बीस बार हो जाता था। अकेला आदमी देखकर वे निर्भय होकर चलते थे और रास्ता नहीं छोड़ते थे। उनके लिए हमें ही रास्ता छोड़ना पड़ता था। यह घटनाक्रम लिखने और पढ़ने में तो सरल है, पर व्यवहार में ऐसा वास्ता पड़ना अति कठिन है। कारण कि वे साक्षात् मृत्यु के रूप में सामने आते थे, कभी-कभी साथ चलते या पीछे-पीछे चलते थे। शरीर को मौत सबसे डरावनी लगती है। हिंस्र पशु अथवा जिनकी आक्रमणकारी प्रकृति होती है, ऐसे जंगली नर-नील गाय भी आक्रमणकारी होते हैं।

🔵 भले ही वे आक्रमण न करें, पर डर इतना लगता है कि साक्षात मौत की घड़ी ही आ गई। जब तब कोई वास्ता पड़े, तो एक बात भी है, पर प्रायः हर घंटे में एक बार मौत से भेंट और हर बार प्राण जाने का डर लगना, अत्यधिक कठिन परिस्थितियों का सामना करने की बात थी। दिल धड़कना आरम्भ होता। जब तक वह धड़कन बंद न हो पाती, तब तक दूसरी नई मुसीबत सामने आ जाती और फिर नए सिरे से दिल धड़कने लगता। वे लोग एकाकी नहीं होते थे। कई-कई के झुंड सामने आ जाते। यदि हमला करते तो एक-एक बोटी नोंच ले जाते एवं कुछ ही क्षणों में अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/gur.2

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 41)

🌞 हिमालय में प्रवेश (गोमुख के दर्शन)

🔵 नदी नदों ने, झरने और सर सोतों ने भी अपना अलग अस्तित्व कायम न रखने की, अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और कीर्ति स्थापित करने की लालसा को दमन करने की जो दूरदर्शिता की है वह भी सर्वथा अभिनन्दनीय है। उनने अपने को खोकर गंगा की क्षमता, महत्ता और कीर्ति बढ़ाई। सामूहिकता का, एकत्रीकरण का, मिलजुल कर काम करने का महत्व समझा, इसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है। संगठन में ही शक्ति है यह उन्होंने वाणी से नहीं, मन से नहीं प्रत्यक्ष क्रिया से कर दिखाया, कर्मवीरता इसे ही कहते हैं, आत्म-त्याग के इस अनुपम आदर्श में जितनी महानता है उतनी ही दूरदर्शिता भी है। यदि वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहने पर अड़े रहते, सोचते जो मेरी क्षमता है उसका यश मुझे ही मिलना चाहिए और गंगा में मिलने से इनकार कर देते तो अवश्य ही उनका अपना अस्तित्व भी अलग रहता और नाम भी। पर वह होता इतना छोटा कि उसे उपेक्षणीय और नगण्य ही माना जाता। उस दशा में उस जल को गंगाजल कोई नहीं कहता और उसका चरणामृत सिर पर चढ़ाने को कोई लालायित न रहता।

🔴 गोमुख पर आज जिस पुनीत जल धारा में माता गंगा का दर्शन मज्जन मैंने किया, वह तो उद्गम मात्र था। पूरी गंगा का तो सहस्रों नदी नालों के संगठन से सामूहिकता का कार्य-क्रम लेकर चलने पर बनी है। गंगा सागर ने उसी का स्वागत किया है। सारी दुनिया उसी को पूजती है। गोमुख की तलाश में तो मुझ जैसे चन्द आदमी ही पहुंच पाते हैं।

🔵 गंगा और नदी नालों के सम्मिश्रण के महान् परिणाम को यदि सर्व साधारण की—नेता और अनुयायियों की समझ में आ जावे—लोग सामूहिक के, सामाजिकता के महत्व को हृदयंगम कर सकें—तो एक ऐसा ही पवित्र पापनाशिनी, लोकतारिणी संघ शक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है जैसा गंगा का हुआ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 40)

🌞 हिमालय में प्रवेश (गोमुख के दर्शन)

🔵 सोचता हूं कि यहां गोमुख में गंगा एक नन्हीं सी पतली धारा मात्र है। रास्ते में हजारों झरने, नाले और नदी उससे मिलते गये हैं। उनमें से कई तो इस गंगा की मूल धारा से कइयों गुने अधिक बड़े हैं। उन सबके संयोग से ही गंगा इतनी बड़ी और चौड़ी हुई है, जितनी हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग आदि में दिखाई पड़ती है। उसमें से बड़ी-बड़ी नहरें निकाली गई हैं। गोमुख के उद्गम का पानी तो उनमें से एक नहर के लिए भी पर्याप्त नहीं हो सकता। यदि कोई नदी-नाले रास्ते में उसे न मिले तो सम्भवतः सौ पचास मील की मिट्टी ही उसे सोखले और आगे बढ़ने का अवसर ही न रहे। गंगा महान् है—अवश्य ही महान् है। क्योंकि वह नदी-नाले को अपने स्नेह बन्धन से बांध सकने में समर्थ हुई। उसने अपनी उदारता का अंचल फैलाया और छोटे-छोटे झरनों नालों को भी अपने बाहुपाश से आबद्ध करके छाती से चिपटाती चली गई। उसने गुण-दोषों की परवा किये बिना सभी को अपने उदर अंचल में स्थान दिया।

🔴 जिसके अन्तर में आत्मीयता की, स्नेह सौजन्य की अगाध मात्रा भरी पड़ी है उसे जल राशि की कमी कैसे पड़ सकती है। दीपक जब स्वयं जलता तो पतंगे भी उस पर जलने को तैयार हो जाते हैं। गंगा जब परमार्थ के उद्देश्य से संसार में शीतलता फैलाने निकली है तो क्यों न नदी नाले भी उसकी आत्मा में अपनी आत्मा की आहुति देंगे? गांधी, बुद्ध, ईसा की गंगाओं में कितनी आत्माएं आज अपने को आत्म सात करा चुकी हैं, यही सभी को स्पष्ट दृष्टि गोचर हो रहा है।

🔵 गंगा की सतह सबसे नीची है, इसलिए नदी नालों का गिर सकना सम्भव हुआ। यदि उसने अपने को नीचा न बनाया होता, सबसे ऊपर उठकर चली, अपना स्तर ऊंचा रखती, तो फिर नदी नाले तुच्छ होते हुए भी उसके अहंकार को सहन न करते, उससे ईर्ष्या करते और अपना मुख दूसरी ओर मोड़ लेते। नदी नालों की उदारता है सही—उनका त्याग प्रशंसनीय है सही—पर उन्हें उस उदारता और त्याग को चरितार्थ करने का अवसर गंगा ने अपने को नम्र बनाकर, नीचे स्तर पर रखकर ही दिया है। अन्य अनेकों महत्ताएं गंगा की हैं पर यह एक महत्ता ही उसकी इतनी बड़ी है कि जितना भी अभिवादन किया जाय कम है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 40)

🌹 गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा

🔴 हमारी यात्रा चलती रही। साथ-साथ चिंतन भी चलता रहा। एकाकी रहने में मन पर दबाव पड़ता है क्योंकि वह सदा समूह में रहने का अभ्यासी है। एकाकीपन से उसे डर लगता है। अँधेरा भी डर का एक बड़ा कारण है। मनुष्य दिन भर प्रकाश में रहता है। रात्रि को बत्तियों का प्रकाश जला लेता है। जब नींद आती है, तब बिल्कुल अँधेरा होता है। उसमें भी डर उतना कारण नहीं जितना कि सुनसान अँधेरे में होता है।

🔵 एकाकीपन में विशेषतया मनुष्य के मस्तिष्क को डर लगता है। योगी को इस डर से निवृत्ति पानी चाहिए। ‘‘अभय’’ को अध्यात्म का अति महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। वह छूटे, तो फिर उसे गृहस्थ की तरह सरंजाम जुटाकर सुरक्षा का प्रबंध करते हुए रहना पड़ता है। मन की कच्चाई बनी रहती है।

🔴 दूसरा संकट हिमालय क्षेत्र के एकाकीपन में यह है कि उस क्षेत्र में वन्य जीवों, विशेषतया हिंस्र पशुओं का डर लगता है। कोलाहल रहित क्षेत्र में ही वे विचरण करते हैं। रात्रि ही उनका भोजन तलाशने का समय है। दिन में प्रतिरोध का सामना करने का डर उन्हें भी रहता है।

🔵 रात्रि में, एकाकी, अँधेरे में हिंस्र पशुओं का मुकाबला होना एक संकट है। संकट क्या सीधी मौत से मुठभेड़ है। कोलाहल और भीड़ न होने हिंस्र पशु दिन में भी पानी पीने या शिकार तलाशने निकल पड़ते हैं। इन सभी परिस्थितियों का सामना हमें अपनी यात्रा में बराबर करना पड़ा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/gur.2

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 92)

🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना

🔴  (3) जातियों के प्रान्तीय सम्मेलन— जिन जाति-उपजातियों में परस्पर विवाह हो सकता है उनके क्षेत्रीय मेले सम्मेलन तीन दिन के हुआ करें। इनमें प्रवचन भाषण ही नहीं, मनोरंजन के मेले जैसे आयोजन भी रहें। ठहरने और खाने का उचित प्रबन्ध रहे। उन मेलों में उस क्षेत्र के लोग जहां समाज सुधार, ज्ञान-चर्चा, संगठन व्यवस्था आदि की बातें कहें-सुनें वहां परस्पर परिचय बढ़ाकर अपने बच्चों के विवाह-शादी की समस्या भी सुलझावें। हो सके तो विवाह योग्य लड़का-लड़की को भी साथ लेते आवें, जिससे सम्बन्ध पक्के करने में और भी अधिक सुविधा हो सके।

🔵 ऐसे जातीय मेलों की तारीखें तथा स्थान नियत रहे। पचास-पचास मील चारों ओर का घेरा एक मेले का विशेष कार्य क्षेत्र माना जाय। इस प्रकार सौ मील लम्बाई-चौड़ाई का एक क्षेत्र उस मेले से सम्बन्धित हो। इससे उस प्रदेश के लोग परस्पर परिचित हो जायेंगे, उपयुक्त जोड़े ढूंढ़ने में अधिक आसानी से सफल हो जाया करेंगे। ऐसे मेले उन प्रदेशों के अलग-अलग क्षेत्रों में होते रहें जहां वे परस्पर विवाह करने वाली, जाति-उपजातियां फैली हुई हों।

🔴 इन मेलों में, जो जातीय वार्षिक सम्मेलन हों, उनके संगठन एवं प्रगतिशीलता की योजना विशेष रूप से बनाई जाय और उसी तरह के भाषण, प्रवचन एवं विचार विनियम होता रहे। इन सम्मेलनों में सामूहिक विवाहों का भी आयोजन हो। ऐसे विवाह बहुत ही सस्ते पड़ते हैं और दूर-दूर तक कुरीति विरोधी आन्दोलन की सफलता का प्रचार करते हैं। बिहार के मैथिल ब्राह्मणों में तथा पंजाब के सिखों में इस प्रकार की व्यवस्था बनाई हुई भी है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे जातीय मेले, जो आदर्श विवाहों का उद्देश्य पूरा करने में सहायक हों, जगह-जगह लगाये जायें और उन्हें सफल बनाया जाय।

🔵 जब कि निरर्थक मेले हर साल हजारों की संख्या में होते रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि विचारशील लोगों द्वारा, सदुद्देश्य के लिए सूझ-बूझ के साथ लगाये गये यह मेले सफल न हों। इनमें विवाह शादियों के अतिरिक्त सामूहिक यज्ञोपवीत आदि भी हो सकते हैं और अन्य अनेकों कुरीतियों का निवारण तथा जातीय समस्याओं का हल हो सकता है। ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि इन सम्मेलनों में प्रगतिशील लोगों की प्रमुखता हो। भावावेश में उनका संचालन तथा-कथित बड़े आदमियों के हाथों दे दिया गया तो वे लाल बुझक्कड़ इस माध्यम का उपयोग संकीर्णता एवं रूढ़िवादिता फैलाने में करने लगेंगे। इससे अपना मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जायगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 विधि नहीं, विधा समझें (भाग 1)

 👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 बेटे! मैं ये कह रहा था आपसे, आप गायत्री माता की उपासना का छोटा-सा स्वरूप अपना लें, छोटी-सी उपासना किया करें। मैंने तो आपको कितना बता दिया है! अनुष्ठान बता दिए हैं। क्या-क्या बता दिए हैं? मैंने तो आपको बी0ए0, एम0ए0 तक की पढ़ाई बता दी है; पर मान लीजिए बी0ए0, एम0ए0 तक की न आती हो, पहले दर्जे की पढ़ाई पढ़ना चाहते हों। मान लीजिए आप पहले दर्जे के विद्यार्थी हों तो पहले दर्जे की पढ़ाई को आप ठीक तरह से पढ़ लें, तो काम चल सकता है। कैसे पढ़ें? आप ऐसे कीजिए कि मन्त्र के साथ-साथ में आपने पढ़ा होगा— योगशास्त्र में लिखा है—क्या लिखा है? मन्त्र को अर्थ समेत जपना चाहिए। अर्थ समेत आप कहाँ जपते हैं? ये गलत बात है।

🔵 गायत्री मन्त्र की जिस प्रकार से बोलने की स्पीड है, उस तरह से विचार की स्पीड नहीं हो सकती। ‘भूः’ का अर्थ ये है, ‘भुवः’ का अर्थ ये है, तत् का अर्थ ये है। इस प्रकार से अर्थचिन्तन के साथ जप का समन्वय सम्भव नहीं और देखें जुबान कितनी तेजी से चलती है। अर्थ का चिंतन कितने धीमे से होता है? जप के साथ चिंतन नहीं हो सकता। गलत कहा है—गलत या तो गलत लिखा है या आपने गलत समझा है। गलत क्या बात है? इसका अर्थ ये है—कोई आप कृत्य करते हैं। प्रत्येक कृत्य के पीछे पता चलाना पड़ेगा। क्या पता चलाना पड़ेगा कि इसके पीछे प्रेरणा क्या है? शिक्षा क्या है?

🔴 स्थूल शरीर से आप प्रतीकों का पूजन करेंगे, चावल चढ़ाएँ, हाथ जोड़ें, नमस्कार करें, माला घुमाएँ, मन्त्र का उच्चारण करें। ये स्थूल शरीर की क्रियाएँ हैं। इतने से काम बनने वाला नहीं। फिर क्या करना चाहिए? आदमी को ये करना चाहिए कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के पीछे की विचारणाएँ, प्रेरणाएँ समझें। विचारणाएँ क्या हैं? प्रत्येक कर्मकाण्ड हमको कुछ शिक्षा देता है, कुछ नसीहत देता है, कुछ उम्मीदें कराता है। आपने उपासना की है, कर्मकाण्ड किया है, तो इस कर्मकाण्ड के माध्यम से जो आपको अपने जीवन में हेर-फेर करने चाहिए, विचारों में परिवर्तन करने चाहिए, उस परिवर्तन के लिए आप विचारमग्न हों, और विचार करें कि आखिर ये क्यों किया जाए?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutravidhi_nahi_vidhya_samjhe

Vasant Parva 2017 ( Full Program )

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बसन्त पर्व - पूर्व संध्या 31 जनवरी 2017 शांतिकुंज हरिद्वार | Vasant Parv Pre Evening 2017
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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