मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 01 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 01 March 2017


👉 गुरुदेव ने मेरी दृष्टि बदल दी

🔵 दिसम्बर का महीना था। वातावरण में हल्की फुल्की ठण्डक थी। बाहर का वातावरण बहुत ही खुशनुमा बना हुआ था। उस खुशी की धूप हमारे परिवार में भी छाई हुई थी। हमारी अधीर प्रतीक्षा को विराम देते हुए नर्स ने आकर सूचना दी- लड़का हुआ है। हम सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे। चूँकि बच्चा सिजरियन विधि से हो रहा था, इसलिए हम सभी चिंतित थे। नर्स के पीछे- पीछे एक हृष्ट- पुष्ट बच्चे को हाथों में लिए परिचारिका आई। उसके हाथ में बँधे नम्बर टैग को दिखाते हुए नर्स ने कहा- इस नम्बर को याद रखेंगे। अभी हम उसे आँख भर देख भी नहीं पाए थे कि परिचारिका उसे लेकर अंदर चली गई। साथ के सभी मित्र- परिजन एक दूसरे को बधाई देने लगे। किसी ने मिठाई मँगवाने की फरमाइश की। इन्कार का सवाल ही नहीं था। मैंने जेब से तत्काल रुपये निकालकर दे दिए। हृदय आनन्द से इस तरह आप्लावित था। कि कोई आसमान के तारे तोड़ लाने को कहते तो मैं उसके लिए भी चल पड़ता।

🔴 अभी अस्पताल की बहुत सारी औपचारिकताएँ पूरी होनी थी, इसलिए बाकी लोगों को वहीं छोड़ मैं वापस आ गया। बहुत सारे काम करने थे, सभी लोगों को खबर देनी थी। मैं अपनी व्यस्तता में खो गया। जब फुर्सत मिली तो सायंकालीन संध्या वंदन का समय हो चला था। अस्ताचलगामी दिवाकर की ओर देख मैं मन- ही कृतज्ञता से भर उठा। उसी समय अचानक अस्पताल से खबर मिली बच्चे की हालत गम्भीर है। इन्क्युबेटर में रखा गया है, ऑक्सीजन दिया जा रहा है।  

🔵 मैं सकते में आ गया। सहसा विश्वास नहीं कर सका। अभी दोपहर को ही स्वस्थ बच्चा देखकर आया था। इसी बीच ऐसा कैसे हो गया। घर में (ससुराल में) लोगों को बताया तो वहाँ रोना- धोना मच गया। पर मेरे पास तो रोने का भी अवसर नहीं था। मैं भागता हुआ अस्पताल पहुँचा। वहाँ डाक्टरों ने बताया बच्चे के नाक और मुँह से पानी आ रहा है। श्वास लेने में कठिनाई हो रही है। हम हर संभव प्रयास कर रहे हैं। ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि हमारा प्रयास सफल हो। अभी 72 घंटे के बाद ही कुछ कहने की स्थिति बन पाएगी। चिन्तित होकर मैंने माताजी की ओर देखा। वे लोग भी चिन्तित थे। पर उन्हें अपने गुरु पर अटूट भरोसा था। माता- पिता (ससुराल के) गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा से दीक्षित थे। मेरा मनोबल बढ़ाते हुए पिताजी ने कहा- बेटा चिन्ता मत कर, गुरुदेव जो करेंगे, भले के लिए ही करेंगे।

🔴 आज इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरी आँखें नम हो रही हैं, पर उस रात मैं रोया नहीं था। पिताजी के कहे वे शब्द मेरे अन्तर में उतरते चले गए। गहन अंतराल में कहीं ये शब्द बार- बार बज रहे थे। इन्हीं शब्दों में डूबते- उतराते खुली आँखों में ही रात बिता दी।

🔵 अगले दिन शाम को एक जूनियर डॉक्टर ने मुझे एकान्त में बुलाकर कहा- देखिए आप बच्चे के पिता हैं, आपको बता दूँ- यह एक हारा हुआ केस है। शायद उन्हें लगा होगा, माताजी के सामने ये बातें बताने पर वे रोने- बिलखने लगेंगी। लेकिन मैं उनके संयमित स्वभाव से परिचित था। मैंने उनको बताया कि डॉक्टर ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने शान्त स्वर में कहा- गुरुदेव हमारे साथ हैं, हम लोग अन्त तक कोशिश करेंगे।

🔴 शाम ६.३० बजे एक नर्स के सत्परामर्श पर हम सभी बच्चे को लेकर शिशु रोगों के लिए प्रसिद्ध फोटो पार्क नर्सिंग होम ले जाने के लिए तैयार हुए। वहाँ पहुँचने तक यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए मैंने अस्पताल से इन्क्युबेटर देने का आग्रह किया, लेकिन वह उपलब्ध न हो सका। बच्चे को गोद में लेकर एक एम्बुलेंस में बैठ गया। इतने छोटे बच्चे को ऑक्सीजन मास्क लगाना संभव नहीं था। एक नर्स ने थिस्ल टिप के बदले कागज का टिप बनाकर ऑक्सीजन पाइप को उसमें लगाकर मुझे पकड़ाते हुए कहा- इसे बच्चे के नाक के पास पकड़े रहें।

🔵 एम्बुलेंस तेजी से बढ़ती जा रही थी, सभी अन्य वाहन उसे रास्ता छोड़ते जाते। मैं बच्चे को एकटक निहार रहा था, कैसे निस्तब्ध सा पड़ा है मेरी गोद में...। इससे आगे मैं सोच नहीं पाता। पीछे की सीट पर माँ और पिताजी (सासू माँ और ससुर जी) बैठे थे। उनके मौन जप का क्रम निरंतर जारी था। गुरु जी के प्रति उनकी अपार श्रद्धा ही शायद मेरे बच्चे का जीवन लौटा लाए। मैंने भी आँखें मूँद लीं। ‘हे गुरुदेव, इतने छोटे बच्चे को इतना कष्ट क्यों’! मन- ही इतना कहते हुए मेरी आँखों में आँसू छलक आए; और एक बूँद टपक कर बच्चे के देह पर गिरा। यही वह क्षण था- पूरे अन्तर्मन को मथता हुआ एक विचार कौंधा, जितने अपनेपन से मैं इस बच्चे के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ, सबके लिए प्रार्थना करते समय भी मुझमें इतना ही अपनापन होना चाहिए। इस विचार- तरंग के बाद रुलाई स्वतः बंद हो गई। मन जैसे कोई अवलंबन पाकर निश्चिन्त सा हो गया कि सबका भला- बुरा देखने वाला एक है। जो होगा अच्छा ही होगा।

🔴 इन्हीं विचारों के उधेड़- बुन में एम्बुलेंस पार्क नर्सिंग होम पहुँच गई। वहाँ पहुँचते ही बच्चे को जाँच के लिए उपयुक्त कक्ष में ले जाया गया। १५ मिनट बाद हमें बताया गया कि बच्चे का एक नासाछिद्र पूरा बन्द है और एक आंशिक रूप से खुला हुआ है। नाक- मुँह से पानी बहने का यही कारण है। ठुड्डी भी छोटी है तथा फेरेञ्जियल पैरालिसिस हो गया है। जिसके कारण श्वास- नली और भोजन नली का सम्पर्क ठीक से नहीं बन पा रहा है। इसलिए बच्चा कुछ भी निगलने में असमर्थ है। दो विशिष्ट चिकित्सक डॉ० अशोक घोष (सर्जरी) और डॉ० अशोक राय (मेडिसिन) की देख- रेख में इलाज शुरू हुआ। यहाँ हाइजीनिक कारणों से बाहरी कोई वस्तु अन्दर ले जाने पर पाबन्दी थी। मैं अगले दिन गुरु देव का दिया हुआ ताबीज लेकर गया। नियम जानते हुए भी मुझसे रहा नहीं गया। बच्चे की देख−भाल करने वाली नर्स मणिमाला को बुलाकर मैंने अनुनय भरे स्वर में पूछा- आप मेरे गुरुदेव द्वारा दिए हुए इस ताबीज को मेरे बेटे के माथे से स्पर्श कराकर ला देंगी? उसने मुस्कुराते हुए ताबीज ले ली। थोड़ी देर बाद वापस करते हुए उसने कहा- वैसे मेरे हाथ से आज तक कोई केस खराब नहीं हुआ है; फिर भी आपके इच्छानुसार मैंने इस ताबीज को बच्चे के सारे शरीर में स्पर्श करा दिया है। सब कुछ करने वाले तो वही हैं, हम तो केवल प्रयास भर करते हैं।

🔵 इसी तरह प्रतिदिन शाम को बच्चे को ताबीज का स्पर्श कराता रहा। चौथे दिन डॉ० घोष से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने गुरु देव के विषय में भी जानना चाहा। मेरे बताने पर उन्होंने कहा- अब बच्चे को मेरे इलाज की आवश्यकता नहीं। भविष्य में कभी (४- ५ साल बाद) जरूरत पड़े तो मेरे पास अवश्य आएँ। उन्होंने अपना सेवा शुल्क (प्रति विजिट ५००/- रुपये) लेने से मना करते हुए कहा कि सर्जरी की जरूरत ही नहीं पड़ी। नाक के छिद्र स्वतः ही खुल गए।

🔴 इसके बाद का इलाज डॉ० राय ने किया। कुल १३ दिनों तक इलाज चला। इस बीच सभी के व्यवहार में कुछ बदलाव आ गया था। वहाँ के सभी डॉक्टर और नर्सें मुझे कुछ अतिरिक्त सम्मान देने लगे थे। मैंने इसे गुरुदेव का ही सम्मान माना। अन्तिम दिन जब नर्सिंग होम से बच्चे को वापस लाने के लिए गया तो वहाँ की बहुत सारी नर्सें इकट्ठी होकर मुझसे मिलने आईं और अनुरोध किया- भाई साहब हमारे लिए कुछ कहकर जाएँ। अचानक इस प्रकार के अनुरोध से मैं स्तम्भित रह गया। फिर कुछ सँभलते हुए कहा- हम गायत्री परिवार के हैं। गुरु देव कहते हैं गायत्री की मूल शिक्षा है- सभी के लिए सद्बुद्धि की कामना। आप भी यही कामना करें। बस मैं तो इतना ही जानता हूँ।

🔵 डॉ० राय की फीस भी वहाँ के प्रबंधन ने लेने से इनकार कर दिया। आज ११ साल बाद भी कभी बच्चे को नर्सिंग होम नहीं ले जाना पड़ा। पूर्ण अन्तःकरण से मैं यह विश्वास करता हूँ कि गुरुदेव की सूक्ष्म सत्ता हमें सदा संरक्षण देती रहती है। मैं नतमस्तक हूँ उनके इस स्नेह के प्रति। 

🌹 अनुज चक्रवर्ती कोलकाता (प.बंगाल)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/gurudev.1

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 8)

🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं  

🔴 यदि प्रतिगामी, प्रतिभावान समझे जाते, तो अब तक यह दुनिया उन्हीं के पेट में समा गई होती और भलमनसाहत को चरितार्थ होने के लिए कहीं स्थान ही न मिलता। काया और छाया दोनों देखने में एक जैसी लग सकती है; पर उनमें अन्तर जमीन-आसमान जैसा होता है। मूँछें मरोड़ने, आँखें तरेरने और दर्प का प्रदर्शन करने वालों की कमी नहीं। ठगों और जालसाजों की करतूतें भी देखते ही बनती हैं। इतने पर भी उनका अन्त कुकुरमुत्तों जैसी विडम्बना के साथ ही होता है। यों इन दिनों तथाकथित प्रगतिशील ऐसे ही अवाञ्छनीय हथकण्डे अपनाते देखे गए हैं, पर उनका कार्य क्षेत्र विनाश ही बनकर रह जाता है। कोई महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक उत्कृष्टता का पक्षधर प्रगतिशील कार्य उनसे नहीं बन पड़ता।           

🔵 यह विवेचना इसलिए की जा रही है कि जिनको बोलचाल की भाषा में प्रगतिशील कहा जाने लगा है, उनकी वास्तविकता समझने में किसी को भ्रम न रह जाए, कोई आतंक को प्रतिभा न समझ बैठे। वह तो उत्कृष्टता के साथ साहसिकता का नाम है। वह जहाँ भी होती है, वहाँ कस्तूरी की तरह महकती है और चन्दन की तरह समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है।  

🔴 गाँधी जी के परामर्श एवं सान्निध्य से ऐसी प्रतिभाएँ निखरीं, एकत्रित हुईं एवं कार्य क्षेत्र में उतरीं कि उस समुच्चय ने देश के वातावरण में शौर्य-साहस के प्राण फूँक दिये। उनके द्वारा जो किया गया, सँजोया गया, उसकी चर्चा चिरकाल तक होती रहेगी। देश की स्वतन्त्रता जैसी उपलब्धि का श्रेय, उसी परिकर को जाता है, जिसे गाँधी जी के व्यक्तित्व से उभरने का अवसर मिला, उनमें सचमुच जादुई शक्ति थी।  

🔵 इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री चर्चिल भारत के वायसराय को परामर्श दिया करते थे कि वे गाँधी जी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न आने दें। उनके समीप पहुँचने से वह उनके जादुई प्रभाव में फँसकर, उन्हीं का हो जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 काशीफल का दान

🔴 कटक (उडीसा) के समीप एक गाँव में एक सभा का आयोजन किया गया उसमें हजारों संभ्रांत नागरिक और आदिवासी एकत्रित थे। गाँधी जी को हिंदी में भाषण का अभ्यास था, किंतु इस आशंका से कि कही ऐसा न हो यह लोग हिंदी न समझ पायें उडिया अनुवाद का प्रबंध कर लिया गया था।

🔵 भाषण कुछ देर ही चला था कि भीड़ ने आग्रह किया गाँधी जी आप हिंदी में ही भाषण करे। सीधी-सच्ची बातें जो हृदय तक पहुँचती हैं, उनके लिए बनावट और शब्द विन्यास की क्या आवश्यकता आपकी सरल भाषा में जो माधुर्य छलकता है उसी से काम चल जाता है, दोहरा समय लगाने की आवश्यकता नहीं।

🔴 गाँधीजी की सत्योन्मुख आत्मा प्रफुल्ल हो उठी। उन्होंने अनुभव किया कि सत्य और निश्छल अंत:करण का मार्गदर्शन भाषा-प्रान्त के भेदभाव से कितने परे होते है ? आत्मा बुद्धि से नहीं हृदय से पहचानी जाती है। समाज सेवक जितना सहृदय और सच्चा होता है लोग उसे उतना ही चाहते हैं, फिर चाहे उसकी योग्यता नगण्य-सी क्यों न हो। आत्मिक तेजस्विता ही लोक-सेवा की सच्ची योग्यता है- यह मानकर वे भाषण हिंदी में करने लगे।

🔵 लोगों को भ्रम था कि गाँधी जी की वाणी उतना प्रभावित नही कर सकेगी पर उनकी भाव विह्वलता के साथ सब भाव-विह्वल होते गए। सामाजिक विषमता, राष्ट्रोद्धार और दलित वर्ग के उत्थान के लिए उनका एक-एक आग्रह श्रोताओं के हृदय में बैठता चला गया।

🔴 भाषण समाप्त हुआ तो गाँधी जी ने कहा- ''आप लोगों से हरिजन फंड के लिये कुछ धन मिलना चाहिए। हमारी सीधी सादी सामाजिक आवश्यकताएँ आप सबके पुण्य सहयोग से पूरी होनी है।'' गांधी जी के ऐसा कहते ही रुपये-पैसों की बौछार होने लगी, जिसके पास जो कुछ था देता चला गया।

🔵 एक आदिवासी लड़का भी उस सभा में उपस्थित था। अबोध बालक, पर आवश्यकता को समझने वाला बालक। जेब में हाथ डाला तो हाथ सीधा पार गया। एक भी पैसा तो उसके पास न था जो बापू की झोली में डाल देता किंतु भावनाओ का आवेग भी तो उसके सँभाले नहीं सँभल सका। जब सभी लोग लोक-मंगल के लिए अपने श्रद्धा-सुमन भेंट किए जा रहे हों, वह बालक भी चुप कैसे रह सकता था ?

🔴 भीड को पार कर घर की ओर भागता हुआ गया और एक कपडे मे छुपाए कोई वस्तु लेकर फिर दौडकर लौट आया। गाँधी जी के समीप पहुँचकर उसने वह वस्तु गांधी जी के हाथ मे सौंप दी। गाँधी ने कपडा हटाकर देखा-बडा-सा गोल-मटोल काशीफल था।

🔵 गाँधी जी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस बच्चे की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा-कहाँ से लाए यह काशीफल ?

🔴 ''मेरे छप्पर मे लगा था बापू।" लडके ने सरल भाव से कहा-हमने अपने दरवाजे पर इसकी बेल लगाई है, उसका ही फल है और तो मेरे पास कुछ नहीं है, ऐसा कहते हुए उसने दोनो जेबें खाली करके दिखा दी।

🔵 आँखें छलक आई भावनाओं के साधक की। उसने पूछा बेटे- आज फिर सब्जी किसकी खाओगे ?

🔴 ''आज नमक से खा लेंगे बापू! लोक-मंगल की आकांक्षा खाली हाथ न लौट जाए, इसलिये इसे स्वीकार कर लो।'' बच्चे ने साग्रह विनय की।

🔵 गांधी जी ने काशीफल भंडार में रखते हुए कहा-मेरे बच्चो! जब तक तुम्हारे भीतर त्याग और लोक-सेवा का भाव अक्षुण्ण है, तब तक अपने धर्म और अपनी संस्कृति को कोई दबाकर नहीं रख सकेगा।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 56, 57

👉 प्रकृति की चोरी

🔵 काँग्रेस कार्यकारिणी की मीटिंग में सम्मिलित होने, एक बार गाँधीजी इलाहाबाद आये और पं0 मोती लाल नेहरू के यहाँ आनन्द भवन में ठहरे। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होकर गाँधीजी हाथ मुँह धो रहे थे और जवाहरलाल नेहरू पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधीजी जितना पानी लिया करते थे वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा।

🔴 इस पर गाँधीजी बड़े खिन्न हुए और बात चीत का सिलसिला टूट गया। जवाहरलालजी ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा— ध्यान न रहने से मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप से खर्च कर दिया और अब मुझे दुबारा फिर लेना पड़ रहा है। यह मेरा प्रमाद है।

🔵 पं0 नेहरू हंसे और कहा— यहाँ तो गंगा-जमुना दोनों बहती हैं। रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है आप थोड़ा अधिक पानी खर्च कर लें तो क्या चिन्ता की बात है।

🔴 गाँधी जी ने कहा— गंगा-जमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहतीं। प्रकृति में कोई चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उसके लिए अनिवार्यतः आवश्यक हो। ऐसा न करने से दूसरों के लिए कमी पड़ेगी और वह प्रकृति की एक चोरी मानी जायगी।

🌹 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964

👉 सन्धिकाल की विषमवेला में वरिष्ठों का दायित्व

🔵 मनःस्थिति की विपन्नता ने आज मनुष्य को जर्जर बनाकर रख दिया है। अवांछनीय प्रचलनों ने परिस्थितियों को अत्यन्त कष्टदायी बना दिया है। व्यक्ति मानवी गरिमा से गिरकर बहुत नीचे आ गया है। उसकी शालीनता सदाशयता न जाने कौन ले गया? समाज व्यवस्था की भी ऐसी ही दुर्गति हो रही है। सहकारिता सद्भावना की, वसुधैव कुटुम्बकम् की हिल-मिलकर रहने और हँस-बाँटकर खाने की प्रथा घटते-घटते लुप्तप्राय होती जा रही है। मनुष्य कलेवर में नर पशुओं और नर-पिशाचों के झुण्ड ही विचरण करते देखे जाते हैं। समाज को अन्धी भेड़ों का समूह अथवा भूत-पलीतों की चाण्डाल चौकड़ी जैसा ही कुछ नाम दिया जा सकता है।

🔴 ऐसी विपन्न-वेला में स्रष्टा एक ही नीति अपना सकता है- अवांछनीयता की गलाई-उत्कृष्टता की ढलाई। यही दो गतिविधियाँ हैं जो युगसन्धि की इस वेला में सम्पन्न होती देखी जा सकेंगी। अवांछनीयता को गलते-समाप्त होते भी देखा जा सकेगा, साथ ही दूसरा कार्य नवसृजन का भी चलता देखा जा सकेगा। इसे उज्ज्वल भविष्य की ढलाई कहा जाएगा। दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती अभी भी देखी जा सकती हैं, पूर्णता की स्थिति में अब तीव्र गति से सम्पन्न होती देखी जा सकेंगी। जब भी ऐसा परिवर्तन होता है, मूलतः प्रकृत्ति के सम्बन्ध में ही है, किन्तु उसकी चपेट में मनुष्य आये बिना नहीं रहता। रोग मारने में आखिर रोगी को भी कई प्रकार की व्यथाएँ चिकित्सा द्वारा पहुँच ही जाती हैं।

🔵 तीव्र एण्टीबायोटिक स्तर की दवाएँ यही तो करती हैं। उद्देश्य निर्दोष रहने पर भी कड़वी दवा खिलाने से लेकर सुई लगाने और शल्य क्रिया करने तक के कई कष्टकर कार्य चिकित्सक के हाथों ही होते रहते हैं। वैसा ही कुछ अवतारी सत्ता के हाथों अगले दिनों होने जा रहा है। इन शेष बचे वर्षों में मनःस्थिति उलटने में जहाँ अग्रगामी युगशिल्पी अपने मूर्धन्य कौशल का परिचय देंगे, वहाँ अदृश्य जगत् में हो रहे प्रकृति प्रवाह भी अपना काम करेंगे। वे परिवर्तन में सहायता करने के लिए गलाई-ढलाई में सहायक रहने के लिए ही प्रकट होगा, किन्तु उनके स्वरूप ज्वार-भाटे की तरह, अन्धड़-तूफान की तरह विचित्र ही नहीं भयावह भी होंगे। उनकी चपेट में गेहूँ के साथ घुन पिसने, सूखे के साथ गीला जलने जैसे दृश्य भी उपस्थित होंगे।

🔴 युगान्तरीय चेतना तूफानी परिवर्तन साथ लेकर आ रही है। दूसरी ओर अन्धकार को चुनौती देने वाला प्रभात भी उसी उषाकाल में अपने आगमन की जानकारी दे रहा है। इस युगसन्धि की वेला में आत्मकल्याण, लोकमंगल और ईश्वरीय अनुग्रह के त्रिविध वरदान उस साधना से उन सभी को सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं, जो महाकाल ने विशिष्टों के लिए निर्धारित किए हैं। महानता के वरण का ठीक यही समय है।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 19

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 24)

🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं

🔴 यह बात सत्य है कि मानव जीवन में अनुपात दुःख-क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच-बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है, और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा बनी रहती है। प्रसन्नता जीवन के लिए संजीवनी तत्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिए। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।

🔵 प्रसन्नता वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिए निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं। किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखिये— तो क्या आप उसके लिए प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा—‘‘कि प्रयत्न तो अधिक करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती।’’ निःसन्देह मनुष्य की यह असफलता आश्चर्य  ही नहीं दुःख का विषय है।।

🔴 कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य सम्पूर्ण अणु-क्षण एकमात्र, प्रसन्नता प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते जो कुछ भी अच्छा-बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 2)

🌹 चेतना की सत्ता एवं उसका विस्तार

🔵 इस संसार में जड़ के साथ चेतन भी गुँथा हुआ है। काम करती तो काया ही दीखती है, पर वस्तुत: उसके पीछे सचेतन की शक्ति काम कर रही होती है। प्राण निकल जाएँ तो अच्छी-खासी काया निर्जीव हो जाती है। कुछ करना-धरना तो दूर, मरते ही सड़ने-गलने का क्रम आरंभ हो जाता है, और बताता है कि जड़ शरीर तभी तक सक्रिय रह सकता है, जब तक कि उसके साथ ईश्वरीय चेतना जुड़ी रहती है। दोनों के पृथक् होते ही समूचे खेल का अंत हो जाता है।      

🔴 एकाकी चेतना का अपना अस्तित्व तो है। उसकी निराकार सत्ता सर्वत्र समाई हुई है। साकार होती तो किसी एक स्थान पर, एक नाम-रूप के बंधन में बँधकर रहना पड़ता और वह ससीम बनकर रह जाती। इसलिये उसे भी अपनी इच्छित गतिविधियाँ चलाने के लिये किन्हीं शरीर कलेवरों का आश्रय लेना पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करना संभव है। निराकार तो प्रकृति की लेसर, एक्स-किरणें आदि अनेक धाराएँ काम करती हैं, पर उनको समझ सकना खुली आँखों से नहीं वरन् किन्हीं सूक्ष्म उपकरणों के सहारे ही संभव हो पाता है। गाड़ी के दो पहिए मिल-जुलकर ही काम चलाते हैं। इसी प्रकार इस संसार की विविध गतिविधियाँ विशेषत: प्राणिसमुदाय की इच्छित हलचलों के पीछे अदृश्य सत्ता ही काम करती है, जिसे ईश्वर आदि नामों से जाना जाता है।   

🔵 विराट ब्रह्मांड में संव्याप्त सत्ता को विराट् ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। वही सर्वव्यापी, न्यायकर्ता, सत्-चित्-आनंद आदि विशेषणों से जाना जाता है। उसी का एक छोटा अंश जीवधारियों के भीतर काम करता है। मनुष्य में इस अंश का स्तर ऊँचा भी है और अधिक भी, इसलिये उसके अंतराल में अनेक विभूतियों की सत्ता प्रसुप्त रूप में विद्यमान पाई जाती है। यह अपने निजी पुरुषार्थ के ऊपर अवलंबित है कि उसे विकसित किया जाए या ऐसे ही उपेक्षित रूप में-गई-गुजरी स्थिति में वहीं पड़ी रहने दिया जाए।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 6)

🌹 दीक्षा क्या? किससे लें?

🔴 बस यही मनुष्यता की दीक्षा और मनुष्यता की ऊपरी परिधि में प्रवेश करने का शुभारंभ है। इसी का नाम अपने यहाँ गायत्री मंत्र की दीक्षा है। ये दीक्षा आवश्यक मानी गई है और दीक्षा ली जानी चाहिए। लेकिन दीक्षा के लिए व्यक्ति का कोई उतना ज्यादा महत्त्व नहीं है। व्यक्ति जब दीक्षा देता है, अपने आप को व्यक्ति गुरु बनाता है और अपने शरीर के साथ में शिष्य के शरीर को जोड़ने लगता है, तो उसका नाम गुरूडम है। गुरुडम का कोई मूल्य नहीं है।

🔵 गुरुडम से नुकसान भी है। यदि व्यक्ति समर्थ नहीं है, शुद्ध और पवित्र नहीं है और निर्लोभ नहीं है और उसकी आत्मा उतनी ऊँची उठी हुई नहीं है, घटिया आदमी है; तब उसके साथ में सम्बन्ध मिला लिया जाए, तो वह शिष्य भी उसी तरह का घटिया होता हुआ चला जाएगा। गुरु का उत्तरदायित्त्व उठाना सामान्य काम नहीं है। गुुरु दूसरा भगवान् का स्वरूप है और भगवान् के प्रतीक रूप में सबसे श्रेष्ठ जो मनुष्य हैं, व्यक्तिगत रूप से सिर्फ उन्हें ही दीक्षा देनी चाहिए, अन्य व्यक्तियों को दीक्षा नहीं देनी चाहिए।   

🔴 उन्हें (दीक्षा देने वालों को) भगवान् के साथ सम्बन्ध मिला देने का काम करना चाहिए। विवाह सिर्फ उसी आदमी को करना चाहिए, जो अपनी बीबी को प्यार देने और उसके लिए रोटी जुटाने में समर्थ है। विवाह संस्कार तो कोई भी करा सकता है, पण्डित भी करा सकता है। दक्षिणा दे करके विवाह करा ले, बात खतम। लेकिन पण्डित जी कहने लगे कि इस लड़की से जो एम.ए. पास है और जो पीएच. डी. है, मैं ब्याह करूँगा।

🔵 लेकिन उसके लिए अपने  पास जवानी भी होनी चाहिए, पैसे भी होने चाहिए, अनेक बातें होनी चाहिए। अगर ये सब न हों, तो कोई लड़की कैसे ब्याह करने को तैयार हो जाएगी? दीक्षा को एक तरह का आध्यात्मिक विवाह ही कहते हैं। आध्यात्मिक विवाह करना हर आदमी के वश की बात नहीं है। बीबी का पालन करना, बच्चे पैदा करना और बीबी की रखवाली करना हरेक का काम है क्या? नहीं, हरेक का काम नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/8

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 64)

🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

🔴 उत्तरकाशी में जैसा जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक था, जहाँ-तहाँ वैसे अनेकों ऋषि आश्रम संव्याप्त थे। शेष ऋषि अपने-अपने हिस्से की शोध तपश्चर्याएँ करने में संलग्न रहते थे। देवताओं के स्थान वहाँ थे, जहाँ आज-कल हम लोग अब रहते हैं। हिमयुग के उपरांत न केवल स्थान ही बदल गए, वरन् गतिविधियाँ बदलीं तो क्या, पूरी तरह समाप्त ही हो गईं, उनके चिह्न भर शेष रह गए हैं।

🔵 उत्तराखण्ड में जहाँ-तहाँ देवी-देवताओं के मंदिर तो बन गए हैं ताकि उन पर धनराशि चढ़ती रहे और पुजारियों का गुजारा होता चले, पर इस बात को न कोई पूछने वाला है न बताने वाला कि ऋषि कौन थे? कहाँ थे? क्या करते थे? उसका कोई चिह्न भी अब बाकी नहीं रहा। हम लोगों की दृष्टि में ऋषि परम्परा की तो अब एक प्रकार से प्रलय ही हो गई।

🔴 लगभग यही बात उन बीसियों ऋषियों की ओर से कही गई, जिनसे हमारी भेंट कराई गई। विदाई देते समय सभी की आँखें डबडबाई सी दीखीं। लगा कि सभी व्यथित हैं। सभी का मन उदास और भारी है, पर हम क्या कहते? इतने ऋषि मिलकर जितना भार उठाते थे, उसे उठाने की अपनी सामर्थ्य भी तो नहीं है। उन सबका मन भारी देखकर अपना चित्त द्रवित हो गया। सोचते रहे। भगवान ने किसी लायक हमें बनाया होता तो इन देव पुरुषों को इतना व्यथित देखते हुए चुप्पी साधकर ऐसे ही वापस न लौट जाते। स्तब्धता अपने ऊपर भी छा गई और आँखें डबडबाने लगीं, प्रवाहित होने लगीं। इतने समर्थ ऋषि, इतने असहाय, इतने दुःखी, यह उनकी वेदना हमें बिच्छू के डंक की तरह पीड़ा देने लगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 65)

🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

🔵 जो लोग अपने को शरीर मान बैठते हैं, इन्द्रिय तृप्ति तक अपना आनन्द सीमित कर लेते, वासना और तृष्णा कि पूर्ति ही जिनका जीवनोद्देश्य बन जाता है,उनके लिए पैसा, अमीरी, बड़प्पन,प्रशंसा, पदवी पाना ही सब कुछ हो सकता है। वे आत्म- कल्याण की बात भुला सकते हैं और लोभ- मोह की सुनहरी हथकड़ी- बेड़ी चावपूर्वक पहने रह सकते हैं। उनके लिए श्रेय पथ पर चलने की सुविधाजनक स्थिति न मिलने का बहाना  सही हो सकता है। अंत:करण की आकांक्षाएँ ही साधन जुटाती हैं। जब भौतिक सुख सम्पत्ति ही लक्ष्य बन गया, तो चेतना का सारा प्रयास उन्हें जुटाने में लगेगा। उपासना तो फिर हल्की सी खिलवाड़ रह जाती है। कर ली तो ठीक, न कर ली तो ठीक।

🔴 कौतूहल की दृष्टि से लोग देखा करते हैं कि लोग इनका थोड़ा तमाशा देख लें, कुछ मिलता है या नहीं- थोड़ी देर अनमनी तबियत से चमत्कार मिलने की दृष्टि से उल्टी- पुल्टी पूजा- पत्री चलाई तो उन पर विश्वास नहीं जमा, सो छूट गई, छूटनी भी थी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में, जीवनोद्देश्य प्राप्त करने की तीव्र लगन के अभाव में कोई आत्मिक प्रगति नहीं कर सकता। यह सब तथ्य हमें अनायास ही विदित थे। सो शरीर यात्रा और परिवार व्यवस्था जमाये भर रहने के लिए जितना अनिवार्य रूप से आवश्यक था उतना ही ध्यान उस ओर दिया। उन प्रयत्नों को मशीन का किराया भर चुकाने की दृष्टि से किया। अन्त:करण लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तत्पर रहा सो भौतिक प्रलोभनों और आकर्षणों में भटकने की कभी जरुरत नहीं हुई।

🔵 जब अपना स्वरूप आत्मा की स्थिति में होने लगा और अन्त:करण परमेश्वर का परम पवित्र निवास दीखने लगा तो चित्त अंतर्मुखी हो गया। सोचने का तरीका इतना भर सीमित रह गया कि परमात्मा के राजकुमार आत्मा को क्या करना, किस दिशा में चलना चाहिए? प्रश्न सरल थे और उत्तर भी सरल। केवल उत्कृष्ट जीवन जीना चाहिए और केवल आदर्शवादी कार्य- पद्धति अपनानी चाहिए। जो इस मार्ग पर चले नहीं, उन्हें बहुत डर लगता है कि यह रीति- नीति अपनाई तो बहुत संकट आवेगा और गरीबी, तंगी, भर्त्सना और कठिनाई सहनी पड़ेगी। मित्र शत्रु हो जायेंगे और घर वाले विरोध करेंगे, अपने को भी आरम्भ में ऐसा ही लगा और अनुभव हुआ।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...